डॉ. अम्बेडकर को दलितों का मसीहा कहा जाता है। उन्होंने दुनिया के सबसे अधिकारविहीन लोगों के मुक्ति की जो सफल लड़ाई लड़ी, उसके फलस्वरूप उनकी तुलना अब्राहम लिंकन, बुकर टी. वाशिंग्टन, मोजेस इत्यादि महापुरुषों से की गयी। लेकिन दलितों के मुक्तिदाता के रूप में उनकी भूमिका से अवगत होने के बावजूद बहुतों को यह नहीं मालूम कि उन्होंने दलित मुक्ति की लड़ाई मुख्यतः दो आधार पर लड़ी थी। पहला, उन्होंने अपने भूरि-भूरि लेखन द्वारा साबित किया था कि दलित विशाल हिन्दू समाज के अल्पसंख्यक हैं, इसलिए दूसरे अल्पसंख्यकों की भांति इनके भी हितों की सुरक्षा होनी चाहिए। उनके इसी प्रयास का परिणाम कम्युनल अवार्ड के रूप में मिला, जिसके फलस्वरूप पूना पैक्ट के जरिये दलितों को ढेरों अधिकार मिले। लेकिन दलितों के हित में अंग्रेजों पर नैतिक दबाव बनाने के लिए उन्होंने दो युद्धों: प्लासी और कोरेगांव को आधार बनाया। इन्हीं दो युद्धों को आधार बनाकर उन्होंने ब्रिटेन में आयोजित गोलमेज बैठक से लेकर स्वाधीन भारत में होने वाले सत्ता हस्तांतरण में अंग्रेजों पर नैतिक दबाव बनाया था। इस विषय में सत्ता हस्तांतरण के लिए भारत आये कैबिनेट मिशन के सदस्य ए.वी. अलेक्जेंडर को 14 मार्च, 1946 को लिखा गया पत्र विशेष ऐतिहासिक महत्त्व का है। बहरहाल, ए.वी. अलेक्जेंडर को लिखे लम्बे पत्र में उन्होंने 12 महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं के आधार पर स्वाधीन भारत में अस्पृश्यों के लिए सत्ता में भागीदारी की मांग किया था। उस पत्र के 9वें बिंदु में डॉ. अम्बेडकर ने लिखा था, ’मुझे यह कहने की अनुमति दी जाए कि ब्रिटिश का अनुसूचित जातियों के प्रति नैतिक दायित्व है। वैसे तो सभी अल्पसंख्यकों के प्रति उनके नैतिक दायित्व हैं, परन्तु ये नैतिक दायित्व कभी भी उस नैतिक दायित्व से आगे नहीं बढ़ सकते जो उन्हें अछूतों के सम्बन्ध में निभाना है। यह दुःख की बात है कि कुछ ब्रिटिश लोग ही इससे अवगत हैं और कितने कम लोग इसे निभाना चाहते हैं। भारत में शासन का अस्तित्व अछूतों द्वारा की गयी सहायता पर निर्भर करता है। अनेक ब्रिटिश लोग यह सोचते हैं कि भारत पर विजय क्लाइव, हेस्टिंग, कुट्स और इसी प्रकार के अन्य सेनापतियों द्वारा हुई है। इससे अधिक गलती और नहीं हो सकती। भारत पर विजय भारतीयों की सेना द्वारा हुई और जो भारतीय इस सेना में थे वे सभी अछूत थे। ब्रिटिश भारत कभी संभव नहीं होता यदि अछूतों ने ब्रिटिश लोगों को भारत पर विजय पाने में सहायता न की होती। प्लासी युद्ध को ही लीजिये। इस युद्ध से ब्रिटिश शासन का प्रारंभ हुआ और कोरेगांव की लड़ाई को देखिये जिसने भारत पर विजय को पूरा किया। इन दोनों भाग्य-निर्णायक लड़ाइयों में जो सैनिक ब्रिटिश के लिए लड़े, वे सभी अछूत थे। (बाबा साहेब डॉ. आंबेडकर सपूर्ण वांग्मय खण्ड- 19,पृष्ठ: 94)’। इन दोनों युद्धों में लड़ने वाली अछूतों की कौन सी जातियां थीं, इसका उत्तर देते हुए डॉ. अम्बेकर ने गोलमेज बैठक में बताया था, ‘जिन्होंने प्लासी युद्ध विजय में भूमिका निभायी वे ‘दुसाध’ थे जबकि कोरेगांव के नायक ‘महार’ थे।
