आगरा ADA का अटल का ‘पुरम’ क्या अधूरे सपनों का ‘अड्डा’

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आगरा: बरसों के इंतजार के बाद, आखिरकार आगरा विकास प्राधिकरण (ADA) ने अपनी ‘अटलपुरम’ योजना का झुनझुना बजा ही दिया। सुनने में बड़ा भारी-भरकम नाम लगता है, ‘अटलपुरम’। मानो कोई नया शहर नहीं, बल्कि एक नया युग शुरू होने जा रहा हो, जहां सब कुछ ‘अटल’ रहेगा—अटल योजनाएं, अटल वादे और जनता की अटूट निराशा। यह योजना 138 हेक्टेयर की विशाल भूमि पर फैलाई गई है, जिसमें 1430 आवासीय भूखंड, स्कूल, अस्पताल और न जाने क्या-क्या बनाने के प्रस्ताव हैं। प्राधिकरण का दावा है कि यह ‘पुराण’ 50,000 लोगों के लिए ‘विकसित’ किया जा रहा है और इस पर 1515 से 2242 करोड़ रुपये का ‘अटल’ निवेश हुआ है।

लेकिन, रुकिए! क्या आपने सोचा है कि इस ‘अटल’ योजना की भव्यता के नीचे क्या कुछ दब गया है?

सवाल है, जब योजना ही ‘अटल’ नहीं, तो नाम से क्या होता है?

योजना शुरू होते ही, इसके ‘अटल’ इरादों की पोल खुलने लगी है। प्राधिकरण ने तो बड़े सपने दिखाए थे कि यह योजना गरीबों और निम्न आय वर्ग के लोगों के लिए वरदान साबित होगी। लेकिन, सच्चाई क्या है? योजना में ईडब्ल्यूएस (अत्यंत गरीब) और एलआईजी (निम्न आय वर्ग) श्रेणी के भूखंडों के लिए आवेदकों ने मुंह ही फेर लिया है। क्या गरीब और निम्न वर्ग के लोग इतने मूर्ख हैं कि वे इस योजना की जटिलताओं को नहीं समझ पा रहे? या फिर, योजना ही ऐसी बनाई गई है कि गरीबों के लिए यह बस एक ‘अटल’ सपना बनकर रह गई है?

ADA को आखिरकार अगस्त 2025 में ‘विशेष शिविर’ लगाने पड़े, ताकि इन भूखंडों को किसी तरह ‘बेचा’ जा सके। क्यों? क्या इसलिए कि योजना की मार्केटिंग ठीक से नहीं हुई? या फिर इसलिए कि आपकी योजना की नींव में ही ‘घोटाले’ के बीज बो दिए गए थे?

आवेदन का ‘अटल’ खेल और ‘डिजिटल डिवाइड’ की खाई

योजना की एक और ‘खासियत’ है इसकी ऑनलाइन आवेदन प्रक्रिया। यह प्रक्रिया केवल ‘जनहित पोर्टल’ के माध्यम से हो रही है। वाह! क्या डिजिटल इंडिया है! क्या हमारे देश के सभी गरीब और निम्न वर्ग के लोग डिजिटल रूप से इतने साक्षर हैं कि वे ऑनलाइन आवेदन कर सकें? क्या उनके पास लैपटॉप, इंटरनेट और क्रेडिट कार्ड की सुविधा है? या फिर आपने यह प्रक्रिया जानबूझकर इसलिए रखी है कि केवल वही लोग आवेदन कर पाएं, जो पहले से ही सक्षम हैं?

सवाल यह भी है कि जब आप पहले ही इतना मोटा पंजीकरण शुल्क (1100 रुपये) ले रहे हैं, तो कम से कम कुछ तो सहूलियत देते। और यह शुल्क भी ‘नॉन-रिफंडेबल’ है! यानी, अगर आपका आवेदन मंजूर नहीं होता तो भी आपके 1100 रुपये ‘अटल’ हो गए। क्या यह लूट नहीं है?

कब्जे का ‘अटल’ इंतज़ार: पांच साल, और क्या?

और सुनिए, योजना में सबसे बड़ा ‘अटल’ मजाक तो कब्जा मिलने में है। अगर आप आज आवेदन करते हैं, तो आपको भूखंड पर कब्जा मिलेगा पांच साल बाद! यानी 2025 में आवेदन और 2030 में कब्जा! क्या लोग तब तक किराए के मकान में अपनी हड्डियां गलाते रहेंगे? क्या ये पांच साल उनके जीवन से कम हो जाएंगे? क्या आपकी योजना ‘अटल’ भविष्य की गारंटी दे रही है या ‘अटल’ अनिश्चितता की?

लोग जब एक भूखंड खरीदते हैं, तो वे उसमें अपना भविष्य देखते हैं, अपना घर बनाने का सपना देखते हैं। लेकिन आप तो पांच साल का ‘अटल’ इंतजार दे रहे हैं। क्या यह योजना है या कोई लंबी अवधि का फिक्स्ड डिपॉजिट?

ADA का ‘अटल’ इतिहास: जब-जब योजना, तब-तब कमी

यह कोई पहली बार नहीं है कि ADA की योजनाओं में ऐसी कमियां सामने आई हैं। इनका इतिहास ऐसी ‘सफल’ योजनाओं से भरा पड़ा है।

पिछली योजनाओं में क्या हुआ? एक ही मकान पर दो-दो लोगों के दावे, सड़क, बिजली और पानी की कमी, और गरीबों को योजनाओं से दूर रखना।

क्या स्लम पुनर्वास सफल रहा? पुनर्वास तो हुआ, लेकिन वहां सुविधाओं के नाम पर कुछ नहीं मिला, मानो आपने लोगों को एक ‘अटल’ नरक में भेज दिया हो।

क्या पिछली योजनाएं शहर के करीब थीं? ज्यादातर योजनाएं शहर से इतनी दूर बनाई गईं कि वहां पहुंचने के लिए ही एक अलग यात्रा करनी पड़ती है।

और अब ADA ‘अटल’ नाम के साथ अपनी वही पुरानी कहानी दोहरा रहा है।

सवाल यह है कि क्या ADA का मकसद सच में शहर को ‘विकसित’ करना है या बस नए-नए नाम देकर पुरानी गलतियों को दोहराना? क्या वे वाकई गरीबों को घर देना चाहते हैं या बस एक और ‘अटल’ खेल खेलना चाहते हैं?

जब आप ‘अटल’ नाम देते हैं, तो आपसे अपेक्षा होती है कि आपके वादे भी अटल हों, आपकी नीयत भी अटल हो। लेकिन यहाँ तो सब कुछ डगमगा रहा है—योजना भी, वादे भी, और जनता का विश्वास भी। ऐसा लगता है कि यह अटलपुरम नहीं, बल्कि अधूरे सपनों का एक और ‘अड्डा’ बनकर रह जाएगा।

-मोहम्मद शाहिद की कलम से