अंग्रेज़ी में एक कहावत है ‘ डोंट जज ए बुक बाय इट्स कवर ‘ यह कहावत शायद ‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ के लिए लिखी गई होगी. बाहर से देखने पर यह किताब कभी इतनी गम्भीर नही लगी पर जब इसे पढ़ना शुरू किया, देश के आज के हालात मेरी नज़रों के सामने घूमने लगे. लेखक सारंग उपाध्याय ने वास्तविक घटनाओं के इर्दगिर्द ऐसी काल्पनिक दुनिया रची है जो काल्पनिक होते हुए भी वास्तविक रही होंगी. साम्प्रदायिकता और आतंकवाद से प्रभावित ‘वह समुंदर के किनारे समुंदर की तरह ही हो गई थी, दुनिया के शोर से अलग अपने अंदर थमी और ठहरी हुई’ जैसी पंक्तियां लिए इस प्रेम कहानी को आप हमेशा याद रखेंगे.
राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित होकर आई प्रिंट मीडिया से जुड़े पत्रकार सारंग उपाध्याय की किताब ‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ का आवरण शुऐब शाहिद ने तैयार किया है. आवरण से पाठकों को मुंबई की भागादौड़ी भरे जीवन की झलकी दिखती है.
किताब की शुरुआत में गीत चतुर्वेदी ने किताब का जो परिचय दिया है, उससे पाठकों को यह जान पड़ता है कि यह किताब एक प्रयोग है. मुंबई की स्थानीय भाषा को आम हिंदीभाषी के सामने परोसने का प्रयोग फिल्मों में तो सफल रहा है पर हिंदी साहित्य में यह प्रयोग क्या गुल खिलाता है यह इसके पाठक ही बताएंगे.
चित्रकार या लेखक.
ग्यारह किस्सों में लिखी गई इस किताब में हर किस्से से पहले एक कविता शामिल की गई है, वह कविता हर आने वाले किस्से का ख्वाब बुनने में पाठकों की मदद करती है.
किताब के शुरुआती तीन पन्ने ही पाठकों की रुचि किताब में बनाने में कामयाब हो जाते हैं.
लेखक ने एक चित्रकार की तरह अपनी इस रचना को रचा है. पहले किस्से की यह पंक्ति ‘कोई चेहरे बैचेनी में तर थे और असंख्य माथे उमस में लाल-पीले हुए जा रहे थे’ पाठकों के सामने एक चित्र सा बना जाती है.
पात्रों का परिचय भी कुछ इसी तरह दिया गया है. सायरा के रंग और चूड़ियों के बारे में पढ़कर कोई भी सायरा की खूबसूरती का कायल हो जाएगा.
‘किसी पर सायरा की निगाह पड़ जाए तो उसकी आंखों में स्वप्न परियां डेरा डाल देती और फिर तो उसे सायरा के नाम का मोतियाबिंद ही हो जाता’ पंक्ति तो पाठकों की कल्पना को और ऊंचाई दे देती है.
पत्रकारों को लेखक के तौर पर हल्के में लेने की भूल अब और नही.
लेखक पत्रकार हैं तो किताब पढ़ने से पहले यही उम्मीद थी कि कहानी वैसी ही होगी जैसी एक पत्रकार लिख सकता है, मतलब जैसा देखा वैसा लिखा. पर यह कहानी सारंग उपाध्याय की कल्पनाओं से निकली है, वह कल्पना जो उन्होंने मुंबई, वहां के मछुआरों को करीब से जानते बुनी होंगी. किताब की पंक्ति ‘नाव की देखभाल किसी बच्चे की तरह करनी होती है’ और ‘चाय और वड़ा पाव के दस से पन्द्रह रुपए तो लग ही जाते थे और ये भी बचाएं तो भूखे पेट चक्कर आ जाना आम बात थी’ इसका प्रमाण हैं.
‘उसका घर मुंबई के सबसे चमकते इलाके अंधेरी के सबसे अंधेरे इलाके में था’ पंक्ति के जरिए लेखक मुंबई का सच हमारे सामने रख देते हैं. कहानी में लेखक यह भी शामिल करते हैं कि हमारा सिस्टम कैसे सिर्फ गरीबों को ही सताता है.