अगर ब्राह्मणों ने विविध उपायों से अछूतों को अंग्रेजों से दूर करने की सफल साजिश नहीं किया होता तो प्लासी के बाद कोरेगांव में अछूतों ने जो भूमिका अदा किया, उसके बाद आज का भारत ‘बहुजन भारत के रूप में जाना जाता। अंग्रेजों की निकटता पाने के लिए निम्नस्तर का समझौता करने के कारण ही अंग्रेज भारत राय बहादुरों से भर गया। अंग्रेज भारत में दलाली की उज्जवल मिसाल कायम करने के कारण ही अंग्रेजों द्वारा बांटे गए तमाम ख़िताब ब्राह्मण-सवर्णों के हिस्से में चले गए।
बहरहाल डॉ. अम्बेडकर और मान्यवर कांशीराम के कारण कोरेगांव गाँव युद्ध से ढेरों बहुजन अवगत हुए। कारण, खुद डॉ. अम्बेडकर और बाद में मान्यवर कांशीराम कोरेगांव विजय स्तम्भ से प्रेरणा लेने समय-समय पर कोरेगांव जाते रहे, जिससे आम अम्बेडकरवादियों की नज़र में यह बहुत पहले आ गया। इसी का परिणाम है कि 2018 की एक जनवरी को कोरेगांव विजय दिवस के 200 साल पूरे होने के उपलक्ष में लाखों की तादाद में लोग कोरेगांव युद्ध के 500 महार योद्धाओं को आदरांजलि देने के लिए भीमा कोरेगांव पहुंचे, जिससे इर्ष्याकातर होकर हिंदुत्ववादियों ने निहत्थे बहुजनों पर हमला बोल दिया था। बहरहाल, एकाधिक कारणों से एक जनवरी 1818 को लड़ा गया कोरेगांव युद्ध दलितों की स्मृति में लम्बे समय से रहा है, किन्तु यह सौभाग्य प्लासी युद्ध वीरों के हिस्से में में नहीं आया, जबकि अंग्रेजों ने कोरेगांव की भांति ही प्लासी में भी विजय स्तम्भ बनाया था। किन्तु 2018 में भीमा कोरेगांव में घटित घटना के बाद लोगों ने 23 जून, 1757 को हुए प्लासी युद्ध से प्रेरणा लेना शुरू किया,जो अब कुछ हद दीवानगी में तब्दील होता नजर आ रहा है। इस बार दुसाध समाज के लोग देश के विभिन्न अंचलों में प्लासी युद्ध शौर्य दिवस मना रहे हैं। खुद इस लेखक को तीन आयोजनों में शिरकत करने का आमंत्रण मिला है।
प्लासी युद्ध की संतानें
दुसाध जाति : उद्भव और विकास के लेखक डॉ. विजय कुमार त्रिशरण के शब्दों में, ’प्लासी युद्ध 23 जून, 1757 को नबाब सिराजुदौला और लार्ड क्लाइव के बीच लड़ा गया था, जिसमें एक मुग़ल नबाब तो दूसरा ब्रिटीशर था.। युद्ध के मैदान में लार्ड क्लाइव के पास महज 2200 सैनिक थे जबकि सिराजुदौला की ओर से 50 हज़ार सैनिकों को उतारा गया था, जिसमें 15000 घुड़सवार और 35000 पैदल सेना शामिल थे। सिराजुदौला के इस विशाल सेना का मुकाबला करने के लिए लार्ड क्लाईव के 2200 सैनिकों में से केवल 500 सैनिक प्लासी के मैदान में युद्ध के लिए मोर्चा संभाले थे। बाबासाहेब डॉ. अम्बेडकर के अनुसार ये सैनिक मूलनिवासी अछूत थे जो दुसाध जाति के थे। ये 22 जून को हुगली नदी को पार कर प्लासी के युद्ध के लिए पहुंचे थे। 