₹38 करोड़ की बसें, 5 महीने से धूल फांक रही हैं: आगरा में ‘विकास’ की रफ्तार, पर ‘जंग’ की मार

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आगरा: क्या आपने कभी सुना है कि किसी के घर में शादी के लिए दहेज का सामान आ गया हो, लेकिन बारात आने से पहले ही वो सामान खराब होने लगा हो? नहीं? तो आगरा आइए। यहां ‘विकास’ की एक ऐसी ही कहानी लिखी जा रही है, जहां 38 करोड़ रुपये की 38 बसें पिछले 5 महीने से धूल फांक रही हैं।

कहानी कुछ ऐसी है कि आगरा को फरवरी 2025 में 38 इलेक्ट्रिक बसें मिलीं। क्यों मिलीं? जवाब है, ‘पर्यावरण संरक्षण और यात्रियों की सुविधा के लिए’। लेकिन न तो पर्यावरण को कोई लाभ मिल रहा है और न ही यात्री इन बसों का सुख उठा पा रहे हैं। तो सवाल उठता है कि जब इन्हें चलाने की तैयारी ही नहीं थी, तो इतनी जल्दबाज़ी क्यों थी? क्या सरकार को लगा था कि बसें अपने आप चार्ज हो जाएंगी, या फिर ‘अच्छे दिन’ का इंतज़ार कर रही थीं?

जब आप इन बसों को देखेंगे तो आपको लगेगा कि ये किसी बस डिपो में नहीं, बल्कि किसी कबाड़खाने में खड़ी हैं। ये बसें आगरा फोर्ट डिपो में खुले में खड़ी हैं। बारिश में कुछ पर जंग लगनी शुरू हो गई है। कुछ शरारती तत्वों ने दरवाज़े खींचकर खोलने की कोशिश की, जिससे दरवाज़ों में दरार आ गई है।

क्या यही ‘आधुनिक’ बसों का हाल है? और क्या ये आधुनिक बसें इतनी कमज़ोर हैं कि इन्हें बारिश से बचाना पड़ता है?

अगर यही हाल रहा, तो कुछ महीनों में इन बसों की कीमत 1 करोड़ से घटकर 10 लाख भी नहीं रह जाएगी। और तब एक नई रिपोर्ट आएगी, ‘आगरा में 38 करोड़ की बसें कबाड़ हो गईं, जांच जारी है!’।

‘चार्जिंग’ का इंतज़ार, ‘स्ट्रांग रूम’ का काम

अब आप सोचेंगे कि आखिर इन बसों को चलाने में दिक्कत क्या है? दिक्कत है चार्जिंग स्टेशन की। 38 बसों के लिए 8 चार्जिंग पॉइंट बनकर तैयार हैं, लेकिन उन्हें बिजली नहीं मिल रही। बिजली क्यों नहीं मिल रही? क्योंकि बिजली की सप्लाई के लिए ‘स्ट्रांग रूम’ का सिविल वर्क चल रहा है।
आप कह सकते हैं कि ‘स्ट्रांग रूम’ बन रहा है, अच्छी बात है। लेकिन यह ‘स्ट्रांग रूम’ 5 महीनों से क्यों बन रहा है? क्या ये किसी ‘अमृत काल’ में बनेगा?

इस ‘स्ट्रांग रूम’ के लिए 11,000 किलोवाट की एक भूमिगत लाइन डाली जाएगी। इस प्रक्रिया में एक महीने से ज़्यादा का समय लगेगा। यानी, अगर सब कुछ ठीक रहा, तो अगले महीने से काम शुरू होगा और उसके अगले महीने से शायद ये बसें चलें। लेकिन यह तो सिर्फ़ ‘शायद’ है।

क्षेत्रीय प्रबंधक की ‘आशा’

जब हमने इस बारे में क्षेत्रीय प्रबंधक, यूपी रोडवेज, बीपी अग्रवाल से पूछा, तो उन्होंने बहुत ही आशावादी जवाब दिया। उन्होंने कहा, “चार्जिंग स्टेशन का काम चल रहा है। इसमें कुछ समय लग गया है, जिसकी वजह से इलेक्ट्रिक बसों के संचालन में देरी हो रही है। जल्द ही ये बसें रूट पर दिखाई देंगी।”

क्या यह जवाब आपको किसी और सवाल की याद दिलाता है? जैसे, ‘महंगाई कब कम होगी?’, ‘बेरोज़गारी कब खत्म होगी?’ या ’15 लाख रुपये कब मिलेंगे?’

योजनाएं’ कागज़ों पर, ‘बजट’ ज़मीन पर

आगरा को 100 इलेक्ट्रिक बसों का प्रस्ताव दिया गया था, लेकिन मिली सिर्फ 38। ऐसा लगता है कि सरकार ने सोचा होगा, ‘पहले 38 ही देख लो, अगर इन्हें चला पाए तो बाकी की भी मिल जाएंगी।’

ये बसें नोएडा, मथुरा, फिरोजाबाद, मैनपुरी जैसे ज़िलों में चलनी हैं। लेकिन जब डिपो में ही चार्जिंग की व्यवस्था नहीं है, तो क्या इन ज़िलों में व्यवस्था होगी? या वहां भी बसों को धूल फांकने के लिए छोड़ दिया जाएगा?

क्या यही है ‘आधुनिक भारत’? जहां योजनाएं कागज़ों पर बनती हैं, बजट ज़मीन पर आता है, और फिर दोनों एक दूसरे को ढूंढते रह जाते हैं। क्या ये बसें ‘आत्मनिर्भर’ नहीं हो सकतीं?

यह सब देखते हुए, एक सवाल ज़हन में आता है: क्या ये बसें सिर्फ ‘दिखावे’ के लिए खरीदी गई हैं? या फिर ये उस ‘इंतज़ार’ का हिस्सा हैं, जो ‘अच्छे दिन’ आने पर खत्म होगा?

मुझे लगता है कि इन बसों को ‘विकास’ की धीमी गति का एक ‘जीवंत’ उदाहरण मानकर, इनकी पूजा करनी चाहिए। कम से कम जब तक ये चल नहीं पातीं।

क्या कहते हैं?

-मोहम्मद शाहिद की कलम से