मछुआरों को जीवन को अपनी कहानी का आधार चुनने के बाद उनकी प्रेम कहानी को भी लेखक ने अद्भुत तरीके से बुना है. जैसे वह लिखते हैं ‘राघव को अब मछलियों से घिन नहीं आती थी बल्कि उन्हीं मछलियों से सायरा की खुशबू आती और सायरा को देखते ही वह किसी सुंदर मत्स्य कन्या की कल्पना में खो जाता.’
कहानी याद दिलाती है आतंकवाद और दंगों का कोई धर्म नही होता.
किताब की कहानी साल 1992-93 के दौरान देश में हिंदू मुस्लिमों के बीच बदल रहे रिश्तों के दौरान एक मुस्लिम लड़की के जीवन के इर्द-गिर्द घूमती है.
कहानी को लेखक ने टाइमलाइन के जरिए बांधा है, जिसको पढ़ने के साथ देश में चल रहे महत्वपूर्ण घटनाक्रमों से भी पाठक वाकिफ होते जाते हैं. लेखक ने अपनी कहानी के काल्पनिक पात्रों को वास्तविक घटनाओं के साथ जोड़ा है. जैसे इस उपन्यास की पात्र सायरा की मां अरफाना की कहानी को शाहबानो केस के साथ जोड़ा गया है.
कहानी के ज़रिए लेखक यह याद दिलाने में कामयाब रहे कि वर्ष 1992 अयोध्या विवाद हो या 1993 मुंबई बम धमाके इनका शिकार ऐसे लोग हुए, जिन्हें राजनीति से कोई मतलब नहीं था.
इन लोगों को अपने काम धंधे से फुर्सत नहीं थी तो मंदिर मस्जिद के लिए लड़ने का उनके पास समय कहां होता पर वो राजनीतिक उद्देश्य के साथ फैलाई गई नफरत का शिकार हुए. उसमें हिन्दू थे तो उसमें मुसलमान भी थे.
‘सलाम बॉम्बे व्हाया वर्सोवा डोंगरी’ के लेखक प्यार बांटते हैं.
फिल्म ‘आदिपुरुष’ के संवाद लिखने वाले मनोज शुक्ला पर समाज को बांटने के आरोप लग रहे हैं, वहीं सारंग उपाध्याय अपनी इस किताब से समाज को यह दिखाने में कामयाब रहे हैं कि कोई रचनात्मक व्यक्ति अपनी रचना के जरिए समाज में घुल रहे साम्प्रदायिकता के जहर को कैसे समाप्त कर सकता है.
‘मुसलमान गणपति पंडालों में गणपति प्पा मोरया पुदचा वर्ची लौकर या बोलने में हिचकिचाते नही थे और हिन्दू मोहम्मद अली रोड पर ताजियों से मन्नत मांगा करते थे’ लिखकर लेखक हमारे आपसी भाईचारे की याद दिलाते हैं. लेखक ने कहानी में काफी उतार चढ़ाव के बाद भी किताब का अंत सुखद किया है. उनकी नजरों में यह प्रेम कहानी प्रेम के वास्तविक रूप में ही समाप्त होती है, जहां न धर्म की बेड़ियां हैं और न सिर्फ शरीर से प्रेम है.
एक दो कमियों को छोड़ दें तो कमाल है यह किताब.
पृष्ठ संख्या 82 में 12 मार्च 1993 मुंबई बम धमाकों का दिन है, उसे 1992 लिख दिया गया है. यह गलती अगले संस्करणों में सुधार सकते हैं.
मध्य में आकर कहानी सायरा के जीवन में अटक सी गई है, किताब का सातवां किस्सा थोड़ा कम किया जा सकता था क्योंकि इस हिस्से तक कहानी के पहुंचते हुए पाठकों की उत्सुकता फ्लेशबैक से वर्तमान को जानने के लिए बढ़ने लगती है. लेकिन आठवां किस्सा आते ही किताब फिर तेज गति से भागने लगती है.
हिमांशु जोशी.
@himanshu28may
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