23 जून को दोनों सेनाओं के बीच मात्र दो घंटे (दोपहर दो बजे से चार बजे तक) की भयंकर भिड़ंत हुई। इस महज़ दो घंटे के आमने-सामने के घनघोर मुकाबले में क्लाइव के मूलनिवासी वीर अछूत सैनिकों ने सिराजुदौला और उसके सेनापति मीर मदन को मौत की नींद सुलाकर प्लासी युद्ध को फतह कर लिया। इस प्रकार ब्रिटेन की ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने बंगाल में अपना साम्राज्य स्थापित किया जिसमें भारत के मूलनिवासी अछूत सैनिकों की अहम् भूमिका थी।
उनकी भूमिका आंकलन करते हुए महान बहुजन इतिहासकार एसके बिस्वास ने लिखा है- ‘अगर ‘दुसाध प्लासी युद्ध में अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा नहीं किये होते तो अस्पृश्य बहुजन के भाग्याकाश में मुक्ति का सूर्योदय नहीं होता। न ही जन्म ग्रहण करते डॉ. आंबेडकर और बाबू जगजीवन राम न ही हमलोग देख पाते मान्यवर कांशीराम, बहन मायावती और दलित सेनाध्यक्ष रामविलास पासवान, लालू प्रसाद यादव, मुलायम सिंह यादव इत्यादि भूरि-भूरि शुद्रातिशूद्र नायकों को। प्लासी युद्ध के अस्पृश्य ‘दुसाध’ सैनिकों के रक्तस्रोत और प्राण बलिदान की उर्वरक भूमि से ही उठकर मंत्री के सिंहासन पर आरुढ़ हुए थे डॉ. अम्बेडकर 1942 में लेबर मंत्री बनकर : 1946 में अन्तर्वर्तिकालीन सरकार में मंत्री बने थे बाबू जगजीवन राम। आज के दिनों का दलित-बहुजन का संघर्ष और संग्राम और कुछ नहीं:प्लासी युद्ध में उनके पूर्व-पुरुषों के हथियार उठाने की परिणत अवस्था मात्र है। सूबेदार मेजर रामजी सकपाल के पुत्र डॉ. भीमरावजी अम्बेडकर, दरअसल प्लासी युद्ध की संतान हैं। महात्मा हरिचंद ठाकुर, महत्मा जोतीराव फुले, रामासामी नायकर पेरियार से लेकर मान्यवर कांशीराम, मायावती, रामविलास पासवान इत्यादि वे सभी लोग जो दलित बहुजन संग्राम में योगदान किये, सभी प्लासी युद्ध की संतति हैं।’
कार्ल मार्क्स की नजर में प्लासी युद्ध !
प्लासी युद्ध के असर का आंकलन करते हुए वर्षों पहले कार्ल मार्क्स ने न्यूयार्क ट्रिब्यून में लिखा था, ’मूल भारतीय सैन्य-वाहिनी ब्रिटिश ड्रील सर्जेंटों द्वारा गठित एवं प्रशिक्षण प्रशिक्षण प्राप्त थी। उसने भारतीयों के आत्म-मुक्ति की एक अनिवार्य शर्त पूरा किया। इसी के फलस्वरूप उन्होंने अपने प्रथम विदेशी अनाधिकार प्रवेशकारियों के अत्याचार का शिकार बनने से बचने के लिए निज-मुक्ति का सूत्रपात किया।’ प्लासी युद्ध पर मार्क्स की टिप्पणी पर अपनी राय व्यक्त करते हुए एसके बिस्वास ने अपने चर्चित ग्रन्थ फादर ऑफ द इंडियन कांस्टीट्यूशन: डॉ. अम्बेडकर में लिखा है- ‘मार्क्स का यह मत काफी चौंकाने वाला: शत-प्रतिशत सत्य मंतव्य है। भारत के प्रथम अनाधिकार प्रवेशकारी कौन? विदेशागत आर्य ही तो! भारत के प्रथम विदेशी अनाधिकार प्रवेशकारियों के विरुद्ध आर्यावर्त के विगत सहस्राधिक वर्षों के इतिहास में पहली बार अछूत दुसाध सैनिकों ने देशद्रोहिता नहीं, बल्कि बहुजन मुक्ति संग्राम का शुभारम्भ किया था। भारत का बहुजन समाज ही इस देश सर्विल क्लास (उत्पादक समाज) है। वहीं आर्य नॉन-सर्विल क्लास हैं। इसी सर्विल क्लास को लेकर अंग्रेजों ने गठित कर दी थी सैन्य वाहिनी और जब इसी अस्पृश्य सैन्य-वाहिनी ने ब्राह्मणों द्वारा पुष्ट मुसलमान राज-वाहिनी को शिकस्त दिया-शुरू हुआ भारत में दलित-बहुजन का मुक्ति संग्राम। प्लासी युद्ध में अछूत दुसाधों ने फहरा दिया था बहुजन मुक्ति युद्ध का नीला-ध्वज। तब से ही बहुजन मुक्ति का संग्राम जारी है।’
1757 के प्लासी युद्ध में दुसाधों के बाद 1818 के कोरेगांव में महारों द्वारा निभाई गयी भूमिका को परवर्तीकाल में ढेरों इतिहासकारों ने देश-द्रोहिता के रूप में चिन्हित करने का प्रयास किया, जिसमें सबसे आगे निकल गए थे वार्शिपिंग फाल्स गॉड के लेखक अरुण शौरी! बहरहाल, प्लासी से कोरेगांव तक अछूत युद्धवीरों की भूमिका को हिन्दू इतिहासकारों द्वारा समय-समय पर देश-द्रोहिता के रूप में चिन्हित किये जाने का योग्य जवाब खुद डॉ. अम्बेडकर दे गए हैं। बाबासाहेब ने लिखा है, अनेक इतिहासकार ही अस्पृश्यों के इस आचरण को देश-द्रोहिता करार देते हैं। देशद्रोह अथवा ना-देशद्रोह जो भी क्यों न हो, अस्पृश्यों के क्षेत्र में यह आचरण यथार्थ ही नैसर्गिक है। इतिहास में ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं, जब देखा गया कि देश का एक निपीड़ित अंश विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति सहानुभूति एवं सहायता प्रदान किया है, केवल मात्र स्वदेशियों के अत्याचार से बचने के लिए। जो लोग अस्पृश्यों के प्रति दोषारोपण करते हैं, वे ब्रिटिश लेबर पार्टी का घोषणा-पत्र पढ़कर देख सकते हैं! ’ डॉ. अम्बेडकर ने प्लासी से कोरेगांव तक अछूतों की भूमिका का बचाव करते हुए जो युक्ति खड़ी की थी, वैसा भूरि-भूरि दृष्टान्त विश्व इतिहास में कायम हुआ है: दुनिया के विभिन्न अंचलों में स्वदेशी लोगों के शोषण-उत्पीड़न से आजिज आकर उत्पीड़ित वर्गों ने विदेशी आक्रमणकारियों के प्रति सहानुभूति और सहायता का हाथ बढ़ाया है। स्वदेशी लोगों के जुल्म के खिलाफ विदेशियों का सहयोग करने के क्रम में सभ्यता तक के विनाश का दृष्टान्त स्थापित हो चुका है, ऐसा जवाहर लाल नेहरु को पढ़ने से पता चलता है !
स्पैनिश आक्रान्ता हर्नेन कोर्ट ने शोषित स्वदेशी लोगों के सहयोग से ध्वस्त किया: अजटेक साम्राज्य!
