‘हाईकमान’ संस्कृति, लोकतांत्रिक मूल्यों का निरादर

अन्तर्द्वन्द

एक बार राष्ट्रीय पार्टी के राज्य में सत्ता हासिल करने के बाद मुख्यमंत्री के चयन में पार्टी आलाकमान के पास असंगत रूप से बड़ा विवेक होता है, राज्य के विधायकों को इस संबंध में बहुत कम या कोई अधिकार नहीं होता है। यह प्रथा उस संवैधानिक जनादेश का अपमान करती है जो बहुमत पार्टी के विधायकों को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अपना नेता चुनने का अधिकार देता है। आज देश के तीन प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों में बड़ी जीत के बाद मुख्यमंत्री बने हैं। लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के हिसाब से जीते हुए विधायकों के बहुमत से मुख्यमंत्री बनने चाहिए, लेकिन इस देश में हाल के दशकों में शायद ही कभी और कहीं इस आधार पर मुख्यमंत्री तय किए गए हों। देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में हाई कमान की संस्कृति विकसित और मजबूत हो चुकी है, और ऐसे फैसले राज्यों की राजधानी में नहीं, देश की राजधानी में तय होते आए हैं, और आज यही हो रहा है। यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर इसलिए खोजा जाना चाहिए, ताकि भारतीय लोकतंत्र और सुदृढ़ हो सके और आलाकमान संस्कृति खत्म हो सके। यह संस्कृति लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा विरुद्ध है।

आज देश के प्रजातंत्र को नेतृत्व परिवर्तन की समान चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जहां मुद्दे एक बड़े संकट में बदल रहे हैं। इन चुनौतियों की जड़ में ‘हाईकमान’ संस्कृति है, जिसमें राजनीतिक दलों का सर्वोच्च राष्ट्रीय नेतृत्व निचले स्तरों पर सख्ती से नियंत्रण रखता है, जिससे राज्य इकाइयों की स्वायत्तता खत्म हो जाती है। किसी संगठन के भीतर फैसले कितने सही हैं और कितने गलत, यह उस संगठन के अपने तौर-तरीकों पर भी निर्भर करता है। आज देश के तीन प्रमुख हिन्दी भाषी राज्यों में बड़ी जीत के बाद मुख्यमंत्री बने हैं। लोकतांत्रिक तौर-तरीकों के हिसाब से जीते हुए विधायकों के बहुमत से मुख्यमंत्री बनने चाहिए, लेकिन इस देश में हाल के दशकों में शायद ही कभी और कहीं इस आधार पर मुख्यमंत्री तय किए गए हों। देश की दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों में हाई कमान की संस्कृति विकसित और मजबूत हो चुकी है, और ऐसे फैसले राज्यों की राजधानी में नहीं, देश की राजधानी में तय होते आए हैं, और आज यही हो रहा है। जब भी कोई दल मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना चुनाव लड़ता है तो फिर जीत के बाद उसके चयन में आम जनता की कोई भूमिका नहीं रह जाती। उसका चयन होता है आलाकमान की इच्छा पर और इस बारे में जनता को कुछ भी पता नहीं चलता कि जिसके पक्ष में फैसला होता है, वह किस आधार पर होता है? यह लोकतांत्रिक मूल्यों का निरादर है। यह वह प्रश्न है जिसका उत्तर इसलिए खोजा जाना चाहिए, ताकि भारतीय लोकतंत्र और सुदृढ़ हो सके और आलाकमान संस्कृति खत्म हो सके। यह संस्कृति लोकतांत्रिक मूल्यों के सर्वथा विरुद्ध है।

1971 के राष्ट्रीय चुनावों के बाद, 1970 के दशक की शुरुआत में हाईकमान संस्कृति की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है और अब भी बनी हुई है। तो आज तक इसके अनुसार, राज्यों और उसकी सभी राज्य इकाइयों में सभी प्रमुख नियुक्तियों के संबंध में आलाकमान अकेले ही निर्णय लेता है। अपने करिश्माई नेता और अपने राजनीतिक रणनीतिकार के पूर्ण नियंत्रण से अपनी इच्छानुसार मुख्यमंत्रियों को चुनकर और हटाकर देश की पार्टियों ने हाईकमान संस्कृति को दोहराया है। पार्टी के निचले स्तरों पर सर्वोच्च नेतृत्व का ऐसा स्पष्ट प्रभुत्व देश की अन्य प्रमुख पार्टियों में भी देखा जाता है। चूंकि भारत जैसी विविध राजनीति में राज्य की राजनीति स्थानीय राजनीतिक अभिजात वर्ग के बीच पीढ़ीगत दरार और सत्ता संघर्ष के साथ-साथ हितों की अधिकता का प्रतिनिधित्व करने वाले विभिन्न गुटों के बीच उच्च स्तर के आंतरिक संघर्षों से चिह्नित होती है, इसलिए राष्ट्रीय नेतृत्व का एक निश्चित स्तर का पदानुक्रमित नियंत्रण होता है। राज्य स्तर पर पार्टी को एकजुट रखने के लिए यह अपरिहार्य है। हालाँकि, हाईकमान संस्कृति, जो अब भारतीय राजनीति की अनिवार्य शर्त बन गई है, अक्सर राष्ट्रीय पार्टियों की राज्य-स्तरीय पार्टी इकाइयों की स्वायत्तता को गंभीर रूप से दबा देती है, जो बड़े पैमाने पर राष्ट्रीय पार्टी नेतृत्व की इच्छा पर काम करती हैं।

