शंकराचार्य ने चार पीठ की स्थापना करने के समय ही इसका संविधान भी रच दिया था। शंकराचार्य द्वारा रचित मठाम्नाय में मठों के अनुशासन का सिलसिलेवार उल्लेख है।
सनातन धर्म की रक्षा एवं व्यवस्था के लिए भगवान शिव के ज्ञानावतार भगवान आदि शंकराचार्य ने भारत के चारों दिगंतों में चार शांकर मठों की स्थापना की और उनकी व्यवस्था आदि का निरूपण अपने लघु किंतु गुरु गंभीर ग्रंथ मठाम्नाय-महानुशासन में किया। यह ग्रंथ शंकराचार्यो पीठों के लिए उसी प्रकार महत्व का है जैसे किसी राष्ट्र के लिए उसका संविधान होता है। चारों शंकराचार्य पीठ मठाम्नाय-महानुशासन के अनुसार संचालित होते हैं। महाम्नाय महानुशासन का अर्थ हुआ मठों से सम्बद्ध उपदेश अथवा विवरण।
मठाम्नाय के अनुसार शंकराचार्य बनने के लिए संन्यासी होना आवश्यक है। संन्यासी बनने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग, मुंडन, पूर्वजों का श्राद्ध, अपना पिंडदान, गेरुआ वस्त्र, विभूति, रुद्राक्ष की माला को धारण करना आवश्यक होगा।
इस प्रक्रिया से गुजरने के बाद शंकराचार्य बनने के लिए ब्राह्मण होना, दंड धारण करने वाला, तन मन से पवित्र, जितेन्द्रिय यानी जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो। वाग्मी यानी शास्त्र-तर्क भाषण में निपुण हो। चारों वेद और छह वेदांगों का पारगामी विद्वान होना चाहिए। इसके बाद अखाड़ों के प्रमुखों, आचार्य महामंडलेश्वरों, प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति। काशी विद्वत परिषद की मुहर के बाद शंकराचार्य की पदवी मिलेगी।
शंकराचार्य परंपरा और मठाम्नाय महानुशासन की वास्तविक छवि जनमानस के सम्मुख रखी जानी चाहिए क्योंकि सनातन धर्म की एक प्रमुख विशेषता है कि यह अपने को निरंतर जांचते चलता है।
सनातन धर्म की रक्षा एवं व्यवस्था के लिए
द्वारकाशारदापीठ, गोवर्धनपीठ, ज्योतिष्पीठ व श्रृंगेरीपीठ। इन चारों पीठों की भारत के चारों कोनों में स्थिति और उनके कार्यक्षेत्र के बारे में इस ग्रंथ में विस्तार से वर्णन है। यही चार आचार्य पीठ हैं और इनके अतिरिक्त कोई भी शंकर-मठ आचार्य-पीठ नहीं है। इसका स्पष्ट उल्लेख मठान्माय-महानुशासन के अनेक श्लोकों में हुआ है, यथा-
मर्यादैषा सुविज्ञेया चतुर्मठविधायिनी।
तोमातां समुपाश्रित्य आचायार्: स्थापिता: क्रमात।। (श्लो. 38)
परिव्राडार्यमर्यादो मामकीनां यथाविधि।
चतुष्पीठाधिगां सत्तां प्रयुन्च्याच्च पृथक पृथक।। (श्लो. 56)
इन चारों शांकर पीठों पर अभिषिक्त होने वाले सन्यासी में अपेक्षित अर्हताएं भी निर्धारित हैं। मठाम्नाय में ज्योतिर्मठ का क्षेत्र बदरिकाश्रम, द्वारकाशारदामठ का द्वारिका, गोवर्धनमठ का पुरुषोत्तम और श्रृंगेरी का रामेश्वर है। यही चारों आचार्य पीठ हैं और इन पीठों का स्थान तथा क्षेत्र सुनिश्चित है। मठाम्नाय में न किसी उपपीठ का उल्लेख है और न ही शाखापीठ का, अत: उनकी किसी भी प्रकार की स्थिति अप्रामाणिक है और इस प्रकार मठाम्नाय-सम्मत नहीं है। यह कथन कि आदि शंकराचार्य ने काशी में भाष्य की रचना की और यहां पर कुछ काल तक निवास किया, इसलिए काशी में उन्होंने पीठ की स्थापना की थी, बिल्कुल तथ्यहीन है। क्योंकि शंकराचार्य जी जहां-जहां गए यदि वहां-वहां आचार्य पीठों की स्थापना करते तो अनेक शांकर-मठ होते। ऐसी स्थिति में वे सर्वप्रथम गोविंद वन में (अपने गुरु गोविंदपाद जिनसे उन्होंने दीक्षा ली थी) नर्मदा किनारे भी एक शंकराचार्य पीठ स्थापित करते, किंतु उनका उद्देश्य यह नहीं था।
