
इस देश में जब कोई सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त होता है, तो सबसे पहले यह नहीं पूछा जाता कि ज़ख्म कितना गहरा है — पहले यह पूछा जाता है कि “पहचान पत्र है?”, “बीमा है?”, “अस्पताल पंजीकृत है?” और फिर अंत में — “बचा पाएँगे या नहीं?”। मानो पीड़ित की जान से पहले कागज़ ज़रूरी हो।
ऐसे देश में जब सरकार यह कहती है कि “अब किसी भी सड़क हादसे में घायल को पहले सात दिन ₹1.5 लाख तक मुफ्त इलाज मिलेगा”, तो लगता है जैसे व्यवस्था ने कोई इंसानी चेहरा पहन लिया है। लेकिन जब ज़मीन पर उतरकर इस योजना की हकीकत देखते हैं, तो वो चेहरा धुंधला दिखता है — कभी फाइलों में खोया, कभी पोर्टल में अटका, और कभी अस्पताल की बेरुखी में दम तोड़ता।
यह नकदरहित उपचार योजना मोटर वाहन अधिनियम की धारा 162 के तहत शुरू की गई थी। उद्देश्य यही था कि किसी गरीब या अमीर को इलाज के लिए अपनी जेब नहीं टटोलनी पड़े। पहली दृष्टि में यह लगता है कि सरकार ने आम जन की पीड़ा को समझा है। लेकिन फिर वही पुराना सवाल उठता है — क्या नीयत और नीति के बीच की दूरी को व्यवस्था कभी पाट पाएगी?
अभी तक कई राज्यों ने तो इस योजना को लागू करने के आदेश ही नहीं दिए हैं। राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा और गाजियाबाद जैसे विकसित क्षेत्रों में भी जून 2025 तक अस्पतालों को पता ही नहीं था कि योजना चालू हो चुकी है। क्या ये हास्यास्पद नहीं कि योजना चालू हो गई है लेकिन अस्पताल और डॉक्टर उसे ढूंढ़ रहे हैं जैसे कोई खोया हुआ यातायात संकेत?
और जो अस्पताल योजना से जुड़े भी हैं, वहाँ इलाज की सीमा ₹1.5 लाख की है। अब ज़रा सोचिए — एक गंभीर सड़क हादसे में भर्ती मरीज़ का आईसीयू, सर्जरी, दवाइयाँ, जांच — क्या ये सब ₹1.5 लाख में सिमट सकते हैं? निजी अस्पतालों ने तो साफ कहा है — “हमें घाटे में क्यों काम करना चाहिए?” और सरकार जवाब देती है — “देशसेवा!” लेकिन क्या देशसेवा खाली डॉक्टरों की ज़िम्मेदारी है? नीति निर्धारकों की नहीं?
संकट सिर्फ पैसों तक सीमित नहीं है। पोर्टल — हाँ वही कम्प्यूटर पर बना पोर्टल — जिसे देखकर अस्पताल का बाबू भी माथा पकड़ ले। कभी दस्तावेज़ अपलोड नहीं होते, कभी फार्म अधूरा रह जाता है, और कभी पूरा क्लेम “त्रुटि” में चला जाता है। मरीज तो क्या, अस्पताल तक को नहीं मालूम होता कि किससे संपर्क करें, कहाँ सुधार करवाएँ।
अस्पताल, पुलिस, बीमा एजेंसियाँ और राज्य स्वास्थ्य प्राधिकरण — सबके पास अलग-अलग नियम, अलग-अलग समझ, और एक जैसी असमंजस है। कोई नहीं जानता किसका क्या काम है। लगता है जैसे योजना एक मंचन है जिसमें सभी पात्र हैं, लेकिन किसी को पटकथा नहीं दी गई।
और तो और, कई बार दुर्घटना इतनी गंभीर होती है कि आसपास के जो अस्पताल हैं, वे योजना में पंजीकृत नहीं होते। ऐसे में वे “स्थिति स्थिरीकरण” (Stabilization) भी करने से डरते हैं — उन्हें डर है कि कहीं पैसा न फँस जाए! परिणाम — घायल मरीज एंबुलेंस में इधर से उधर ढोया जाता है, और उसका “गोल्डन ऑवर” यानी जीवन बचाने का सबसे कीमती समय — रास्तों में ही बीत जाता है।
अब बात करें सबसे बुनियादी लेकिन सबसे उपेक्षित पक्ष की — जागरूकता। जनता को नहीं पता कि ऐसी कोई योजना है। सड़क पर पड़ी एक घायल महिला को देखकर लोग कैमरा तो निकाल लेते हैं, लेकिन इलाज के लिए योजना का नाम नहीं बता पाते। अस्पताल में कार्यरत स्टाफ तक को नहीं मालूम होता कि कैसे योजना को लागू किया जाए। योजना का लाभ तब मिलेगा जब लाभार्थी को पता ही नहीं कि वो लाभार्थी है?