मध्य युग में शोषित, अत्याचारित लोगों के सहयोग से स्पेन के एक आक्रान्ता ने कैसे एक छोटी-सी फौजी टुकड़ी के सहारे अजटेक साम्राज्य को ध्वस्त कर दिया, इसका बड़ा ही रोचक विवरण विश्व इतिहास की झलक के संक्षिप्त संस्करण (प्रकाशक, सस्ता साहित्य, नयी दिल्ली, पृष्ठ 115-16) में पंडित जवाहर लाल नेहरु ने प्रस्तुत किया है। विश्व की तमाम सभ्यताओं का भ्रमण करते हुए जब नेहरु अमेरिका पहुँचते हैं तो उन्हें ‘मय’ सभ्यता का दर्शन होता है और इसका दामन थामकर कर वह आगे बढ़ते हैं तो एक संघ, मयपान संघ के साक्ष्य मिलते हैं। इसके विषय में उन्होंने लिखा है, मध्य-अमेरीका के तीन मुख्य राज्यों ने मिलकर एक संघ बनाया था, जिसे ‘मयपान संघ’ कहते थे। यह ईशा से ठीक एक हजार वर्ष के आसपास की बात है। इस तरह यह साफ है कि ईशा के एक हजार वर्ष बाद मध्य अमेरिका में सभ्य राज्यों का एक शक्तिशाली संगठन था। लेकिन इसके सारे राज्यों पर ‘और खुद मय’ सभ्यता पर, पुरोहित लोग हावी थे। ज्योतिष सबसे प्रतिष्ठित विज्ञान माना जाता था और इस विज्ञान को जानने वाले होने की वजह से पुरोहित लोग जनता के अज्ञान से फायदा उठाते थे।
मयपान का यह संघ सौ वर्ष से अधिक रहा। जान पड़ता है कि इसके बाद एक सामाजिक क्रान्ति हुई। सन 1190 ई. के लगभग मयपान नष्ट हो गया, लेकिन दूसरे शहर बने रहे। इसके बाद सौ साल के भीतर एक दूसरी जाति के लोग वहां आ गए। ये लोग मैक्सिको से आये थे और ‘अजटेक’ कहलाते थे। इन लोगों ने चौदहवीं सदी के शुरू में मय देश को जीत लिया और सन 1325 ई. के लगभग टेनोचटिटलन नाम का नगर बसाया। जल्द ही यह सारे मैक्सिको और अजटेक साम्राज्य का केंद्र बन गए। इस शहर की आबादी बहुत बड़ी थी। अजटेक लोग एक सैनिक कौम के थे। इन लोगों ने सैनिक बस्तियां बसाई, छावनियां बनाएँ और फौजी सड़कों का जाल बिछा दिया। यहाँ तक कहा जाता है कि ये इतने चालाक थे कि अपने मातहत राज्यों को आपस में लड़ाते रहते थे। आपसी फूट के कारण उन पर शासन करना ज्यादा आसान था। दूसरी बातों में चालाक होने के बावजूद अजटेक लोग धर्म के मामले में पुरोहितों के बंधन में जकड़े हुए थे और इससे बुरी बात यह थी कि उनके मजहब में आदमियों की कुर्बानियां बहुत होती थीं। हर साल धर्म के नाम पर हजारों आदमी खौफनाक तरीके से बलि चढ़ा दिए जाते थे।
लगभग दो सौ वर्ष तक अजटेक ने अपने साम्राज्य पर डंडे की जोर से कठोर शासन किया। साम्राज्य में जाहिरा सुरक्षा व शान्ति थी, लेकिन जनता बेरहमी से निचोड़ी और लूटी जाती थी। जो राज्य इस तरह बना हो और इस तरह चलाया जाय, वह बहुत दिनों तक कायम नहीं रह सकता, और यही हुआ। सोलहवीं सदी के शुरू में यानी 1511 ई. में, जब अजटेक लोग अपनी शक्ति के सबसे ऊंची चोटी पर दिखाई देते थे, उनका साम्राज्य मुट्ठी भर लूटेरे और दुःसाहसी विदेशियों के हमले से भरभरा कर गिर पड़ा। स्पेन निवासी हर्नेन कोर्ट ने सिपाहियों की एक छोटी टुकड़ी की मदद से इस साम्राज्य को नष्ट कर दिया। कोर्ट बहादुर आदमी था और उसमें काफी साहस था। उसके पास दो चीजें थीं, जिनसे उसे बड़ी मदद मिली- बंदूकें और घोड़े। मालूम होता है कि मैक्सिको शहर में घोड़े नहीं थे और बंदूकें तो निश्चित ही नहीं थीं। किन्तु अगर अजटेक साम्राज्य की जड़ें खोखली न होतीं, तो कोर्ट की हिम्मत और बंदूकें और घोड़े ही किसी काम में न आते। इस साम्राज्य का ऊपरी ढांचा तो कायम था लेकिन अन्दर से खोखला हो चुका था। इसलिए इसे गिराने को जरा-सी ठोकर की जरूरत थी। यह साम्राज्य जनता के शोषण की नींव पर बना था, इसलिए लोग उससे बहुत असंतुष्ट थे।
