हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में जीत के बाद कांग्रेस की दमदार वापसी की उम्मीदें हिंदी पट्टी के तीन राज्यों में शिकस्त के साथ ही धराशायी हो चुकी हैं। इस तरह 2024 लोकसभा चुनाव में पार्टी की राह अब अनिश्चित दिखाई दे रही है। इतना ही नहीं, कांग्रेस हालिया हार से नवगठित I.N.D.I.A. गठबंधन की भी मुश्किल बढ़ रही है क्योंकि इस गठबंधन का भविष्य भी कांग्रेस से जुड़ा हुआ है। अगर कांग्रेस उन 200 से ज्यादा लोकसभा सीटों पर बीजेपी से हारती रहती है जहां दोनों पार्टियों का सीधा मुकाबला है, तो क्षेत्रीय पार्टियों का अच्छा प्रदर्शन भी गठबंधन को जीत दिलाने के लिए काफी नहीं होगा।
आखिर कांग्रेस को हो क्या गया है? वह वापसी क्यों नहीं कर पा रही है, या कम से कम अपनी छाप क्यों नहीं छोड़ पा रही है? इन सवालों के लिए कई लोग गांधी परिवार के नेतृत्व और उनकी घटती चुनावी जीत को जिम्मेदार मानते हैं। वो कहते हैं कि ‘नए भारत’ में मोदी फैक्टर काफी मजबूत है, जबकि कांग्रेस के पास कोई नया नैरेटिव नहीं है।
गांधी परिवार का नेतृत्व विरासत पर आधारित है, जहां सारे अधिकार होते हैं लेकिन हार या गलत फैसलों की कोई जिम्मेदारी नहीं ली जाती। पार्टी हारती है, उसे नुकसान होता है, लेकिन गांधी परिवार इससे अछूता रहता है। कांग्रेस के लिए इस राजनीतिक निराशा के दौर के बीच, पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने एक और यात्रा पर निकलने का फैसला किया है। राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा को उम्मीद थी कि राज्यों के चुनाव में कांग्रेस की जीत होगी और उसका पूरा श्रेय उनकी भारत जोड़ो यात्रा और जातिगत गणना-ओबीसी कार्ड को जाएगा। लेकिन ऐसा हो न सका। ये देखना बाकी है कि ये नया ‘पूरब-पश्चिम’ (बस) यात्रा-2 पार्टी को कहां तक ले जा पाएगी।
चुनाव प्रचार समिति (सीडब्ल्यूसी) की 21 दिसंबर की बैठक में कुछ सदस्यों ने राहुल को आगाह किया था कि लोकसभा चुनाव बेहद नजदीक हैं और ऐसे में एक और यात्रा फायदेमंद नहीं होगी। साथ ही, राम मंदिर उद्घाटन के लिए बीजेपी के कार्यक्रम से ये टकरा सकती है और इसमें पहले जैसा नयापन भी नहीं होगा। लेकिन पार्टी ने इन चेतावनियों को दरकिनार कर दिया है।
हार पर इनाम!
