1984 में जब इंदिरा गांधी की हत्या हुई तो उन्हें प्रधानमंत्री की रेस में सबसे आगे माना जा रहा था लेकिन उनके हाथ से प्रधानमंत्री बनने का मौका निकल गया। इसके बावजूद वह देश की सबसे ऊंची संवैधानिक कुर्सी तक पहुंचने में कामयाब रहे। हम बात कर रहे हैं पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की। 4 साल पहले उनकी आत्मकथा ‘द टरबुलेंट इयर: 1980-1996’ का विमोचन हुआ था। इसमें उन्होंने कई बड़े राजनैतिक घटनाक्रमों पर प्रकाश डाला था। इन्हीं में से एक था उनका कांग्रेस पार्टी से बाहर होना।
आइए जानते हैं कुछ दिलचस्प किस्से
27 अप्रैल 1986, यही वह तारीख थी जब राजीव गांधी ने प्रणब मुखर्जी को अपनी कैबिनेट के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी से भी रुखसत कर दिया।
दिल्ली में 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने अनमने ढंग से सियासत में एंट्री की थी। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह ने प्रणब मुखर्जी से जुड़े एक दिलचस्प वाकए का जिक्र किया।
दादा बोले, तकलीफ तो होती है
वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह ने कहा, ‘जनवरी 1985 में राजीव गांधी प्रधानमंत्री बने थे। उनके पीएम बनने में ज्ञानी जैल सिंह ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई थी। दस साल पहले की बात है। उस वक्त प्रणब मुखर्जी रक्षा मंत्री थे। एक बार प्रणब मुखर्जी से मैंने पूछा कि दादा आपके दफ्तर के बाईं तरफ प्रधानमंत्री की कुर्सी थोड़ी दूर है।
कभी दर्द नहीं होता था कि यह कुर्सी आपके हाथ से फिसल गई। कैमरा ऑन था…दादा एकदम हवा में चुपचाप आधा मिनट कुछ बोले नहीं। भावशून्य होकर देखते रहे। कहा, इट हर्ट्स..यानी तकलीफ तो होती है। प्रणब मुखर्जी को ये सब देखना पड़ा।’
‘इंदिरा सरकार में नंबर 2 की हैसियत थी’
वरिष्ठ कांग्रेस नेता और गोरखपुर के पूर्व सांसद हरिकेश बहादुर बताते हैं, ‘इंदिरा गांधी की कैबिनेट में प्रणब मुखर्जी नंबर दो की हैसियत में थे। वेंकटरमण और नरसिंह राव जैसे लोगों के कैबिनेट में होने के बावजूद जब कभी इंदिरा बाहर होती थीं तो कैबिनेट बैठक की अध्यक्षता वही करते थे। प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस से बाहर होना पड़ा लेकिन राजीव गांधी के समय में ही उनकी पार्टी में वापसी हो गई थी।’
‘रूटलेस वंडर और कंप्यूटर की उपमा’
लेकिन 27 अप्रैल 1986 को प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस पार्टी से बाहर होना पड़ा। एनके सिंह कहते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी को इसलिए ये देखना पड़ा कि वह कांग्रेस में तेज माने जाते थे। उन्होंने सीधे तौर पर चुनाव कभी नहीं जीता लेकिन उनके बारे में रूटलेस वंडर की धारणा थी यानी बिना जड़ के चमत्कार। साथ में उन्हें कंप्यूटर भी कहा जाता था। पश्चिम बंगाल में 1962 के चुनाव में कितने वोट मिले थे इसका वह आंकड़ा बता देते थे।’
‘मैं बाथरूम से बाहर आया और सबको बता दिया’
अपनी आत्मकथा द टरबुलेंट इयर: 1980-1996 के विमोचन के दौरान प्रणब मुखर्जी ने बताया था, ‘ मैंने किताब में माना है कि मुझे ऐसे हालात नहीं लाने चाहिए थे। मैं कभी जननेता नहीं था। मेरा वैसा जनाधार कभी नहीं था जैसा 60 के दशक में अजय मुखर्जी या हाल में ममता बनर्जी या खुद इंदिराजी का रहा था।’ राजीव के पीएम बनने के लिए रजामंदी देने का जिक्र करते हुए प्रणब ने लिखा, ‘बाथरूम से बाहर आने के बाद मैंने राजीव के फैसले के बारे में हर किसी को बता दिया।’
‘गलतियां मैंने भी कीं और उन्होंने भी’
राजीव की कैबिनेट में उस समय अरुण नेहरू, जगदीश टाइटलर और अंबिका सोनी जैसे युवा नेताओं को मंत्री बनाया गया था। कांग्रेस से हटाए जाने पर प्रणब ने आत्मकथा में लिखा, ‘गलतियां उन्होंने भी कीं और मैंने भी। दूसरों से वह मेरी आलोचना सुनते थे और उनकी बातों में आ जाते थे। मुझमें यह समझदारी होनी चाहिए थी कि मैं जनाधार वाला नेता नहीं था और न हूं। 1986 और 1987 में जब राजीव के खिलाफ चीजें चल रही थीं, उस वक्त मैं कांग्रेस और सरकार की मदद कर सकता था।’
कांग्रेस के ‘संकटमोचक’ का वर्चस्व फिर लौटा
अप्रैल 1986 में कांग्रेस छोड़ने के बाद प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बनाई थी। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह कहते हैं, ‘प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस का संकटमोचक माना जाता था तो ऐसे ही नहीं माना जाता था। जब अन्ना हजारे ने आंदोलन शुरू किया तो उन्हीं को बातचीत के लिए लगाया था। एक स्थिति ऐसी आई कि कांग्रेस में गंभीर चिंतन लगभग रुक गया। जनाधार वाले नेताओं की कमी हो गई। नरसिंह राव का कद बढ़ा तो प्रणब मुखर्जी भी मजबूत हुए। बीच में न तो मास फॉलोइंग हुई न ही उस स्तर के नेता आगे आए। प्रणब मुखर्जी का कांग्रेस में वर्चस्व एक बार फिर वापस आया। प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस में जो स्थान मिला उसमें वह शीर्ष पर तो नहीं थे लेकिन शीर्ष से कम पर भी नहीं थे।’
-एजेंसियां
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