प्लासी युद्ध में दुसाधों के हथियार उठाने असर सुदूर प्रसारी साबित हुआ। इस युद्ध विजय के बाद अंग्रेजों ने अस्पृश्यों को अपना पार्टनर समझाते हुए बहुत से अधिकारों से संपन्न किया। इस युद्ध के बाद ही दुसाध सैनिक और चौकीदार बनकर ब्रितानी सत्ता के करीब आये और उनमें मार्शल रेस का भाव दृढ़तर हुआ।
इसलिए जब उन पर हमला हुआ तो आम जनता साम्राज्यवादियों की इस परेशानी पर खुश हुई और जैसा अक्सर होता है, इसके साथ ही एक सामाजिक क्रांति भी हुई। एक दफा तो कोर्ट खदेड़ दिया गया और मुश्किल से यह अपनी जान बचा पाया लेकिन यह फिर लौटा और वहाँ के कुछ लोगों की मदद से उसने फतह पाई। इससे अजटेक शासन का अंत तो हुआ ही, लेकिन मजेदार बात यह है कि साथ ही साथ मैक्सिको की सारी सभ्यता लड़खड़ा कर गिर पड़ी और थोड़े ही समय में विशाल राजधानी टेनोचटिटनल का निशान तक बाकी नहीं रहा। उसकी और इंट भी आज नहीं बची। उसकी जगह स्पेन वालों ने गिरिजायर बनाया। मय सभ्यता के दूसरे बड़े शहर भी नष्ट गए और यूकेतान के जंगलों ने उन्हें ढँक लिया। यहां तक कि उनके नाम भी बाकी न रहे। बहुत से शहरों की स्मृति आजकल उनके पड़ोस के गाँवों के नामों में बाकी रह गयी है। उनका सारा साहित्य भी नष्ट हो गया है और केवल तीन किताबें बची रह गयी हैं और उन्हें भी आज तक कोई पढ़ नहीं सका। जिस तरह अजटेक साम्राज्य की खोखली जड़ों का लाभ उठाकर स्पेनिस आक्रान्ता हर्नेन कोर्ट ने उत्पीड़ित स्थानीय जनता की मदद से अपना शासन कायम किया, उन्हीं हालातों में लार्ड क्लाइव ने दुसाधों की मदद से सिराजुदौल्ला के शासन का अंत किया।
अंग्रेजों के निकट आये अछूत !
प्लासी युद्ध अनुष्ठित होने बहुत पहले से भारतवर्ष में देवोपम आर्य-ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्मशास्त्रों के विधान द्वारा अस्पृश्यों को पशु से भी अधम बनाकर रख दिया था। मुसलमानी शासन में सहयोगी की भूमिका अदा करने के कारण मुसलमान शासकों ने ब्राह्मणों को हिन्दू धर्मशास्त्रों द्वारा विशाल हिन्दू समाज को शासित करने का अधिकार दे रखा था। हिन्दू धर्म शास्त्रों द्वारा परिचालित होने के कारण शुद्रातिशुद्रों के साथ महिलाएं शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक, धार्मिक, से पूरी तरह बहिष्कृत रहीं। इस कारण हिन्दुओं की शुद्रातिशुद्रों सहित महिलाओं के रूप में प्रायः 90 प्रतिशत आबादी के लिए शिक्षा का कोई अवसर नहीं रहा। राजनीति इनके लिए अधर्म रही। उत्पादन ये करते पर उत्पादित फसल पर उच्च वर्ण हिन्दुओं का कब्ज़ा रहता। इनमें सबसे बदतर स्थिति अछूतों की रही। वे आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक गतिविधियों से तो बहिष्कृत