लगभग 40 सालों तक तिब्बत आज़ाद रहा और ये आज़ादी नाम के लिए नहीं बल्कि वास्तविक आज़ादी थी. लेकिन 1949 में चीन में कम्युनिस्टों की जीत के बाद हिमायल के इस इलाक़े के हालात बदले और विवादों के इतिहास की नींव यहीं से पड़ी.
7 अक्टूबर 1950 की तारीख़, जब हज़ारों की संख्या में माओत्से तुंग की सेना तिब्बत में दाख़िल हुई. 19 अक्टूबर को चामडू शहर के बाहरी इलाक़े को क़ब्ज़े में ले लिया गया गया. जब सेना तिब्बत में दाख़िल हुई तो ये सब देखकर तिब्बत के प्रशासन से जुड़े लोग परेशान हो गए.
तिब्बत पर चीन के आठ महीने तक जारी क़ब्ज़े और चीन की ओर से बढ़ते दबाव के बीच तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा ने 17 बिंदुओं वाले एक विवादित समझौते पर हस्ताक्षर कर दिया जिससे तिब्बत आधिकारिक तौर पर चीन का हिस्सा बन गया.
लेकिन धार्मिक गुरु और नोबेल शांति पुरस्कार के विजेता दलाई लामा इस संधि को ‘अमान्य’ मानते हैं, क्योंकि “ये हस्ताक्षर एक असहाय सरकार पर जबरन दबाव बना कर कराया गया जबकि सरकार ये नहीं चाहती थी.” दलाई लामा महज़ 15 साल के थे जब उन्होंने इस समझौते पर हस्ताक्षर किया था.
चीन तिब्बती इतिहास में इस प्रकरण को “शांतिपूर्ण मुक्ति” के रूप में बताता है जबकि निर्वासित तिब्बती इसे ‘आक्रमण और क़ब्ज़ा’ कहते हैं.
विवाद की शुरुआत
हिमालय के उत्तर में स्थित तिब्बत 12 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ और अशांति से भरा एक कटा हुआ इलाक़ा है. इसका इतिहास कई तरह के झटकों और परेशानियों से भरा हुआ है. 23 मई 1951 को ही तिब्बत ने चीन के इस विवादित समझौते पर हस्ताक्षर किए थे.
इस दिन को तिब्बत में एक दुखद दिन माना जाता है. इस दिन ने तिब्बत के लोगों के दिलों पर एक घाव दिया और उनमें एक ऐसा असंतोष भर दिया जो अब तक ख़त्म नहीं हो सका. इस दिन तिब्बत ने अपनी आज़ादी आधिकारिक तौर पर खो दी.
चीन के क़ब्ज़े से तिब्बत में माहौल बिगड़ने लगा. 1956 से लेकर 10 मार्च 1959 तक तिब्बत के लोगों का ग़ुस्सा अपने उफ़ान पर था. इस दौरान पहला विद्रोह हुआ और तिब्बत के लोगों ने चीन के राज को मानने से इंकार कर दिया, विद्रोह बढ़ता जा रहा था और इसमें हज़ारों लोगों की जान भी गई.
चीन की पीपुल्स लिब्रेशन आर्मी के दख़ल और दो हफ़्तों तक चले भयंकर हिंसा के बाद इस विद्रोह को चीन दबाने में कामयाब रहा. चीन की सेना काफ़ी मज़बूत थी, ऐसे में दलाई लामा को देश छोड़ कर भारत में शरण लेनी पड़ी.
तिब्बतः चीन का ‘ख़ज़ाना’
तिब्बत और चीन के मामलों को समझने वाली स्वतंत्र विशेषज्ञ केट सॉन्डर्स का कहना है कि तत्कालीन नवगठित कम्युनिस्ट सरकार द्वारा अक्टूबर 1950 में चामडू को लेने के बाद, इस शहर को “फ़र्स्ट लाइन” कॉम्बैट “अलगाववाद के ख़िलाफ़ राजनीतिक संघर्ष” के रूप में माना जाता है.
सॉन्डर्स बताते हैं, ”1949 में कम्युनिस्ट सेना पूर्वी (ख़ाम) और उत्तरी (आमडो) तिब्बत में दाख़िल हो चुकी थी. ये इलाक़ा उस वक़्त तिब्बत की सेना के क़ब़्जे में हुआ करता था. एक ब्रितानी रेडियो ऑपरेटर जिसे चीन की सेना ने क़ब्ज़े में ले लिया और बाद में जेल में डाल दिया. उन्होंने लिखा था कि तिब्बती सेना, चीन की सेना से अंत कर लड़ी लेकिन उन्हें चीन की सेना ने पूरी तरह ख़त्म कर दिया.”