हास्य तब और गहरा हो जाता है जब सरकार ‘राहवीर योजना’ के तहत ₹25,000 तक इनाम देती है किसी घायल की मदद करने पर — लेकिन योजना की जानकारी लोगों को रेडियो या सरकारी पोस्टर तक सीमित है। सोशल मीडिया पर जहाँ लोग नाचते-गाते दिखते हैं, वहाँ ये योजना अदृश्य है।
योजना को ज़मीन पर सफल बनाने के लिए बहुत कुछ करने की ज़रूरत है। सबसे पहले — राज्य सरकारें आलस्य त्यागें और स्पष्ट दिशानिर्देश दें। अस्पतालों को स्पष्ट समय सीमा में पंजीकरण अनिवार्य किया जाए। इंदौर का उदाहरण अच्छा है जहाँ जून 2025 में तीन दिन के भीतर अस्पतालों को योजना में शामिल कर लिया गया।
दूसरे, योजना की वित्तीय सीमा वास्तविक चिकित्सा लागतों के अनुसार तय की जाए। अगर सरकार लोगों की जान बचाना चाहती है, तो अस्पतालों को घाटे में क्यों धकेल रही है?
तीसरे, पोर्टल को “डिजिटल इंडिया” का मज़ाक बनने से बचाना होगा। यह सरल, स्पष्ट और तकनीकी रूप से सक्षम बनाया जाए। क्लेम प्रक्रिया पारदर्शी हो — ताकि अस्पताल को भुगतान समय पर मिले, और मरीज को राहत।
इसके साथ ही गैर-पंजीकृत अस्पतालों को भी स्थिति स्थिरीकरण का अधिकार और भुगतान की गारंटी दी जाए। इससे जीवन रक्षा का अवसर बढ़ेगा।
अंततः — जागरूकता। जनता को पता होना चाहिए कि सड़क पर पड़ी हर जान, एक योजना से जुड़ी हुई है। पोस्टरों से लेकर मोबाइल संदेश तक, स्कूलों से लेकर पंचायतों तक — हर जगह इस योजना की जानकारी दी जानी चाहिए। क्योंकि जब जनता को पता होगा, तभी अस्पताल जवाबदेह होंगे।
यह नकदरहित उपचार योजना, अगर सही मायनों में लागू हो जाए, तो भारत में सड़क दुर्घटनाओं से जुड़ी मृत्यु दर को काफी हद तक कम किया जा सकता है। लेकिन जब तक यह योजना कागज़ी ही बनी रहती है, तब तक यह एक और ‘योजना’ बनकर रह जाएगी — जो स्लोगन में चमकेगी, लेकिन सड़क पर बहे खून से बेखबर रहेगी।
इस देश की सड़कों पर खून बहता है — और व्यवस्था पोर्टल लोड होने का इंतज़ार करती है।
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