रहे ही: उन्हें अच्छा नाम तक रखने का अधिकार नहीं रहा। वे अपने दुःखमोचन के लिए देवालयों में घुसकर ईश्वर के सामने प्रार्थना तक नहीं कर सकते थे। देश के कई अंचलों में उन्हें घर से बहार चलते समय पदचिन्ह मिटाने के लिए कमर में झक्कर और थूकने के लिए गले में हांडी बांधकर चलना पड़ता था। लोग उनकी छाया से अपवित्र न हो जाएँ इसलिए वे ऐसे समय घरों में खुद को कैद रखते जब दिन में व्यक्ति की छाया दीर्घतर हो जाती। कुल मिलाकर इनकी स्थिति नर-पशुओं जैसी थी। निपीड़ित, अत्याचारित अस्पृश्य बहुजन के लिए अस्त्र स्पर्श वर्जित था। उनका अस्त्र-शस्त्र धारण करना कर्म संकरता का कारक होता है और कर्म-संकरता से महान पवित्र-हिन्दू धर्म की हानि होती है, इसलिए अस्पृश्य समाज के लोग निरस्त्र होकर सब समय मार खाते रहे।
यही उनका धर्म था
ईस्ट इंडिया कंपनी के धीरे-धीरे मजबूत होते समय में नवाबी रोष से बचने तथा गोमांस भक्षण करने के कारण प्रारंभ में आर्य ब्राह्मण अंग्रेजों से दूरी बनाये रखे। मुसलमान भी राजनीतिक शत्रुता के कारण अंग्रेजों के निकट आने से कतराते रहे। ऐसे समय में मुटिया, मजदूर, पथ-प्रदर्शक, डाकिया, चौकीदार सिपाही बनकर अंग्रेजों के निकट आये अस्पृश्य जातियों के लोग। सैन्य वाहिनी में अछूत दुसाधों ने दिखाया आश्चर्यजनक दक्षता। इससे हिन्दुओं के होश उड़ गए थे। कारण यह ब्राह्मणवाद के खिलाफ सीधा हमला था। प्लासी युद्ध में अस्पृश्य दुसाधों के तलवारों की झलक और बंदूकों की गर्जन से ब्राह्मणवादियों पर उन्माद छा गया। हल, फावड़ाधारियों के हाथों में तलवार और बंदूक! रूस के मार्क्सवादी क्रांतिकारी लेनिन ने कहा था, जनगण के हाथ में बंदूक थमा दो, आधा शोषण ख़त्म हो जायेगा। भारत में सिख गुरुओं ने आर्मिंग द मास का तत्व जान लिया था। लेकिन धर्म की नामावली में सिख भी जो न कर सके, अग्रेजों ने वह कर दिखाया। (एसके बिस्वास, गॉडस फाल्स गॉड अनटचेबल्स, पृष्ठ-160)। बहरहाल, प्लासी युद्ध में दुसाधों के हथियार उठाने असर सुदूर प्रसारी साबित हुआ। इस युद्ध विजय के बाद अंग्रेजों ने अस्पृश्यों को अपना पार्टनर समझाते हुए बहुत से अधिकारों से संपन्न किया। इस युद्ध के बाद ही दुसाध सैनिक और चौकीदार बनकर ब्रितानी सत्ता के करीब आये और उनमें मार्शल रेस का भाव दृढ़तर हुआ। इस युद्ध ने शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत किये गए बंगाल के अछूतों के जीवन में चमत्कार घटित कर दिया। बंगाल में रॉय, मजूमदार, बिस्वास, सरकार उपनाम से जुड़े असंख्य अछूत जमींदार और सत्ता में भागीदार बने। प्लासी युद्ध ने बंगाल की कैवर्त जातियों के जीवन में बड़ा और सुखद बदलाव ला दिया, जिसकी उज्जवलतम मिसाल बनीं रानी रासमणि, जिनकी जमीन-जायदाद पर विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस ने देवोत्तर-ब्रह्मोत्तर भूमि के नाम पर कब्ज़ा जमाकर दक्षिणेश्वर को ब्राह्मणों के गढ़ के रूप में तब्दील कर दिया।
प्लासी युद्ध के असर को चालाक ब्राह्मणों ने ताड़ लिया
