आजकल की दिखावे की दुनिया में यह देखना वाकई निराशाजनक है कि मानव स्वभाव कितना उथला हो सकता है। हम अक्सर वास्तविक मायने रखने वाली चीजों के बजाए चमक-दमक वाली चीजों की ओर अधिक आकर्षित होते हैं। दिखावे का यह जुनून हमारे समाज की प्राथमिकताओं के बारे में बहुत कुछ कहता है। यह दर्शाता है कि हम अक्सर इस बात की ज्यादा परवाह करते हैं कि कोई चीज कैसी दिखाई देती है, बजाए इसके कि वह वास्तव में कैसी है और सबसे बड़ी बात, इसके गुण क्या हैं।
उदाहरण के लिए, खरीदारी को ही ले लीजिए। जब हम महँगे और आलीशान मॉल, होटल और शोरूम में जाते हैं, तो बिना सोचे-समझे ऐसी-ऐसी चीजें खरीद लेते हैं, जिनकी हमें वास्तव में जरुरत भी नहीं होती है। दरअसल, वहाँ का सारा का सारा सेटअप ही वस्तुओं के प्रति हमें लुभाने के अनुसार किया जाता है। हम अच्छी तरह जानते हैं कि वहाँ हमें हाई-फाई कीमतों पर सामान मिलेगा, फिर भी हमारे मुँह पर वहाँ जाकर ताला लग जाता है। हम वहाँ की ऊँची-ऊँची कीमतों पर कोई सवाल नहीं उठाते और मौल-भाव का तो कोई सवाल ही नहीं उठता, क्योंकि हमारे मन में डर होता है और यह हमारी शर्मिंदगी का कारण बन सकता है, इसलिए हम बिना पलक झपकाए एक कप कॉफी पर 500 रुपए खुशी-खुशी खर्च कर देते हैं। हाँ, बैचेनी बेशक मन को भीतर से कचोट रही होती है, लेकिन मजाल है कि इसकी झलक मात्र भी चेहरे पर दिख जाए।
लेकिन, वहीं जब हम सड़क विक्रेताओं से कोई सामान खरीदते हैं, तो यहाँ की कहानी और हमारी विचारधारा दोनों की नैया डूब जाती है। हम न सिर्फ सामान की गुणवत्ता और टिकाऊपन पर भर-भर कर सवाल उठाते हैं, बल्कि सामान अच्छा न निकलने पर उसे वापस कर देने की धमकी भी दे देते हैं, और मौल-भाव की तो क्या ही बात की जाए, वह तो हम उनसे ऐसे करते हैं, जैसे वो हमारा ही सामान सड़कों पर बेचने निकले हों.. हिचकिचाहट का तो यहाँ नामों-निशान ही नहीं होता है। लेकिन क्या ये वाकई जरूरी है? ट्रैफिक सिग्नल पर पेन बेचने वाले से, या सुबह सब्जी बेचने वाली महिला से, या बाजार के पास गुब्बारे बेचने वाले दादाजी से मोलभाव करके हम कितने पैसे बचा लेते हैं?
मोलभाव करके हम जो कुछ पैसे बचाते हैं, उससे शायद हमें कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन कभी सोचना कि उन गरीबों के लिए यह कितना मायने रखता होगा। दो-पाँच रुपए के लिए झिक-झिक करते हुए हम यह भी नहीं सोचते कि ट्रैफिक सिग्नल पर खड़ा वह फेरीवाला इस छोटे से काम के जरिए अपने परिवार के लिए चंद पैसे कमाने की कोशिश कर रहा है। वह सब्जीवाला इस काम से ही अपने परिवार का भरण-पोषण करता है। गुब्बारे वाले दादाजी शायद अपने पोते-पोतियों को एक वक्त भर-पेट खाना खिलाने की कोशिश करते होंगे।
तकलीफ होती है यह सोचकर कि हम उन चीजों पर दिल खोलकर खर्च करने से नहीं हिचकिचाते, जिनकी हमें जरुरत भी नहीं है, लेकिन उन लोगों से कुछ पैसे बचाने की कोशिश करते हैं, जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है।
वहीं, यदि यही मोल-भाव आप मॉल्स और बड़ी-बड़ी होटलों में करने के बारे में विचार करेंगे भी न, तो आपके लिए वे एक रुपया भी कम नहीं करेंगे, क्योंकि वे यह बात अच्छी तरह से जानते हैं कि यदि यह सामान आपने नहीं भी खरीदा, तो और कोई खरीद लेगा। वहीं, सड़कों पर बैठे मजबूरों के मन में ये ही सवाल उठते हैं कि यदि आप नहीं ले गए, तो बाद में कोई आएगा भी या नहीं? उसकी कमाई होगी भी या नहीं? आज उसे रात का भोजन मिलेगा या नहीं? उसके परिवार का खर्चा चलेगा या नहीं? बस इसी सोच में वह हमारे मनमाने दामों में हमें अपना सामान बेच देते हैं। शर्म आती है यह कहते हुए कि हम मजबूरों को और मजबूर करते हैं और भरे हुए पेट वाले लोगों के पेट में और खाना भरते चले जाते हैं।