वे जहां-जहां गए वहां-वहां पीठों की स्थापना नहीं की। भारत के चारों कोनों में स्थापित इन पीठों को (मठाम्नाय में) उन्होंने दृष्टिगोचर बताया है, अर्थात जो दृष्टि का विषय हो अर्थात भूतल पर जिसकी स्थिति दिखाई दे। पश्चिम में द्वारकाशारदापीठ, पूर्व में गोवर्धनपीठ, उत्तर में ज्योतिष्पीठ और दक्षिण में श्रृंगेरीपीठ जिनके अपने-अपने तीर्थ, सम्प्रदाय, (भोगवार, भूरिवार, कीटवार, नंदवार) महावाक्य एवं वेद हैं। कुछ लोगों का यह मानना कि दिशा का निर्धारण समुद्र से होना चाहिए तो दक्षिण का श्रृंगेरी मठ समुद्र के उत्तर में हो जाएगा जो दोषपूर्ण होगा। दिशा निर्धारण भारत भूभाग के हृदय स्थल पर विराजमान विंध्य पर्वत से किया जाता है।
इन चार प्रमुख दृष्टिगोचर शांकर-मठों के अतिरिक्त तीन ज्ञानगोचर मठों का उल्लेख भी ग्रन्थ में मिलता है परन्तु उनके विषय में विज्ञानैक विग्रहा (श्लोक 39) परिभाषित है। इन तीन शेषाम्नायों को उन्होंने ज्ञानगोचर बताया है अर्थात उनकी भूतल पर भौतिक स्थिति नहीं है अपितु ये तीनों भावगम्य हैं।
इन तीन शेषाम्नायों का नामकरण है- ऊर्ध्व, आत्मा और निष्कल। ऊर्ध्व आम्नाय का क्षेत्र कैलास, तीर्थ मानस और ब्रंतत्व में अवगाहन कराने वाला है जबकि भौतिक स्थिति रखने वाले चारों पीठों के तीर्थ क्रमश: महौदधि, तुंगभद्रा, गोमती और अलकनंदा हैं। उसी प्रकार दूसरा ज्ञानगोचर आम्नाय स्वात्मा नाम से उल्लिखित है जिसका क्षेत्र नभ: सरोवर है और त्रिपुटी है। तीसरा ज्ञानगोचर आम्नाय निष्कल है जिसका क्षेत्र अनुभूति है और तीर्थ अच्छे शास्त्रों का श्रवण है। इस प्रकार तीनों ज्ञानगोचर आम्नाय भावना के लिए है और चारों दृष्टिगोचर पीठों की भौतिक स्थिति भूतल पर है। किसी भी स्थिति में इन पीठों का स्थानांतरण संभव नहीं है। भले ही इन पीठों के आचार्य भ्रमण करते हुए काशी, दिल्ली, कोलकाता आदि स्थानों में अल्प या दीर्घकाल प्रवास करें परंतु शांकर-पीठ उनके साथ-साथ स्थ्ज्ञानांतरित नहीं हो सकते। देश के सभी तीर्थ प्रतीकात्मक रूप से काशी में भी हैं परंतु उन तीर्थो के अपने मूल स्थान हैं जहां उनकी वास्तविक स्थिति है।
अपने जीवनकाल में आदिशंकराचार्य ने विधर्मियों द्वारा ध्वस्त किए गए अनेक मठों, मंदिरों का जीर्णोद्धार किया परंतु इस कारण से भी वे शांकर मठ घोषित नहीं हुए। वैसे भी काशी आदिकाल से धार्मिक राजधानी रही है इसलिए यहां अलग से शांकरपीठ की आवश्यकता नहीं। जहां साक्षात शिव निवास करते हों वहां शंकराचार्य पीठ की स्थापना का प्रश्न ही कहां उठता है?
-एजेंसी
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