एक तरफ राहुल दूसरी यात्रा की तैयारी कर रहे हैं तो दूसरी तरफ प्रियंका वाड्रा भी अपना दायरा बढ़ा रही हैं। भले ही उनके नेतृत्व में यूपी कांग्रेस लगभग खत्म हो गई, लेकिन उन्हें ‘बिना विभाग के एआईसीसी महासचिव’ का पद इनाम के तौर पर मिल गया। यानी कहीं भी दखल देने का लाइसेंस और वो भी बिना किसी जवाबदही के। अगर राहुल का पीएम बनने का दावा इस पर आधारित है कि उनके पिता, उनकी दादी और उनके परनाना भी प्रधानमंत्री थे तो प्रियंका वाड्रा के पक्ष में तो एक और योग्यता है यानी चौथा कारण। उनके फैन अब ये दावा कर सकते हैं कि लाल बहादुर शास्त्री भी प्रधानमंत्री बनने से पहले ‘बिना विभाग के मंत्री’ थे।
मनोनयन और वफादारी
परिवार के फलने-फूलने में एक चालाकी से चलने वाला ‘टू हैंड्स क्लैप’ सिस्टम मदद करता है यानी ‘आप मेरी पीठ खुजाओ, मैं आपकी पीठ खुजाऊं।’ CWC से लेकर AICC सचिवालय और प्रदेश कांग्रेस समितियों (CPC) तक तकरीबन सभी पदाधिकारी ‘मनोनीत’ होते हैं, जिन्हें चुने हुए सदस्यों के उलट जब चाहे हटाया जा सकता है।
सोनिया-राहुल ने अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद भी अपना स्थान सुरक्षित कर लिया। रायपुर अधिवेशन में “पूर्व कांग्रेस अध्यक्षों और पूर्व प्रधानमंत्रियों को CWC में स्थायी सदस्यता” दे दी गई। गांधी परिवार और नियुक्त पदाधिकारी आपसी वफादारी के नाम पर साथ चलते हैं, जबकि कांग्रेस डूबती जा रही है। मनोनीत पदाधिकारी ये राग गाते रहते हैं कि सिर्फ गांधी परिवार ही पार्टी को एकजुट रख सकती है।
पार्टियां भविष्य की राजनीति पर काम करके जीतती हैं, अतीत के किस्सों पर नहीं या युवाओं को विरासत में मिले विशेषाधिकारों का दिखावा करके नहीं। और गांधी-वाड्रा परिवार इस मामले में कई क्षेत्रीय पार्टियों की ही तरह हैं, जहां उनकी तरह ही परिवार केंद्रीय भूमिका में है।
परिवार के मजबूत नियंत्रण में, निर्वाचित अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे वास्तविक नेता की छाया में काम करते हैं। जो राहुल गांधी अक्सर प्रधानमंत्री मोदी पर “संविधान और संस्थाओं को कमजोर करने” का आरोप लगाते हैं, विडंबना देखिए कि वह खुद कांग्रेस के संविधान और संस्थागत प्रावधानों से ऊपर काम कर रहे हैं। जाहिर है, आज की CWC में कोई भी उन्हें ये याद दिलाने की हिम्मत नहीं कर सकता कि आप तो दूसरों को उपदेश मत ही दीजिए। लेकिन गांधी-वाड्रा परिवार के लिए समस्या 2014 से ‘गैर-मनोनीत’ मतदाताओं की तरफ से लगातार खारिज किया जाना है।
I.N.D.I.A. का संदेश और कांग्रेस की चुनौतियां
राहुल गांधी पार्टी के मनोनीत पदाधिकारियों पर भले ही दबदबा रखते हों, लेकिन ‘इंडिया’ ब्लॉक के नेताओं ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल ने साफ संकेत दिया कि वह उनके पीएम प्रत्याशी के संभावितों की लिस्ट में भी नहीं हैं। उन्होंने दलित समुदाय से खरगे को पीएम उम्मीदवार के रूप में पेश करके ये बात तेज कर दी। यह देखना बाकी है कि सीटों के बंटवारे में ‘इंडिया’ ब्लॉक की बात चलेगी या कोई पार्टी गठबंधन साथ छोड़ देगी।
आंकड़ों की चुनौती
हिंदी पट्टी के अहम राज्यों में हार के बाद कई कांग्रेस नेताओं को चिंता है कि क्या पार्टी 2019 के अपने सबसे कम सीटों के रिकॉर्ड 52 को पार कर पाएगी? उनकी चिंता सही है क्योंकि 2019 में कांग्रेस की ज्यादातर सीटें (करीब 60 प्रतिशत) 3 राज्यों- केरल (15), तमिलनाडु (8) और पंजाब (8) से आईं। केरल में तो पार्टी का प्रदर्शन चरम पर है, अब उसमें गिरावट आ सकती है। तमिलनाडु ने उसकी उम्मीद पूरी तरह सहयोगी डीएमके पर निर्भर है। पंजाब में आम आदमी पार्टी भी दावेदार है।
