पत्रकारों को धोखे में रखना यूं तो हर सरकार की कार्यप्रणाली का हिस्सा रहा है लेकिन कोरोना काल में जान गंवाने वाले पत्रकारों के परिजनों से जिस तरह सरकार एक भद्दा मजाक कर रही है, वह अपने आप में अनोखा होने के साथ-साथ आश्चर्यजनक भी है
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले दिनों कोरोना काल में संक्रमण से मारे गए पत्रकारों के परिजनों को 10 लाख रुपए की आर्थिक सहायता देने का ऐलान किया था।
इसी संदर्भ में निदेशक सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ‘शिशिर’ के हस्ताक्षर से 01 जून 2021 को एक पत्र जारी किया गया, जिसके अनुसार दिवंगत पत्रकारों के आश्रितों को सरकार से आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए विभाग को कुछ साक्ष्यों के साथ दो प्रतियों में अपना सहमति पत्र उपलब्ध कराना होगा।
देखें सूचना एवं जनसंपर्क विभाग का ये पत्र
इस पत्र में सबसे पहले ‘मान्यता प्राप्त’ पत्रकारों की बात की गई है जबकि प्रदेश ही नहीं देशभर में मान्यता प्राप्त पत्रकारों की संख्या ‘नगण्य’ है क्योंकि किसी भी पत्रकार को मान्यता दिलाना अखबार के मालिकों की मर्जी पर निर्भर होता है।
अखबार के मालिक अपने यहां कार्यरत पत्रकारों को खुद भी मान्यता क्यों नहीं देते और क्यों शासन से मान्यता नहीं दिलाते, इसके पीछे छिपे कारणों से समूचा मीडिया जगत भलीभांति परिचित है इसलिए इसके बारे में ज्यादा कुछ बताने की जरूरत नहीं रह जाती।
सूचना विभाग के पत्र की दूसरी शर्त के क्रम संख्या 1 पर गौर करें, जिसके अनुसार कोरोना से मारे गए ‘गैर मान्यता प्राप्त’ पत्रकार के आश्रितों को सरकार से आर्थिक मदद पाने के लिए उन्हें विभाग के सामने संस्थान से निर्गत प्रेस कार्ड एवं नियुक्ति पत्र प्रस्तुत करना होगा।
क्रम संख्या 2 की शर्त पूरी करने के लिए संस्थान द्वारा पीएफ/ईपीएफ की कटौती के साक्ष्य देने होंगे।
क्रम संख्या 3 के मुताबिक मृत पत्रकार के आश्रितों को मुख्य चिकित्सा अधिकारी द्वारा प्रति हस्ताक्षरित कोविड-19 से मृत्यु होने का प्रमाणपत्र संलग्न करना होगा।
क्रम संख्या 4 में न्यूज़ चैनल्स से संबद्ध पत्रकारों का जिक्र करते हुए उनके आश्रितों लिए बहुत ही अजीबो-गरीब शर्तें रखी गई हैं।
क्रम संख्या पांच में कहा गया है कि संबंधित पत्रकार का विवरण ‘पहले से ही’ सूचना कार्यालय में अंकित रहा हो जिससे यह साबित हो सके कि कोरोना का शिकार हुआ पत्रकार संबंधित संस्थान में कार्यरत था।
क्रम संख्या 6 में स्पष्ट है कि ये सारी शर्तें पूरी करने के बाद मृत पत्रकार के परिजनों में से किसे ये आर्थिक सहायता दी जाएगी।
अब जानिए कि किस तरह ये ‘शर्तनामा’ सिर्फ एक धोखा है
सबसे पहले बात उन पत्रकारों की जो सूचना विभाग द्वारा रखी गई शर्तों में से किसी शर्त को पूरा नहीं करते, लेकिन नामचीन मीडिया संस्थानों के लिए बाकायदा कार्य करते हैं।
सूचना एवं जनसंपर्क विभाग बहुत अच्छी तरह इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ है कि प्रत्येक प्रिंट मीडिया संस्थान अपने यहां कार्यरत स्टाफ में से पांच प्रतिशत स्टाफ को भी शासकीय मान्यता नहीं दिलवाता।
ऐसे में मान्यता प्राप्त पत्रकारों की संख्या वास्तविक पत्रकारों की संख्या से कितनी कम होगी, यह प्रश्न स्वत: विचारणीय बन जाता है।
इसी प्रकार कोई भी प्रिंट मीडिया संस्थान दस प्रतिशत स्टाफ को भी अपना कर्मचारी नहीं मानता इसलिए वह उसे न तो कोई प्रेस कार्ड मुहैया कराता है और न नियुक्ति पत्र देता है। इन्हें मिलता है तो बहुत मामूली सा मानदेय।
ये मानदेय कस्बा स्तर पर काम करने वालों के लिए तो इतना मामूली होता है कि उसके बारे में बात तक करना शर्मनाक है।
