इमरजेंसी: कंगना ने इंदिरा गांधी को ख़ुद में ऐसा उतार लिया है कि वे इंदिरा ही दिखीं कंगना नहीं

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आख़िरकार कंगना रनौत के महत्वाकांक्षी कंटेंट को देखने का मौक़ा मिला और देख लिया है। इमरजेंसी कम इंदिरा गांधी बायॉपिक अधिक है। खैर स्क्रिप्ट कंगना ने लिखी है तो इसे स्क्रीन प्ले रितेश शाह ने दिया है। कहानी में कोई नया फैक्टर नहीं है जिससे अनभिज्ञ हो। पढ़ने में रुचि रखने वालों ने पढ़ रखा होगा। स्क्रिप्ट के हिसाब से स्क्रीन प्ले बैलेंस्ड है, किंतु थ्रिलिंग नहीं है। अर्थात प्री इमरजेंसी इंदिरा लाइक हीरो, पोस्ट डिक्टेटर।

भारतीय सिनेमा में पॉलिटिकल कंटेंट रियल कम ड्रामा अधिक लगते है, जो कनेक्ट नहीं कर पाते है। बनावटीपन झलकता है। इसमें सीक्वेंस है 1971 जीत के बाद अटल बिहारी वाजपेयी इंदिरा को दुर्गा कहते दिखाई देते है। जबकि आप की अदालत में स्वयं अटल बिहारी ने कहा था कि मैंने ऐसा नहीं कहा।

इमरजेंसी देश में दो साल तक रही और लोगों ने खूब कष्ट झेले थे, उसे ऊपरी सतह तक छूकर निकलना, कंटेंट व पैसा बर्बादी है। ट्रेलर में ग्रिप दिखी थी किंतु फ़िल्म कतई डल है। इस अकेले विषय पर वेब सीरिज बन सकती है, जबकि कंगना इस टाइटल में इंदिरा जीवनी बना गई।

कंगना रनौत ने अपने निर्देशन में अपने लीड किरदारों के लिए कलाकारों का चयन और मेक ओवर अच्छा किया है बल्कि कलाकारों ने बॉडी लैंग्वेज, डायलॉग डिलीवरी और एक्सेंट बढ़िया पकड़ा है। अन्यथा लेखन में जान नहीं है तो आगे क्या कहे।

कंगना ने इंदिरा गांधी को ख़ुद में ऐसा उतार लिया है कि वे इंदिरा ही दिखी है, कंगना नहीं, दादी की नाक फ़िल्म देख लें तो ईर्ष्या करने लगे। अद्भुत अभिनय का प्रदर्शन है।

इमरजेंसी फ़िल्म में दो आइकॉनिक दृश्य लापता रहे, जिनके बिना आपातकाल अधूरा है। पहला जॉर्ज फ़र्नाडिस की हथकड़ी वाली फोटो, तो दूसरी इंदिरा गांधी की ज़िद मुझे हथकड़ी पहनाकर जेल ले जाओ।

2019, में खबर उठी थी कि कंगना इंदिरा गांधी की बायॉपिक करेंगी और लुक टेस्ट होने वाला था। आगे बात नहीं बनी, शायद होल्ड प्रोजेक्ट को कंगना ने अपने हाथों में लिया और फ़िल्म बनाई।

कोई अच्छे रिसर्च के साथ कहानी लिखकर फ़िल्म लाए और रियल रखे, रील नहीं, तब थ्रिल आयेगा।

नो डाउट कंगना में हिम्मत है कि उन्होंने इस सब्जेक्ट पर फ़िल्म बनाई, बॉलीवुड या कहे भारतीय सिनेमा से कोई फ़िल्म मेकर फ़िल्म बनाने की कोशिश में नहीं दिखा। मधुर ने भी लकीर ही पीटी थी। अब भी लकीर ही पीटी गई है। राइट विंग को ऐसे विषय पर कनेक्टिव फ़िल्म बनाना सीखना होगा। बैलेंस्ड रहेंगे तो सच दिखाने में कतराएँगे, कि वे क्या कहेंगे। या तो नायक, या खलनायक, असल घटनाक्रम है, इतिहास में दर्ज है। दोनों हाथों में लड्डू क्यों लेना, पॉजिटिव दिखाओ या नेगेटिव, इंदिरा की राजनीति में दोनों व्यू बैठे हुए है।

फ़िल्म का ऐसा स्वरूप देखकर डिस्ट्रीब्यूटर्स रिस्क लेने के मूड में नहीं रहे, तभी फ़िल्म रिलीज़ में देरी हुई है।

-ओम लवानिया


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