प्लासी युद्ध के दूरगामी असर को दूरदर्शी ब्राह्मणों ने ताड़ लिया था। उसके बाद भारत का इतिहास अछूतों को हटाकर सवर्णों के अंग्रेजों के सहयोगी बनने का इतिहास है। इस्लाम विजेताओं का सहयोगी बनकर मूलनिवासियों को अधिकारविहीन करने वाले ब्राह्मण एक बार फिर नए भारत विजेताओं के सहयोगी की बनने में कामयाब हो गए और ज्यों-ज्यों वे अंग्रेजों के निकट आते गए, अछूत सता से दूर होते चले गए। एक समय बाद ऐसी स्थिति आई कि अंग्रेजी फ़ौज मंगल पंडों से भर गई। अगर ब्राह्मणों ने विविध उपायों से अछूतों को अंग्रेजों से दूर करने की सफल साजिश नहीं किया होता तो प्लासी के बाद कोरेगांव में अछूतों ने जो भूमिका अदा किया, उसके बाद आज का भारत ‘बहुजन भारत के रूप में जाना जाता। अंग्रेजों की निकटता पाने के लिए निम्नस्तर का समझौता करने के कारण ही अंग्रेज भारत राय बहादुरों से भर गया। अंग्रेज भारत में दलाली की उज्जवल मिसाल कायम करने के कारण ही अंग्रेजों द्वारा बांटे गए तमाम ख़िताब ब्राह्मण-सवर्णों के हिस्से में चले गए। राजा राममोहन रॉय, साहित्य सम्राट बंकिम चटर्जी, रवि ठाकुर इत्यादि असंख्य सवर्ण जिन अलंकारों से सज्जित हुए, वे दलाली के इनाम रहे। दावे से कहा जा सकता है अंग्रेज विजेता भी ब्राहमणों के प्रभाव में आकर प्लासी और कोरेगांव युद्ध के पार्टनरों के साथ न्याय न कर सके। अगर न्याय करते तो भारत में जो सत्ता का हस्तांतरण हुआ, उसका सिंहभाग अम्बेडकर के लोगों के हिस्से में आता। बहरहाल, इस्लाम और अंग्रेज भारत के दलालों की वर्तमान पीढ़ी ने आज शक्ति के स्रोतों पर 80-90 प्रतिशत कब्ज़ा जमाकर विषमता का जो विशाल साम्राज्य कायम किया है, उससे उन्हें डरना चाहिए। इन्हीं हालातों में अछूतों ने प्लासी और कोरेगांव में शौर्य का इतिहास रचा था। अगर वे भारत के विविध समुदायों के मध्य शक्ति के स्रोतों के स्रोतों के न्यायपूर्ण बंटवारे के लिए सामने नहीं आते हैं: इक्कीसवीं सदी के बदले हालात में प्लासी और कोरेगांव का इतिहास नए सिरे से रचित होने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता!
डॉ. विजय कुमार त्रिशरण ने दुसाध जाति : उद्भव और विकास में लिखा है, वर्तमान में पं. बंगाल के नदिया जिले में प्लासी युद्ध में लड़े वीर सैनिकों की स्मृति में, एक विजय स्तम्भ बना हुआ है। बहुजनों को इसके सम्बंध में अभी पर्याप्त जानकारी और जागरुकता नहीं है। परन्तु प्लासी विजय स्तम्भ के प्रति भी कोरेगावं विजय स्तम्भ की भांति अपने पूर्वजों की त्याग, संघर्ष और बहुजन गौरव के प्रतीक के रूप में पहचान स्थापित करने की आवश्यकता है। इसके लिए बहुजनों को प्रति वर्ष 23 जून को नदियाँ जाकर कृतज्ञता और सम्मान प्रकट करने की परम्परा विकसित करने तथा विजय दिवस मनाने की आवश्यकता है। इससे मूलनिवासी बहुजन समाज को अपने समाज की मुक्ति के लिए पूर्वजों की वीरता और त्याग से प्रेरणा और उर्जा प्राप्त होगी।’ उम्मीद है प्लासी युद्ध को लेकर बहुजनों में जिस तरह आकर्षण बढ़ रहा है, उसे देखते हुए एक दौर ऐसा भी आ सकता कि अपने योद्धा पुरुखों से प्रेरणा लेने के लिए बहुजन कोरेगांव के भांति प्लासी में भी पहुचना शुरू करेंगे !
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