कांग्रेस की उम्मीद तेलंगाना, कर्नाटक और हिमाचल पर टिकी है, लेकिन दूसरी तरफ राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और गुजरात जैसे बड़े राज्यों में उसकी पकड़ कमज़ोर हुई है। हिंदी पट्टी के बड़े राज्यों में इस हार से अन्य राज्यों में सीट शेयरिंग को लेकर उसकी मोल-तोल की क्षमता भी बुरी तरह प्रभावित होगी।
जैसे बिहार में उसे जेडीयू, महाराष्ट्र में एनसीपी और उद्धव ठाकरे की शिवसेना, यूपी में समाजवादी पार्टी, पश्चिम बंगाल में टीएमसी, झारखंड में जेएमएम, पंजाब और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के साथ सीटों के तालमेल में कांग्रेस की मोलभाव की क्षमता कम हुई है। इसका मतलब है कि एक तरफ तो सीधे मुकाबले वाले राज्यों में कांग्रेस को बीजेपी के तूफान से खुद निपटना होगा और दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों से मुकाबले वाले राज्यों में ये दुआ करनी होगी कि उसके सहयोगी दल बीजेपी पर भारी पड़ें।
खतरनाक तिकड़ी
कांग्रेस और ‘इंडिया’ ब्लॉक को मोदी के नेतृत्व, हिंदुत्व-राष्ट्रवाद के आकर्षण और सरकारी योजनाओं के जाल से निपटना होगा। ‘मोदी फैक्टर’ से बचने के लिए कांग्रेस कह रही है कि वो इसे राहुल बनाम मोदी नहीं दिखाना चाहती है।
इंडिया ब्लॉक ये कह रहा है कि उसकी तरफ से पीएम दावेदार कौन होगा, ये चुनाव के बाद तय होगा तो इस रणनीति के पीछे भी ‘मोदी फैक्टर’ को कुंद करने की चाल है। लेकिन विपक्ष में कई नेताओं को अब भी डर है बीजेपी न्याय यात्रा को ‘मोदी बनाम राहुल -3’ के तौर पर पेश करेगी।
रोटी-रोजी पर फोकस, पर क्या चल पाएगा दांव?
‘इंडिया’ ब्लॉक के नेताओं को लगता है कि चुनाव को “मोदी बनाम कौन” और धार्मिक मुद्दों से हटाकर रोजमर्रा की समस्याओं पर लाना सबसे अच्छा तरीका है। लेकिन ज़्यादातर पार्टियां एक ही राज्य में मजबूत हैं, वो पूरे देश में कांग्रेस की मदद नहीं कर सकतीं और बीजेपी के सीधे मुकाबले में उसका साथ नहीं दे सकतीं। पिछले चुनावों ने ये भी दिखाया कि ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ की होड़ भी बीजेपी के धार को कुंद नहीं कर सकतीं।
इंडिया ब्लॉक के नेताओं को मोदी के दो दांव – ‘वंशवादी राजनीति’ और ‘भ्रष्टाचार’ के जवाब देने में भी मुश्किल हो रही है। जब एक मंच पर ज़्यादातर नेता अपने परिवार के साथ नज़र आते हैं, तो ब्लॉक ‘कंगारू की कतार’ जैसा लगता है और जब उनमें से कई ज़मानत पर रिहा हैं या भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच का सामना कर रहे हैं, तो इससे उनकी छवि को धक्का लगता है।
अभी तक ‘इंडिया’ ब्लॉक के पास कोई ऐसा सकारात्मक और विश्वसनीय नैरेटिव नहीं है जो उन मतदाताओं को लुभा सके जिन्हें फ्लोटिंग माना जाता है। यानी ऐसे वोटर जो चुनाव आने तक तय नहीं कर पाते कि उन्हें किसे वोट देना चाहिए। राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं होता, इसलिए कांग्रेस और ‘इंडिया’ ब्लॉक मोदी सरकार के कामकाज के कमजोर पहलुओं को उठा रहे हैं, इस उम्मीद में कि मतदाता बदलाव चाहते हैं। वो इतिहास का हवाला दे रहे हैं कि नेहरू के अलावा किसी केंद्र सरकार को लगातार तीन चुनाव जीत नहीं मिली। इंडिया ब्लॉक तो चमत्कार के लिए प्राथर्ना कर रहा है।
Compiled: up18 News
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