प्रयागराज। ‘माघ मकरगति रवि जब होई, तीरथपतिहि आव सब कोई, देव दनुज किन्नर नर श्रेणी, सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी’ की भावना के अनुरूप ही इस बार भी माघ में संगम की रेती, कुंभ मेले पर श्रद्धालुओं को आमंत्रित करती रही है। सूर्य के मकर राशि में प्रवेश के साथ ही बृहस्पति की वृष राशि में विशेष स्थिति के कारण होनेवाले इस महाकुंभ पर्व का पुण्य अर्जित करने को लाखों श्रद्धालुओं ने कल्पवास करना शुरू कर दिया है। घर के आम जीवनचर्या से दूर और संस्कारिकता को पीछे छोड़कर एक महीने के कल्पवास का उद्देश्य मन को अध्यात्म की ओर ले जाना और भागवत प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होना है। एक महीने की कठिन साधना भगवत चिंतन, भजन, गंगा स्नान से सांसारिक विषयों में रमा मन शुद्ध हो जाता है।
इस बार संगम से बहुत दूर लगे हैं टेंट
कल्पवासी हर साल माघ महीने में संगम की रेती पर बनाए गए टेंट में रहते हैं; ज्यादातर उनके टेंट संगम के आस-पास ही बनाए जाते हैं। मगर इस बार महाकुंभ होने की वजह से उन्हें संगम से कई किलोमीटर दूर नागवासुकी क्षेत्र के पास सेक्टर 17 और 18 में बसाया गया है। ऐसे में मुख्य स्नान पर्वों पर उनका संगम पहुंचना कठिन ही है। मुख्य रूप से तीर्थपुरोहितों के शिविर ही कल्पवासियों का ठौर होता है, पर महाकुंभ पर्व के कारण अबकी अखाड़ों के महामंडलेश्वरों, अनेक संतों, आचार्यों, कथावाचकों के शिविरों में भी बड़ी संख्या में उनका जमावड़ा हुआ है। आडम्बर से दूर और मीडिया हाइलाइट से परे, कल्पवासी ईश्वर भजन, नाम-जप और विभिन्न धर्माचार्यों के तम्बुओं में आयोजित किए जा रहे भागवत प्रवचन, लीला प्रसंग और धर्मोपदेशों के श्रवण में रमे हुए हैं।
पूरे एक माह तक जमाएंगे डेरा
सभी बड़े धर्माचार्य, संत, महामंडलेश्वर और पीठाधीश्वर मुख्य स्नान पर्वों के बाद संगम क्षेत्र से प्रस्थान कर जाते हैं। यह कल्पवासी ही हैं, जो पूरे एक महीने तक संगम की रेती पर रुककर कल्पवास पूरा करते हैं। इस बार करीब 25 लाख कल्पवासी महाकुंभ क्षेत्र में आध्यात्मिक ऊर्जा से सराबोर हो रहे हैं।
रोपा जाता है तुलसी का बिरवा, जौ
कल्पवास के दौरान शिविर के बाहर तुलसी का बिरवा और जौ बोया जाता है। वरिष्ठ तीर्थपुरोहित पद्मनारायण शोकहा के मुताबिक जौ बोने का उद्देश्य जौ के विकास की तरह ही सर्वसिद्धि और सर्वमंगल कामना भी है।
संक्रांति से संक्रांति का भी कल्पवास
परंपरा के मुताबिक मैथिल ब्राह्मण संक्रांति से संक्रांति जबकि अन्य श्रद्धालु पौष पूर्णिमा से माघ पूर्णिमा तक संगम की रेती पर कल्पवास करेंगे। संक्रांति से संक्राति का कल्पवास करने वालों में मुख्यतः बिहार और झारखंड के मैथिल ब्राह्मण शामिल होते हैं।
संयम और साधना का अभ्यास है कल्पवास
कल्पवास वस्तुतः संयम और साधना का अभ्यास है, इस दौरान कई तरह के अनुशासनों का पालन किया जाएगा।
परंपरानुसार दो या तीन समय स्नान, दिन में एक बार भोजन, भूमि पर ही शयन और आग से हाथ सेंकने से भी दूर रहना होता है। इस दौरान दंपत्ति को संयमित और सात्विक जीवन जीना होता है, जिसमें शारीरिक संबंध से दूर रहना अनिवार्य है। महिलाएं मासिक धर्म के समय पूजा और यज्ञ में भाग नहीं लेतीं, लेकिन अन्य नियमों का पालन जारी रखती हैं। विधवा महिलाओं के लिए विशेष नियम बनाए गए हैं ताकि वे अपना समय भक्ति और साधना में लगा सकें।
कई किंवदंतियां, कथाएं
पद्मपुराण की एक रोचक कथा भी माघ मास में स्नान का महत्व बताती है। इसके अनुसार, भृगु देश की कल्याणी नामक ब्राह्मणी बचपन में ही विधवा हो गई थी। ऐसे में वह विंध्याचल क्षेत्र में रेवा कपिल के संगम पर जाकर तप करने लगी और यह क्रम साठ माघ स्नान तक जारी रहा। मृत्यु के बाद माघ स्नान के पुण्य के कारण ही उसने परम सुंदरी अप्सरा तिलोत्तमा के रूप में जन्म लिया।
किंवदंतियों के मुताबिक माघ के धार्मिक अनुष्ठान के फलस्वरूप प्रतिष्ठानपुरी के नरेश पुरुरवा को अपनी कुरूपता से मुक्ति मिली थी। वहीं भृगु ऋषि के सुझाव पर व्याघ्रमुख वाले विद्याधर और गौतम ऋषि द्वारा अभिशप्त इंद्र को भी माघ स्नान के महाम्त्य से ही श्राप से मुक्ति मिली थी।
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