असम सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि अगले माह यानी नवंबर में वो राज्य में राज्य संचालित सभी मदरसों और संस्कृत टोल्स या संस्कृत केंद्रों को बंद करने संबंधी एक अधिसूचना लाने जा रही है।इस फैसले के अंतर्गत असम सरकार द्वारा संचालित या फिर यूँ कहा जाए, सरकार द्वारा फंडेड मदरसों और टोल्स को अगले पाँच महीनों के भीतर नियमित स्कूलों के रूप में पुनर्गठित किया जाएगा। यह फैसला सरकार द्वारा लिए जाने का कारण स्पष्ट करते हुए असम के शिक्षा मंत्री ने कहा कि, “एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का काम धार्मिक शिक्षा प्रदान करना नहीं है। हम धार्मिक शिक्षा के लिए सरकारी फण्ड खर्च नहीं कर सकते।” इसके अलावा उन्होंने कहा कि अब वो आधुनिक शिक्षा को बढ़ावा देगी इसलिए मदरसा बोर्ड को भंग कर संस्थानों के शिक्षाविद माध्यमिक शिक्षा बोर्ड को सौंप दिए जाएंगे। प्रदेश में चलने वाले प्राइवेट मदरसों के बारे में उन्होंने स्पष्ट किया कि वे चलते रहेंगे। असम सरकार की इस घोषणा के साथ ही इसका व्यापक विरोध और राजनीति शुरू हो गई है।
इसे क्या कहा जाए कि इस देश की राजनीति कभी निज स्वार्थ से ऊपर उठ ही नहीं पाई। हमारे राजनेता स्वार्थ की राजनीति से ऊपर उठ कर सोच ही नहीं पाते या सोचना नहीं चाहते।
राजनीति से इतर अगर बात की जाए तो मदरसा दरअसल किसी भी प्रकार के शैक्षणिक संस्थान के लिए प्रयुक्त अरबी शब्द है। अतः मदरसों की बात करने से पहले शिक्षा की बात कर लेते हैं। संविधान निर्माता डॉ भीमराव अंबेडकर कहते थे कि जो बालक एवं मनुष्य के शरीर मन और आत्मा का सर्वांगीण और सर्वोत्कृष्ट विकास करे वो ही शिक्षा है। राष्ट्रीय शिक्षा आयोग 1964-66 के अनुसार शिक्षा राष्ट्र के आर्थिक एवं सामाजिक विकास को शक्तिशाली साधन है। वहीं नई शिक्षा नीति में आज की आवश्यकताओं के अनुरूप हमारे युवाओं की क्रिएटिविटी और इन्नोवेशन को बढ़ाते हुए उनमें कौशल विकास पर विशेष बल दिया गया है ताकि अधिक से अधिक युवा आत्मनिर्भर बनकर राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान दें।
अब अगर मदरसों की बात की जाए तो सत्य तो यह है कि सरकार से ज्यादा मदरसे चलाने वालों को खुद मदरसों की शिक्षा व्यवस्था पर विचार करने की बेहद आवश्यकता है। हाल ही में जियाउस्सलाम और डॉ एम असलम परवेज़ की किताब “मदरसाज इन द ऐज ऑफ इस्लामोफोबिया ” प्रकाशित हुई है जिसमें बताया गया है कि वर्तमान में किस प्रकार मदरसे मुश्किल दौर से गुज़र रहे हैं और विभिन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। उनके अनुसार वहाँ पढ़ाई जाने वाली फ़िक़्ह (इस्लामिक विधि) की शैली भाषा और उदाहरण प्राचीनकालीन हो चुके हैं। इनके अनुसार ज्यादातर मदरसे दर्से निज़ामी की तालीम देते हैं जिसका निर्धारण कोई 300 साल पहले किया गया था। इसमें आधुनिक विचारों का समावेश नाम मात्र नहीं मिलता। लेखकों के अनुसार परिणामस्वरूप 2019 या 2020 में मदरसों का पाठ्यक्रम वही है जो 1870 में था। बात इतनी ही नहीं है बल्कि बात यह भी है कि इन मदरसों से निकले ज्यादातर ग्रेजुएट स्तर के विद्यार्थियों को कहीं ढंग का रोजगार भी नहीं मिलता।
सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में मुसलमानों को उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा उपलब्ध कराना एवं मदरसों के आधुनिकीकरण की सिफारिश की थी। वहीं कुछ समय पहले शिया वक्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष वसीम रिजवी ने भी प्रधानमंत्री मोदी को चिट्ठी लिखकर कहा था कि मदरसों में शिक्षित युवा रोज़गार के मोर्चे पर अनुत्पादक होते हैं क्योंकि उनकी डिग्रियां सभी जगह मान्य नहीं होतीं। इसलिए उन्होंने मांग की थी कि मदरसे खत्म करके कॉमन एडुकेशन पालिसी लागू करनी चाहिए। तथ्य यह भी हैं कि एक रिसर्च में यह बात सामने आई थी कि मदरसों से शिक्षा लेने वाले युवाओं में से मात्र 2% युवा ही उच्च शिक्षा में रुचि रखते हैं, 42% भविष्य में इस्लाम का ही प्रचार करना चाहते हैं, 16% मदरसों में ही शिक्षक बनना चाहते हैं, 8% इस्लाम की सेवा करना चाहते हैं, 30% समाज सेवा और 2% धर्मगुरु बनना चाहते हैं। यानी विज्ञान तकनीक अथवा अनुसंधान के प्रति रुचि का तो प्रश्न ही नहीं। अगर यह कहा जाए कि इन परिस्थितियों के लिए हमारे देश के राजनैतिक दल दोषी हैं तो गलत नहीं होगा। विगत 70 सालों से इस देश का मुसलमान इन दलों के लिए केवल वोट बैंक बना रहा और इनकी शिक्षा जिसे इनकी उन्नति की राहें खुलतीं तुष्टिकरण की राजनीति की भेंट चढ़ा दी गई। राष्ट्रीय सांख्यकीय विभाग द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार भारत में केवल 48% मुसलमान बच्चे बारवीं तक की शिक्षा ले पाते हैं और मात्र 14% बारवीं से आगे की शिक्षा। इन परिस्थितियों में अगर देश का एक राज्य मदरसों की सदियों पुरानी व्यवस्था से इतर मुख्यधारा की आधुनिक शिक्षा की नींव रखने की पहल करता है तो राज्य सरकार के इस कदम को राजनैतिक चश्मे से देखने के बजाए खुले एवं व्यापक दृष्टिकोण से देखना चाहिए।
– डॉ नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)