जाहिर है कि प्रेस कार्ड और नियुक्ति पत्र जारी न करने की स्थिति में वह उन कर्मचारियों का पीएफ/ईपीएफ क्यों काटेगा और क्यों उनका कोई वेतन निर्धारित करेगा। जब ये सब होगा ही नहीं तो कैसे कोरोना वॉरियर्स और कैसी सरकारी आर्थिक सहायता।
प्रिंट मीडिया संस्थानों के मालिकों की ताकत का अंदाज इस बात से भी लगाया जा सकता है कि पत्रकारों के वेतन-भत्ते निर्धारित करने की कोशिश में अब तक दिवतिया आयोग, शिंदे आयोग, पालेकर आयोग, बछावत आयोग, मणिसाना आयोग और उसके बाद मजीठिया वेतन आयोग तक की सिफारिशें उनके सामने दम तोड़ चुकी हैं। यही नहीं, तमाम बातों का ”स्वत: संज्ञान” लेने वाला सर्वोच्च न्यायालय भी इस मामले में तमाशबीन बना बैठा है।
धूल फांक रहे हैं सर्चोच्च न्यायालय के आदेश-निर्देश
सुप्रीम कोर्ट ने 7 फरवरी 2014 को अखबारों एवं समाचार एजेंसियों को मजीठिया आयोग की सिफारिशें लागू करने का आदेश दिया और कहा कि वे अपने कर्मचारियों को संशोधित पे-स्केल के हिसाब से भुगतान करें।
न्यायालय के आदेश के अनुसार यह वेतन आयोग 11 नवंबर 2011 से लागू होना था, जब इसे सरकार ने पेश किया था। साथ ही 11 नवंबर 2011 से मार्च 2014 के बीच बकाया वेतन भी पत्रकारों को एक साल के अंदर चार बराबर किस्तों में दिया जाना था।
आयोग की सिफारिशों के अनुसार अप्रैल 2014 से नया वेतन लागू होना चाहिए था। तत्कालीन चीफ जस्टिस पी. सतशिवम और जस्टिस रंजन गोगोई तथा जस्टिस एसके सिंह की बेंच ने इस आयोग की सिफारिशों को चुनौती देने वाली याचिकाएं खारिज कर दीं।
बेंच ने आयोग की सिफारिशों को वैध ठहराया और कहा कि सिफारिशें उचित विचार-विमर्श पर आधारित हैं इसलिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत इसमें हस्तक्षेप करने का कोई वैध आधार नहीं है।
तमाम अखबारों के प्रबंधन मजीठिया आयोग के विधान, काम के तरीके, प्रक्रियाओं और सिफारिशों से नाखुश थे। इनका मानना था कि अगर इन सिफारिशों को पूरी तरह माना गया तो वेतन में एकदम से 80 से 100 फीसदी तक इजाफा करना पड़ सकता है। हालांकि सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने अखबार मालिकों की इस दलील को कोई तवज्जो नहीं दी लेकिन कहा कि यह केंद्र सरकार का विशेषाधिकार है कि वह सिफारिशों को मंजूर करे या खारिज़ कर दे। कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर सरकार ने कुछ सिफारिशें मंजूर नहीं कीं तो यह पूरी रिपोर्ट को खारिज़ करने का आधार नहीं है।
इसके बाद मीडिया संस्थानों की रिव्यू पिटीशन भी सुप्रीम कोर्ट ने खारिज़ कर दी। इतना सब होने पर भी अखबार मालिकों के सामने पत्रकार एवं सरकार दोनों असहाय हैं, नतीजतन पत्रकारों की स्थिति जस की तस बनी हुई है और 6 साल से सुप्रीम कोर्ट के आदेश-निर्देश भी धूल फांक रहे हैं।
बड़े मीडिया संस्थानों की कारगुजारी
दैनिक जागरण, राजस्थान पत्रिका, दैनिक भास्कर, हिन्दुस्तान व अन्य बड़े अखबारों के प्रबंधन ने अपने कर्मचारियों से एक फॉर्म पर अपने पक्ष में इस आशय के हस्ताक्षर ले लिए कि उन्हें मजीठिया आयोग की सिफारिशें नहीं चाहिए। वे कंपनी प्रदत्त वेतन एवं सुविधाओं से संतुष्ट हैं। कंपनी उनकी सुख-सुविधा का ध्यान रखती है। समय से उन्हें प्रमोशन मिलता है, अच्छा इंक्रीमेंट लगता है, बच्चे अगर हैं तो उनकी पढ़ाई-लिखाई, स्वास्थ्य-चिकित्सा, उनकी बेहतरी का पूरा ख्याल कंपनी रखती है।
कोर्ट में जाने वाले पत्रकारों का शोषण, कंपनी को छोटी यूनिटों में बांटना, कम आय दिखाना, कर्मचारियों से कांट्रैक्ट साइन करवाना आदि ऐसे तमाम हथकंडे मीडिया संस्थानों के पास हैं जिनसे वो अपने स्टाफ को अपने इशारों पर नचाने में सफल रहते हैं।