ब्रिटिश पत्रकार का कहना है कि तिब्बत पर क़ब्ज़ा करना माओ के सत्ता संभालते ही उनके उद्देश्यों में से एक था क्योंकि यह एक रणनीतिक क्षेत्र है और ये चीन की दक्षिण-पश्चिमी सीमा माना जाता है.
इस इलाक़े को चीन में ”ट्रेज़री यानी ख़ज़ाने” की तरह मानते हैं. तिब्बत प्रकृतिक रूप से काफ़ी समृद्ध है. यहां खनिज ख़ूब पाए जाते हैं- लिथियम, यूरेनियम और सबसे अहम यहां भरपूर मात्रा में पानी पाया जाता है.
इतना ही नहीं, तिब्बत दुनिया का सबसे ऊंचा और सबसे लंबा पठार है. एशिया में बहने वाली कई बड़ी नदियों का उद्गम तिब्बत से होता है. ऐसे में जब भी पानी की क़िल्लत होगी ये इलाक़ा चीन के लिए फ़ायदे का साबित होगा.
ये संघर्ष शुरू कैसे हुआ?
बात 13वीं शातब्दी की है, तिब्बत मंगोल साम्राज्य का हिस्सा हुआ करता था और अपनी विजय के बाद से इसे लगभग हमेशा स्वायत्तता हासिल रही.
साल 1850 के दौर में रूस और ब्रिटेन के बीच मध्य एशिया पर अधिपत्य जमाने की होड़ शुरू हुई और इसे देखते हुए तिब्बत की सरकार ने विदेशियों के लिए अपने देश की सीमा बंद कर दी. यानी विदेशियों के तिब्बत आने पर प्रतिबंध लगा दिया गया.
लेकिन साल 1865 में ब्रिटेन ने बड़ी चतुराई के साथ इस इलाक़े को मैप करना शुरू कर दिया.
1904 में दलाई लामा ने कर्नल फ्रांसिस यंगहसबैंड के नेतृत्व में चल रहे ब्रिटिश सैन्य अभियान को छोड़ दिया. इसके बाद यूनाइटेड किंगडम ने किसी भी रूसी प्रस्तावों को रोकने के लिए तिब्बत को एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया.
दो साल बाद ग्रेट ब्रिटेन और चीन के बीच एक कन्वेंशन पर हस्ताक्षर हुआ, जिसमें ब्रिटेन ने चीन से ये वादा किया कि वह चीनी सरकार के मुआवज़े के बदले तिब्बत से जुड़े मामलों में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगा.
इस संधि ने तिब्बत पर चीनी क़ब्ज़े की तसदीक़ की.
1908 और 1909 के बीच चीन ने दलाई लामा को बहाल किया, लेकिन जब चीन ने तिब्बत में अपनी सेना भेजी तो वह उस वक़्त वह भारत भागकर आ गए.
आख़िरकार अप्रैल 1912 में चीनी सेना ने तिब्बत की अथॉरिटी के सामने घुटने टेक दिए क्योंकि उसी वक्त चीन में राजसत्ता का अंत हो गया और रिपब्लिक ऑफ़ चाइना का उदय हुआ. जब चीन की सेना अपने देश लौट गई तो 13 वें दलाई लामा वापस तिब्बत आए.
तिब्बत की निर्वासित सरकार कहती है कि चीन ने 1913 में तिब्बत को पूर्ण स्वतंत्र देश के तौर पर मान्यता दी थी. वहीं चीन कहता है कि तिब्बत पर उसकी हमेशा संप्रभुता थी लेकिन वह इसे लागू करने में कुछ वक़्त के लिए अस्थायी रूप से असमर्थ था.
स्थानीय संस्कृतियों की बर्बादी
हालांकि तिब्बत आधुनिकता के मामलों में राष्ट्र नहीं है लेकिन तिब्बत के पास दुनिया में सबसे अलग तरह की संस्कृति है, वहां की भाषा, धर्म और राजनीतिक प्रणाली बेहद अनोखी है.
सॉन्डर्स कहती हैं, ”दलाई लामा ने अंतर्राष्ट्रीय संधियों पर हस्ताक्षर किए. अपने पड़ोसी देशों से कूटनीतिक संबंध बनाए. 1912 में 13वें दलाई लामा ने एक उद्घोषणा की कि तिब्बत एक स्वतंत्र देश है. इस देश का अपना राष्ट्रीय झंडा भी है, अपनी मुद्रा है, अपना पासपोर्ट, अपनी आर्मी है.”
