मुंबई – शॉर्ट फिल्म “कीटाणु – द जर्म” ने रिलीज़ से पहले ही फिल्मी गलियारों में हलचल मचा दी है। ब्लैक एंड व्हाइट में बनी और एक भी संवाद न रखने वाली इस फिल्म ने प्रशंसा के साथ-साथ विवादों को भी जन्म दिया है।
विवाद की जड़: कला या कड़वा सच?
जहां एक ओर फिल्म को “कला की नई परिभाषा” कहा जा रहा है, वहीं दूसरी ओर कई लोगों का मानना है कि फिल्म ने समाज के सबसे कमजोर वर्ग — कचरा बीनने वालों और नशे की गिरफ्त में फंसे लोगों — को “अत्यधिक नेगेटिव लाइट” में दिखाया है।
कुछ सामाजिक संगठनों का आरोप है कि फिल्म में इन पात्रों की मूक पीड़ा को कला का रूप देकर संवेदनशीलता की सीमा पार की गई है, और यह उनके दर्द का “शोषण” है न कि समर्थन।
फिल्म की बोलती चुप्पी: संवाद नहीं, पर विवाद बहुत
निर्देशक नीलू चोपड़ा और सह-निर्देशक रंजू साइकलोनी ने जानबूझकर फिल्म में कोई संवाद नहीं रखा। लेकिन आलोचकों का कहना है कि बिना संवाद के फिल्म दर्शकों को दिशा नहीं देती, और कई बार इसका संदेश भ्रमित भी कर सकता है।
वहीं, कुछ सिने-विशेषज्ञों का कहना है कि यह प्रयोगात्मक सिनेमा के नाम पर दर्शकों की सहानुभूति का दोहन है — एक ऐसा विषय जो सहज रूप से संवेदनशील है, लेकिन सही संदर्भ के बिना विवादास्पद भी बन सकता है।
लोकेशन और प्रस्तुतिकरण पर भी सवाल
फिल्म की शूटिंग मुंबई के वर्सोवा और मध जेट्टी जैसे इलाकों में की गई है। कुछ लोगों का दावा है कि वहां वास्तविक झुग्गीवासियों की अनुमति के बिना शूटिंग की गई, जिससे स्थानिक समुदाय में नाराज़गी फैली।
कलाकारों का पक्ष: “हमने सिर्फ सच्चाई को दिखाया है”
नीलू चोपड़ा ने एक साक्षात्कार में कहा,
“हमारा मकसद किसी की भावनाएं ठेस पहुंचाना नहीं था। यह फिल्म एक दर्पण है, जिसमें समाज को खुद को देखना चाहिए।”
लेकिन क्या सिनेमा सिर्फ सच्चाई दिखाने के नाम पर किसी के दर्द को दर्शकों के सामने इस तरह परोस सकता है?
निष्कर्ष: बहस जारी है..
“कीटाणु – द जर्म” ने निस्संदेह लोगों को सोचने पर मजबूर किया है — लेकिन क्या ये सोच फिल्म के संदेश से जुड़ी है या इसके प्रस्तुतीकरण के तरीके से उपजे विवाद से?
फिलहाल एक बात तय है — यह फिल्म भले ही मूक हो, लेकिन इसके इर्द-गिर्द उठी आवाजें बहुत तेज़ और तीखी हैं।