बेशक, मीडिया संस्थानों द्वारा किए जा रहे इस शोषण की पीछे एक बड़ा कारण है पत्रकारों में एकजुटता की कमी और सैकड़ों पत्रकार यूनियनों के वो ‘कारनामे’ जिन्हें उनके पदाधिकारी अंजाम देते हैं।
सच तो यह है कि पत्रकारों के नेता कई मायनों में राजनेताओं से भी बड़े खिलाड़ी हैं और अपने खोखले दावों से सत्ता के गलियारों में गहरी पैठ बनाकर अपना उल्लू सीधा करते रहते हैं।
जहां तक सवाल इलैक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़े पत्रकारों के परिजनों को आर्थिक सहायता के लिए रखी गई शर्तों का है तो क्या सूचना विभाग नहीं जानता कि जिला स्तर पर काम करने वाले इन पत्रकारों को जिन्हें स्ट्रिंगर कहा जाता है, उन्हें चैनल मालिक कुछ नहीं देते।
कई चैनल तो इन्हें अपना ‘लोगो’ पकड़ाने के नाम पर उल्टा इनसे लेते हैं, देना तो दूर की बात। यही कारण है कि वो इनके लिए कोई ऐसी औपचारिकता पूरी नहीं कर सकते जिससे आगे किसी मुसीबत में पड़ सकें।
चूंकि प्रिंट मीडिया के अलावा दूसरे मीडिया संस्थानों को अब तक प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया के दायरे में लाया ही नहीं गया है तो ये वैसे भी प्रेस परिषद के नियम-कानून फॉलो करने को बाध्य नहीं हैं।
हां, कहने के लिए इलैक्ट्रॉनिक मीडिया ने News Broadcasting Standards Authority नामक एक गवर्निंग बॉडी बना रखी है किंतु हाल ही में कुछ टीवी चैनल्स के बीच हुए विवाद के बाद इस बॉडी की भी असलियत सामने आ चुकी है, साथ ही ये भी पता चल चुका है कि प्रभावशाली चैनल इस बॉडी के नियमों को कितना मानते हैं और टीआरपी के खेल के लिए वो किस तरह इसका दुरुपयोग करते हैं।
ताकतवर लॉबी होने के कारण सरकार के कायदे-कानून भी इनका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण है कानून बन जाने के बाद भी टीवी पर शत-प्रतिशत झूठे विज्ञापनों का प्रसारण न रुक पाना और उनके लिए ब्रेक का अधिकतम समय निर्धारित कर दिए जाने के बावजूद उसका अनुपालन न करना।
सबसे अंत में बात “वेब मीडिया” की
अगर बात करें वेब मीडिया की तो उसे सरकार किस श्रेणी में रखना चाहती है, शायद सरकार को भी नहीं पता। इसका एक उदाहरण तो है सूचना विभाग द्वारा कोरोना से मृत पत्रकारों के परिवारों को आर्थिक मदद के लिए भेजा गया ”शर्तनामा” जिसमें वेब मीडिया से जुड़े पत्रकारों का नाम तक नहीं है, और दूसरा उदाहरण है केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्रालय से वेब मीडिया प्रकाशकों को भेजे गए नए आईटी नियमों की वो फेहरिस्त जिन्हें मानने के लिए सभी वेब साइट्स को एक फॉर्म भरकर भेजने पर बाध्य किया जा रहा है।
हालांकि, नए आईटी कानूनों से अधिकांश वेबसाइट्स इत्तेफाक रखती हैं लेकिन परेशानी यह है कि यदि सरकार उन्हें मीडिया के दायरे से बाहर रखकर ऐसा कराना चाहती है तो कैसे संभव है।
आज जबकि सभी बड़े मीडिया संस्थान वेबसाइट प्रकाशक भी हैं, और सरकार भी उन्हें नए आईटी नियमों के दायरे में लाना चाहती है तो फिर उनमें कार्यरत पत्रकारों को पत्रकार मानने से इंकार कैसे किया जा सकता है।
आज की स्थिति और सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के पत्र को देखकर तो यही लगता है कि ऊपर से नीचे तक सारा सरकारी अमला पत्रकारों के साथ एक भद्दा मजाक करने पर आमादा है। एक ऐसा मजाक जिसके परिणाम आगे चलकर बहुत गंभीर हो सकते हैं।
बेहतर होगा कि सरकार और सरकारी विभाग समय रहते यह तय कर लें कि वो किसे पत्रकार मानेंगे और किसे नहीं। वो मीडिया संस्थानों के इशारों पर नाचेंगे अथवा सख्ती के साथ इस क्षेत्र में भी उन नियमों का अनुपालन कराएंगे, जो न सिर्फ समय की मांग हैं बल्कि सबके हित में जरूरी भी हैं।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
साभार- लीजेंड न्यूज़