नकली दवाओं के कारोबार को लेकर समय-समय पर चिंता जताई जाती रही है। छापेमारी आदि के जरिए ऐसा करने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई के अभियान भी चलाए जाते हैं। मगर हकीकत यह है कि नकली दवाओं के उत्पादन और बिक्री हर साल कुछ बढ़ी हुई ही दर्ज होती है। इसमें न केवल दवा विक्रेता शामिल होते हैं, बल्कि चिकित्सक भी उनका साथ देते हैं।
ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं कि चिकित्सक कमीशन के लोभ में मरीजों को महंगी जांच और नकली दवाएं लिखते हैं। ऐसे ही एक मामले में दिल्ली की एक अदालत ने आरोपी दवा विक्रेता को फटकार लगाते हुए कहा कि नकली दवा बेचना हत्या और आतंकवाद से कम नहीं है। आरोप है कि वह दवा विक्रेता बांग्लादेश में बनी कैंसर की एक ऐसी दवा बेचता था, जो भारत में प्रतिबंधित है।
अदालत ने आरोपी की जमानत याचिका रद्द कर दी।
अगर नकली दवाओं का कारोबार करने वालों के खिलाफ इसी तरह सख्ती बरती जाए तो शायद उनका मनोबल कुछ टूटेगा। कैंसर जैसी बीमारी में भी कोई चिकित्सक और दवा विक्रेता अगर अपने मुनाफे की हवस में अंधा होकर नकली दवा उपलब्ध कराए, तो निस्संदेह इसे जघन्य अपराध ही कहा जा सकता है।
भारत जैसे देश में, जहां ज्यादातर मरीज चिकित्सक की भाषा समझ नहीं पाते, वे आंख बंद करके उस पर भरोसा कर लेते हैं। उन्हें यह भी पता नहीं होता कि चिकित्सक उन्हें जो दवा दे रहा है, वह वास्तव में सही है या नहीं। इसलिए उन्हें ठगना आसान होता है। इसी का फायदा उठा कर चिकित्सक और दवा विक्रेता परस्पर मिलीभगत से नकली दवा का कारोबार करने में सफल हो जाते हैं।
कई दवा विक्रेताओं में तो यहां तक ढिठाई बैठी हुई है कि चिकित्सक जो दवा लिखता है, मरीज को वह न देकर उसी से मिलते-जुलते तत्त्वों से बनी दूसरी दवाई दे देते हैं। तर्क यह होता है कि दोनों के तत्त्व समान हैं। जबकि ऐसी ज्यादातर दवाएं नकली होती हैं। नकली दवाओं में आमतौर पर घटिया किस्म के रासायनिक तत्त्व इस्तेमाल किए जाते हैं, जिनके गलत प्रभाव की आशंका अधिक रहती है। कई बार ऐसी दवाएं मरीज के शरीर से प्रतिक्रिया कर जानलेवा साबित होती हैं। शर्मनाक है कि इस जोखिम से वाकिफ होते हुए भी चिकित्सक और दवा विक्रेता संवेदनशून्य होकर, मरीज की सेहत की परवाह किए बगैर अपने मुनाफे को प्रथमिकता देते हैं।
नकली दवाओं के कारोबार के फलने-फूलने की बड़ी वजह दवाओं के गुणवत्ता नियंत्रण और बिक्री पर नजर रखने वाले सरकारी तंत्र की शिथिलता है। यों हर इलाके में स्वास्थ्य अधिकारी तैनात होते हैं, जो दवा कारोबार पर नजर रखते हैं। नकली दवा के कारोबार पर अंकुश लगाने की जिम्मेदारी उन्हीं की होती है। मगर वे खुद भी ऐसे कारोबारियों से साठगांठ किए देखे जाते हैं। हमारे देश में यह कारोबार इतने बड़े पैमाने पर और खुल्लम खुल्ला होता है कि लगभग सबकी जानकारी में रहता है।
फिर भी नकली दवाओं की खेप निर्बाध रूप से विक्रेताओं तक पहुंचती और फिर मरीजों को बेची जाती रहती है। अनेक अध्ययनों से जाहिर है कि नकली दवाओं का कितना बड़ा कारोबार है और कौन-कौन-सी दवाएं मानव शरीर के अनुकूल नहीं हैं, फिर भी हैरानी का विषय है कि उन पर अंकुश लगाना कैसे संभव नहीं हो पाता। केवल कुछ अदालती मामलों में कड़ाई से इस मर्ज को दूर नहीं किया जा सकता। सरकारों को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी पड़ेगी।
-एजेंसी