इस वर्ष तुलसी विवाह की अवधि कार्तिक शुक्ल द्वादशी (15 नवंबर) से कार्तिक पूर्णिमा (19 नवंबर) तक है। इस अवसर पर तुलसी विवाह मनाने की विधि, इस पर्व की विशेषताएं, तुलसी दर्शन का महत्व, तुलसी के आध्यात्मिक विशेषताएं, हर वर्ष श्रीकृष्ण के साथ तुलसी विवाह करने की कथा, भगवान को प्रसाद चढ़ाते समय तुलसी के पत्ते का उपयोग क्यों करें? सनातन संस्था द्वारा संकलित इस लेख में इसके बारे में वैज्ञानिक/शास्त्रीय जानकारी के साथ-साथ आपात स्थिति में तुलसी विवाह मनाने के उपयोगी सूत्र और दृष्टिकोण दे रहे हैं।
तिथि – यह अनुष्ठान कार्तिक शुक्ल द्वादशी से पूर्णिमा तक एक दिन किया जाता है।
पूजा – तुलसी के साथ भगवान विष्णु (बालकृष्ण की मूर्ति) का विवाह करवाना यह तुलसी विवाह की विधि है। पहले बाल विवाह की प्रथा थी। विवाह की पूर्व संध्या पर तुलसी वृंदावन को रंग कर सजाया जाता है. वृंदावन में गन्ने, गेंदे के फूल लगाए जाते हैं और जड़ों पर इमली और आंवला रखा जाता है। यह विवाह शाम को किया जाता है।
विशेषताएं – तुलसी विवाह के बाद चातुर्मास में लिए गए सभी व्रतों की समाप्ति करते है। चातुर्मास में वर्जित भोजन ब्राह्मणों को दान दिया जाता है और फिर स्वयं सेवन किया जाता है।
लक्ष्मी को तुलसी के रूप में और भगवान विष्णु को भगवान कृष्ण के रूप में पूजा जाता है। विष्णु और लक्ष्मी दोनों तत्वों का अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए शाम को तुलसी-विवाह मनाया जाता है। तुलसी विवाह के समय श्री विष्णु-लक्ष्मी के दो तत्वों का आगमन और संयोग होता है। वातावरण में इस सात्त्विकता का लाभ प्राप्त करने के लिए तुलसी-विवाह समय से (मुहूर्त काल में ) करना चाहिए।
तुलसी दर्शन का महत्व – एक संकेत है कि हर हिंदू के घर में तुलसी होनी चाहिए। ऐसा कहा गया है कि, “सभी को सुबह और शाम तुलसी के दर्शन करने चाहिए।” इस तुलसी दर्शन का मंत्र इस प्रकार है।
तुलसी श्रीसखी शुभे पापहरिणी पुण्यदे।
नमस्ते नारदनुते नारायणमन: प्रिये। – तुलसीस्तोत्रा, श्लोक 15
अर्थ: हे तुलसी, आप लक्ष्मी की मित्र शुभदा, पापहरिणी और पुण्यदा हैं। नारद जी ने जिनकी प्रशंसा की है, जो नारायण को प्रिय है, ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूं।
तुलसी के आध्यात्मिक विशेषताएं – पापनाशक : तुलसी के दर्शन, स्पर्श, ध्यान, प्रणाम, पूजा, रोपण और सेवन से युगोयुगों के पापों का नाश होता है। पवित्रता : तुलसी के बगीचे के चारों ओर की पूरी भूमि गंगा के समान पवित्र हो जाती है। इस संदर्भ में स्कंद पुराण (वैष्णव खंड, अध्याय 8, श्लोक 13) में कहा गया है।
तुलसीकाननं चैव गृहे यस्यवतिष्ठते।
तद गृहं तीर्थभूतं हि नायान्ति यमकिंड्करा:।।
अर्थ: जिस घर में तुलसी का बगीचा हो वह तीर्थ के समान पवित्र होता है। उस घर में यमदूत नहीं आते। ‘तुलसी के पौधे में जड़ से लेकर सिरे तक सभी देवता निवास करते हैं’, ऐसा कहा गया है।
