देश के मुख्य न्यायाधीश (CJI) जस्टिस बी.आर. गवई और जस्टिस एन.वी. अंजारिया की बेंच ने इलाहाबाद हाईकोर्ट पर एक टिप्पणी की है, जिसकी गूंज अदालतों की दीवारों से बाहर, लोकतंत्र की आत्मा तक सुनाई देनी चाहिए। मामला किसी साधारण बहस का नहीं था, बल्कि एक इंसान की ‘व्यक्तिगत स्वतंत्रता’ का था। लेकिन हाईकोर्ट ने इसे ऐसे टाला जैसे मोहल्ले की चाय की दुकान पर कोई उधार चुकाने का वादा टालता है—आज नहीं तो कल। फर्क सिर्फ इतना है कि यहां 43 बार “कल” आया और चला गया, मगर न्याय नहीं आया।
साढ़े तीन साल सलाखों में, और अदालत व्यस्त
रामनाथ मिश्रा नाम का यह अभियुक्त पहले ही साढ़े तीन साल से जेल में कैद है। आरोप, जटिल। जांच एजेंसी, सीबीआई। लेकिन जेल में किसी के सड़े हुए दिन क्या इंतज़ार करेंगे कि अदालत अपनी घड़ी देखे, फाइल पलटे और कहे—“आज नहीं, अगली तारीख।”
क्या अदालतें यह बताने की ज़हमत उठाएंगी कि किसी इंसान के जीवन के साढ़े तीन साल कीमती होते हैं या उनका कैलेंडर?
हाईकोर्ट की अर्थव्यवस्था: तारीखों का उत्पादन
पच्चीस अगस्त को सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि हाईकोर्ट का ऐसा रवैया “पसंद नहीं किया जा सकता।”
सवाल यह है: आखिर हाईकोर्ट किसके लिए काम करता है? उस इंसान के लिए जो जेल में बंद है? या उस कागज़ की फाइल के लिए जो रजिस्ट्रार की मेज़ से टस से मस नहीं होती?
अगर जमानत याचिका 43 बार टल सकती है, तो जनता यह सोचे कि बाकी मामलों का क्या हाल होगा। शायद न्यायपालिका का असली उद्योग ही “तारीखें” हैं।
सीबीआई का तर्क और सुप्रीम कोर्ट का कटाक्ष
सीबीआई की ओर से सरकार के वकील ने कहा—अगर सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी तो “गलत मिसाल” बन जाएगी।
तो क्या सही मिसाल यही है कि इंसान जेल में सड़ता रहे, और अदालतें उसका केस 43 बार स्थगित करें?
यह कैसा तर्क है? और यह तर्क आखिर किस तरह की “न्यायिक तर्कसंगति” का हिस्सा है?
इसी मामले में जब सुप्रीम कोर्ट ने मई 2025 में एक सह-अभियुक्त को ज़मानत दी थी, तब तक हाईकोर्ट 27 बार तारीख बदल चुका था। तब भी सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि यह अस्वीकार्य है। अब वही अदालत 43 बार का हिसाब लेकर लौटी। क्या यह याद दिलाता नहीं कि अदालत का इतिहास खुद तारीखों से लिखा जा रहा है? और यह इतिहास किसी अभियुक्त की आज़ादी पर सबसे लंबी तानाशाही टिप्पणी है।
क्या भारत में व्यक्तिगत स्वतंत्रता अब अदालत के “कैलेंडर” पर टिकी है?
अगर अदालत 43 बार तारीख़ बदल सकती है, तो क्या हमें यह मान लेना चाहिए कि इंसाफ़ महज़ एक “स्लोगन” है?
और क्या न्यायालय खुद उस लाइन में खड़ा नहीं हो गया है, जहां तारीखें मिलती हैं, फैसले नहीं?
किसी मज़ाक की तरह लगता है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय को बार-बार यह याद दिलाना पड़ता है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राथमिक है।
क्या यह लोकतंत्र नहीं तो और क्या है कि सीजेआई बार-बार कहे—”जल्दी करो… देर मत करो”, और हाईकोर्ट कहे—”अगली तारीख़”?
इंसाफ अगर इतना ही हुल्लड़ में मिलेगा, तो जेलें सिर्फ कैदियों से नहीं, अदालतों की बेरुख़ी से भी भरती रहेंगी।
निचोड़ यही है: जिस देश की अदालतों में न्याय 43 बार टल सकता है, वहां इंसाफ़ की उम्मीद करना भी एक लंबी, बेहद लंबी जमानत याचिका जैसा है।
-मोहम्मद शाहिद की कलम से