लेकिन कई सालों तक जब भी तिब्बत में कोई प्रदर्शन होते तो उसे बड़ी बेदर्दी से कुचल दिया जाता.
दलाई लामा कहते हैं, ”चीन के शासन में 12 लाख लोग मारे जा चुके हैं. हालांकि चीन इससे इंकार करता रहा है.”
कई स्वतंत्र आँकड़े इस संख्या को बढ़ाया-चढ़ाया हुआ मानते हैं फिर भी उनके अनुमान से ये संख्या दो लाख से आठ लाख तक के बीच है.
हालिया सालों में तिब्बत में विरोध प्रदर्शन बढ़े हैं. लोग वहां के स्थानीय कल्चर को बर्बाद करने के खिलाफ़ आवाज़ें उठा रहे हैं. साथ ही चीन की सेना जिस तरह तिब्बत के लोगों से पेश आती है उस पर भी विरोधों के स्वर तेज़ हुए हैं.
1960 और 70 से दौर में जब चीन की सांस्कृतिक क्रांति चल रही थी तो उस दौरान कई स्थानीय मॉनेस्ट्रीज़ को तहस-नहस कर दिया गया.
चीन भी मानता है कि सांस्कृतिक क्रांति के दौरान ऐसा किया गया और वह कहता है कि कम्युनिस्ट पार्टी 1980 से तिब्बत के कल्चर को दोबारा समृद्ध बनाने में जुटी है और कई तोड़ी गई मॉनेस्ट्रीज़ को दोबोरा बनवाया गया है.
लेकिन तिब्बत की निर्वासित सरकार मानती है कि ये टूरिज़्म बढ़ाने की चीन की कोशिश है ना कि स्थानीय संस्कृति को सहेजने की.
बीते तमाम सालों में कई तिब्बतियों को हिसारत में लिया गया है. एमेनेस्टी इंटरनेशनल जैसी संस्थाएं कई ऐसी रिपोर्ट जारी कर चुकी हैं जो बताती हैं कि तिब्बती बंदियों को प्रताड़ित किया गया और उनकी हत्या कर दी गई.
जेम्स्टाउन फ़ाउंडेशन की इस साल जारी एक रिपोर्ट में बताया गया है कि चीन तिब्बत में सैकड़ों-हज़ारों लोगों को सैन्य-शैली के प्रशिक्षण केंद्रों में रहने को मजबूर कर रहा है. जानकार मानते हैं कि ये केंद्र मज़दूर शिविरों जैसा है.
तिब्बत मामलों की विशेषज्ञ केट सॉन्डर्स कहती हैं,
“शिनजियांग में विगर मुसलमानों के बड़े पैमाने पर नज़रबंदी से पहले, तिब्बत का इस्तेमाल प्रयोगशाला के रूप में किया गया था. सर्विलांस का डायस्टोपियन परीक्षण करने के लिए तिब्बत इस्तेमाल किया गया.”
तिब्बत और महामारी
सॉन्डर्स की मानें तो चीन ने तिब्बत के लोगों का अपने धर्मगुरू के प्रति समर्पण और उनकी धार्मिक पहचान को एक ख़तरनाक वायरस की तरह ही ट्रीट किया है.
वह कहती हैं, ”अब ये जानलेवा कोरोना वायरस तिब्बत को अपनी पहुँच बढ़ाने में मदद देगा.”
अप्रैल में दलाई लामा ने टाइम पत्रिका में एक लेख लिखा जिसके बाद विश्व स्तर पर उनकी प्रशंसा की गई. लेख में उन्होंने दावा किया था कि महामारी से लड़ने के लिए प्रार्थना करना पर्याप्त नहीं होगा. हमें दयालु और रचनात्मक होना बहुत ज़रूरी है.
वहीं तिब्बत में कुछ लोगों को इसलिए जेल में डाल दिया गया क्योंकि उन्होंने सोशल मीडिया पर प्रार्थनाएं लिख दी.
मौजूदा वक़्त में देश से निर्वासित दलाई लामा चीन के साथ एक बीच का रास्ता निकालने की वकालत करते हैं.
वह चाहते हैं कि चीन का हिस्सा रहते हुए उन्हें पर्याप्त स्वायत्ता दी जाए. लेकिन तिब्बत के राष्ट्रवादी नौजवान पूर्ण स्वतंत्रता की माँग कर रहे हैं, जो इस वक़्त दूर-दूर तक होता नहीं नज़र आ रहा.
-BBC
Discover more from Up18 News
Subscribe to get the latest posts sent to your email.