जब मैं लोगों को इन मजबूरों की उपेक्षा या उनका अनादर करते हुए देखता हूँ, सच कहूँ दिल को बहुत दुःख पहुँचता है। यदि आप उनका सामान नहीं खरीदना चाहते हैं, तो न खरीदें। लेकिन मोल-भाव करके, उनके सामान में बेकार की मीन-मेख निकालकर, उनका अपमान करना बंद करें। यह उनका ही नहीं, उनकी मेहनत का भी अपमान है। सिर्फ इसलिए कि वे असहाय और गरीब हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे उस तरह का व्यवहार करने के लायक हैं।
पाँच-दस रुपए के लिए उनसे झिक-झिक करने से पहले जरा यह तो सोचिए कि यदि ये रुपए उन्हें मिल भी गए, तो न वो वो अमीर बन जाएँगे और न ही आप गरीब। ये छोटे-छोटे व्यापारी ईमानदारी से चार पैसे कमाने के लिए मेहनत करते हैं। रोज सुबह जल्दी उठते हैं, दिनभर काम करते हैं और अपने परिवार का भरण-पोषण करने के लिए अनगिनत चुनौतियों का सामना करते हैं। इतनी मेहनत करने के लिए ये लोग हमारे सम्मान और दया के पात्र हैं, न कि चंद रुपयों के लिए मौल भाव के। वे बेचारे एक तो दिनभर अपना पसीना बहाते हैं, और हम दूसरी तरफ उनका खून जलाने भी पहुँच जाते हैं। ज़रा सोचिए कि आपके जैसे कितने लोग हर दिन उनके पास आते होंगे, जो मोल-भाव का अपना तराजू साथ लिए चलते हैं।
अक्सर यह कहा जाता है कि अमीर और अमीर होते जा रहे हैं और गरीब और गरीब होते जा रहे हैं, तो यह गलत नहीं है। हम अक्सर चमक-दमक वाली महँगी चीजों की ओर आकर्षित होते हैं, लेकिन अपने आस-पास की सरल, साधारण चीजों को नजरअंदाज कर देते हैं। विलासिता की इस दौड़ में, हम भूल जाते हैं कि असली खुशी अक्सर साधारण चीज़ों में होती है। एक बूढ़ी औरत जो सड़क किनारे फल बेचती है, उसके फल फैंसी शॉपिंग कॉम्प्लेक्स के फलों की तुलना में अधिक मीठे हो सकते हैं। यह उस औरत के घर का चूल्हा जला सकते हैं।
इसलिए अगली बार जब आप किसी ठेलेवाले, फेरीवाले से चार पैसे के लिए बहस करें, तो उससे पहले एक पल के लिए यह जरूर सोचें कि उस रात उन्हें भर पेट भोजन कराने का जरिया शायद आप ही हों। उनकी थकी हुई मुस्कुराहट के पीछे के संघर्ष का ख्याल करें। इससे पहले कि आप मोल-भाव करना शुरू करें, अपने आप से पूछें, क्या ये चार पैसे बचा लेने से आप कोई बहुत बड़ी बचत कर लेंगे?
अच्छाई से ही अच्छाई उत्पन्न होती है। यही कारण है कि हम मनुष्यों में सहानुभूति और भावनाओं को महसूस करने की शक्ति होती है। तो क्यों न दो वक्त की रोटी के लिए भी संघर्ष कर रहे इन लोगों को मुस्कुराने का कारण दिया जाए? फल बेचने वाली बूढ़ी दादी, ट्रैफिक सिग्नल पर पेन बेचने वाले भैया या गुब्बारे वाले दादाजी के बारे में सोचें। आपकी दयालुता से शायद वे उस रात भर पेट खाना खा पाएँ।
कल्पना कीजिए कि आपसे थोड़ा-सा अपनापन पाकर उनके चेहरे कृतज्ञता से चमक रहे हैं। यह जानना कितना अच्छा अनुभव है न कि आपने किसी का दिन थोड़ा बेहतर बना दिया है। इंसान होने का तभी तो कोई मतलब है जब आप अपनी अच्छाई से किसी का जीवन आसान बना पाएँ। उनकी कड़ी मेहनत को स्वीकार करें, उनकी गरिमा का सम्मान करें और उन्हें दिखाएँ कि हम उनकी परवाह करते हैं।
आखिरकार, यह विलासिता की वस्तुएँ आपको वह आनंद नहीं दे पाएँगी, जो किसी की मुस्कान का कारण बनने पर आपको मिलेगा। इसलिए, अगली बार जब आप किसी स्ट्रीट वेंडर को देखें, तो उन्हें मुस्कुराने का कारण दें, उनकी मुस्कराहट में आप खुद को भी मुस्कुराता हुआ पाएँगे..
-अतुल मलिकराम (लेखक एवं राजनीतिक रणनीतिकार)
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