स्वामी सहजानंद सरस्वती को संन्यास के बाद काशी में ही चुनौती मिली थी। उन्होंने शास्त्रार्थ के बल पर यह सिद्ध किया कि योग्यता के आधार पर किसी को भी संन्यास लेने की छूट है। उन्होंने देश की राजनीति को अपने तेवर से झकझोर दिया था। स्वामी सहजानंद को भारत में किसान आंदोलन के जनक थे।
काशी विद्यापीठ के प्रो. अजीत कुमार शुक्ला ने बताया कि जमींदारी प्रथा के खिलाफ लड़ते हुए स्वामी जी 25 जून ,1950 को मुजफ्फरपुर में महाप्रयाण कर गए। आजादी मिलने के साथ ही सरकार ने कानून बनाकर जमींदारी राज को खत्म कर दिया। आदि शंकराचार्य संप्रदाय के दशनामी संन्यासी अखाड़े के दंडी संन्यासी थे। स्वामीजी के बचपन का नाम नौरंग राय था। उनके पिता बेनी राय सामान्य किसान थे। मेधावी नौरंग राय ने मिडिल परीक्षा में पूरे उत्तर प्रदेश में छठा स्थान प्राप्त किया। सरकार ने छात्रवृत्ति दी। पढ़ाई के दौरान ही उनका मन अध्यात्म में रमने लगा।
घरवालों ने बच्चे की स्थिति भांप कर शादी करा दी। संयोग ऐसा रहा कि पत्नी एक साल बाद ही चल बसीं। परिजनों ने दूसरी शादी की बात निकाली तो वे भाग कर काशी चले आए। काशी में आदि शंकराचार्य की परंपरा के स्वामी अच्युतानन्द से दीक्षा लेकर संन्यासी बन गए। बाद के दो वर्ष उन्होंने तीर्थों के भ्रमण और गुरु की खोज में बिताया। 1909 में पुन: काशी पहुंचकर दंडी स्वामी अद्वैतानंद से दीक्षा ग्रहणकर दंड प्राप्त किया और दंडी स्वामी सहजानंद सरस्वती बने।
इसी दौरान उन्हें काशी में समाज की एक और कड़वी सच्चाई से सामना हुआ। दरअसल काशी के कुछ पंडितों ने उनके संन्यास पर सवाल उठा दिया। उनका कहना था कि ब्राह्मणेतर जातियों को दंड धारण करने का अधिकार नहीं है।
स्वामी सहजानंद ने इसे चुनौती के तौर पर लिया और विभिन्न मंचों पर शास्त्रार्थ कर ये प्रमाणित किया कि हर योग्य व्यक्ति संन्यास ग्रहण करने की पात्रता रखता है।
काफी शोध के बाद उन्होंने भूमिहार-ब्राह्मण परिचय नामक ग्रंथ लिखा जो आगे चलकर ब्रह्मर्षि वंश विस्तर के नाम से सामने आया। संन्यास के उपरांत उन्होंने काशी और दरभंगा में कई वर्षो तक संस्कृत साहित्य, व्याकरण, न्याय और मीमांसा का गहन अध्ययन किया। साथ-साथ देश की सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों का अध्ययन भी करते रहे।
-एजेंसी
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