भगवान विष्णु को परमप्रिय होना : तुलसी वृंदावन में रहती है। वह भगवान विष्णु को बहुत प्रिय हैं। तुलसी के बिना भगवान विष्णु की पूजा करना व्यर्थ है। पद्म पुराण में कहा गया है कि भगवान विष्णु को सोने, रत्न और मोतियों के फूल चढ़ाए जाएं तो भी वे तुलसीदल की 16वीं कला से कम ही है । भगवान विष्णु तुलसी के पत्ते रखने से या तुलसी के दल से प्रोक्षण करने पर ही प्रसाद ग्रहण करते हैं। कार्तिक मास में तुलसी दल द्वारा की जाने वाली विष्णु पूजा की महिमा विशेष है। भगवान विष्णु, भगवान कृष्ण या पांडुरंग के गले में तुलसी की माला पहनाते हैं। – संदर्भ: ‘भारतीय संस्कृतिकोष’, खंड 4, पृष्ठ संख्या 155
हर साल भगवान कृष्ण के साथ तुलसी के विवाह करने की कहानी ! – देवता जालंधर राक्षस के साथ युद्ध में थे। उस जालंधर की वृंदा नाम की पत्नी पतिव्रता थी। पतिव्रता होने के कारण जालंधर राक्षस का वध देवताओं द्वारा नहीं हो पा रहा था। भगवान विष्णु ने जालंधर का रूप धारण कर वृंदा का पातिव्रत्य को भंग कर दिया। उसी समय, भगवान विष्णु ने वृंदा की पातिव्रत्य से प्रसन्न होकर उसे वर दिया, ‘वृंदा, तुम तुलसी बनोगी और सभी को वंदनीय बनोगी। भक्त आपकी तुलसीपत्र से मेरी पूजा करेंगे। साथ ही प्रत्येक वर्ष कार्तिक माह में आपका विवाह मेरे साथ किया जाएगा। ‘भगवान कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं। इसलिए हर वर्ष कार्तिक शुक्ल पक्ष की द्वादशी से पूर्णिमा तक एक दिन तुलसी का विवाह भगवान श्री कृष्ण से होता है।
भगवान को भोग अर्पित करने के लिए तुलसी के पत्तों का उपयोग क्यों करें? – तुलसी वातावरण से सात्त्विकता को आकर्षित करने और उसे प्रभावी ढंग से जीव तक पहुँचाने में अग्रणी है। तुलसी में ब्रह्मांड के कृष्ण तत्व को खींचने की क्षमता अधिक है। देवता को प्रसाद चढ़ाते समय तुलसी के पत्तों का उपयोग करने से, प्रसाद शीघ्रता से देवता तक पहुंचना, सात्विक बनना संभव है।
प्रश्न: तुलसी विवाह के लिए पुजारी उपलब्ध न हों तो क्या करें
उत्तर : यदि तुलसी विवाह के लिए पुरोहित उपलब्ध नहीं हैं तो जितना हो सके भावपूर्ण पूजा करनी चाहिए। यदि इतना ही पर्याप्त न हो तो ‘श्री तुलसी देव्यै नमः’ का जाप करके तुलसी की पूजा करनी चाहिए। पूजा के बाद रामरक्षा की आगे की पंक्तियाँ बोलनी चाहिए।
‘रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः॥
रामान्नास्ति परायणम् परतरम् रामस्य दासो स्म्यहम्।
रामे चित्तलय: सदा भवतु में भो राम मामुध्दर।’
फिर बृहदस्तोत्ररत्नकार ग्रंथ की सरस्वतीस्तोत्र की आरंभ की पंक्तियाँ कहनी चाहिए।
‘या कुंन्देंन्दुतुषारहारधवला या शुभ्र वस्त्रावृता।
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासन॥
या ब्रह्मच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवै: सदा वंदिता।
सा माम पातु सरस्वती भगवती नि:शेषजाड्यापहा ।।’
इस श्लोक का पाठ करने के बाद अक्षत को तुलसी पर ‘सुमुहूर्त सावधान’ कह कर प्रवाहित करना चाहिए।
सन्दर्भ: सनातन संस्था के ग्रंथ ‘पंचोपचार और षोडशोपचार पूजन का शास्त्र’ और ‘त्योहार, धार्मिक उत्सव और व्रत’
– कु. कृतिका खत्री,
सनातन संस्था, दिल्ली
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