एक बार राष्ट्रीय पार्टी के राज्य में सत्ता हासिल करने के बाद मुख्यमंत्री के चयन में पार्टी आलाकमान के पास असंगत रूप से बड़ा विवेक होता है, राज्य के विधायकों को इस संबंध में बहुत कम या कोई अधिकार नहीं होता है। यह प्रथा उस संवैधानिक जनादेश का अपमान करती है जो बहुमत पार्टी के विधायकों को राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में अपना नेता चुनने का अधिकार देता है। यह भी पाया गया है कि आलाकमान राष्ट्रीय राजधानी से राज्यों में कैबिनेट गठन और राज्य सरकारों के कामकाज को सीधे प्रभावित कर रहे हैं, जिससे सीएम और राज्य नेतृत्व की स्वायत्तता खत्म हो रही है। यहां तक कि पार्टियों की राज्य इकाइयों के प्रमुख और अन्य अधिकारियों को पार्टी के आंतरिक चुनावों के बजाय सीधे आलाकमान द्वारा नामित किया जाता है। ऐसी प्रवृत्ति राजनीतिक नेतृत्व की अपनी पार्टी के एक लोकप्रिय क्षेत्रीय नेता से राजनीतिक चुनौतियों का सामना करने को लेकर असुरक्षा से उत्पन्न होती प्रतीत होती है। इसलिए, राज्यों में कम प्रोफ़ाइल वाले नामांकित नेताओं और बार-बार नेतृत्व परिवर्तन से राज्यों में महत्वाकांक्षी नेताओं के पंख कतर दिए जाते हैं। राज्यों में यथास्थिति बनाए रखना या सत्ता परिवर्तन कभी-कभी युवा लोगों पर अनुभव को प्राथमिकता देने के नाम पर किया जाता है या “नया” लाने की आड़ में किया जाता है।

हाईकमान संस्कृति को आकार देने वाला दूसरा और सबसे महत्वपूर्ण कारक पार्टी वित्त का केंद्रीकरण है। आलाकमान राज्यों से निकलने वाले संसाधनों सहित पार्टी के वित्त को निर्णायक रूप से नियंत्रित करते हैं ताकि राष्ट्रीय नेतृत्व को अपने विवेक के अनुसार इन दुर्लभ संसाधनों को विनियमित करने और वितरित करने में हमेशा ऊपरी हाथ मिले। यह देखते हुए कि उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए धन की सख्त जरूरत है, और भी अधिक क्योंकि भारतीय चुनाव पहले से कहीं अधिक महंगे होते जा रहे हैं, यह आलाकमान के प्रभुत्व को और मजबूत करता है। हालाँकि, राज्य नेतृत्व पर आलाकमान का नियंत्रण राष्ट्रीय नेतृत्व की लोकप्रियता और शक्ति के साथ-साथ राज्य के नेताओं के हितों दोनों पर निर्भर करता है। ऐसा देखा जाता है कि जब राष्ट्रीय पार्टी की चुनावी संभावनाएं अच्छी दिखती हैं, तो राष्ट्रीय नेताओं की लोकप्रिय अपील पर सवार होकर, राज्य के नेता आलाकमान के सामने आत्मसमर्पण करने का कारण ढूंढते हैं। राष्ट्रीय नेतृत्व, जब चुनावी रूप से शक्तिशाली होता है, विभिन्न प्रकार के राजनीतिक संरक्षण के वितरण के माध्यम से राज्य इकाइयों के भीतर असंतुष्ट गुटों की मांगों को समायोजित करता है।

आज की इस नौबत को देखते हुए राजनीति में चुनावी कामयाबी के महत्व को समझने की जरूरत है। चुनावी लोकतंत्र में कामयाबी बुरी बात नहीं होती है और कई मायनों में वह अपनी नीतियां लागू करने के लिए एक जरूरी औजार भी रहती है। नेताओं और पार्टियों की नीतियां चाहे कितनी अच्छी क्यों न हों, अगर सत्ता हाथ नहीं है, तो वे हसरत और नारों की तरह रह जाती है। पार्टियों के लिए अपनी विचार धारा को आगे बढ़ाने के लिए चुनावों में जीतना जरूरी रहता है और हर चुनावी नतीजे के बाद उससे जुड़ी हुई पार्टियों को आत्ममंथन करना चाहिए। यह बात पार्टी को देश के लोकतंत्र के भले के लिए न सही, अपने खुद के अस्तित्व के लिए एक ईमानदार आत्मविश्लेषण करना चाहिए। कई बार घर के भीतर ईमानदार सोच-विचार मुमकिन नहीं हो पाता, ऐसे में पार्टी को बाहर के कुछ लोगों से भी अपनी हार का विश्लेषण मांगना चाहिए।

–प्रियंका सौरभ


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