जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र में समाने जा रहा है दुनिया का एक पूरा का पूरा देश

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एक पल के लिए ठहरकर, अपने घर के बारे में सोचिए. अपनी जड़ों के बारे में सोचिए. उस जगह के बारे में सोचिए जिस जगह को आप दुनिया की किसी भी जगह से कहीं अधिक प्यार करते हैं.
और अगर ऐसी कोई जगह जो आपके इतने क़रीब हो अगर वो इस धरती से गायब हो जाए तो…?
ये कल्पना करना भी कितना तक़लीफ़देह है… है ना!
लेकिन इसी धरती के दर्जनों द्वीपों के लिए यह डर काल्पनिक नहीं बल्कि आने वाले समय की सच्चाई है.

जलवायु परिवर्तन के कारण समुद्र के जल स्तर में वृद्धि के कारण पहले से ही इन द्वीपों को ज़मीनी नुकसान उठाना पड़ रहा है. जलवायु परिवर्तन के कारण अब इन द्वीपों पर लोगों को पीने के पानी की किल्लत का भी सामना करना पड़ रहा है.

बीबीसी मुंडो ने प्रशांत महासागर में स्थित एक छोटे से द्वीप राष्ट्र तुवालु की मौजूदा परिस्थितियों का अध्ययन किया. तुवालु उन द्वीपीय राष्ट्रों में से एक है जिन पर जलवायु परिवर्तन का सीधा असर पड़ रहा है. एक द्वीप जो दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाले देशों से आग्रह कर रहा है कि वे ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन को कम करें.
हालांकि आग्रह के अतिरिक्त यह देश अपने सबसे बुरे वक़्त को लेकर तैयारी भी कर रहा है. सबसे बुरी स्थिति… यानी जब ये देश जलमग्न हो जाएगा.

इस देश के न्याय, संचार और विदेश मामलों के मंत्री सिमोन कोफ़े ने जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर दुनियाभर के देशों की बैठक के दौरान, COP26 में एक बेहद भावुक संदेश भेजा था. स्कॉटलैंड के ग्लासगो में हुए इस समिट में दुनियाभर के नेता शामिल हुए थे और जलवायु परिवर्तन के संकट पर चर्चा और समाधान तलाशने की कोशिश की गई थी.

अपने संदेश में सिमोन ने कहा था- हम डूब रहे हैं लेकिन बाकी सभी के साथ भी तो ऐसा ही हो रहा है.
इस संदेश के दौरान कोफ़े घुटने तक के पानी में खड़े थे. जिस जगह वह खड़े थे, उस जगह कभी सूखा इलाक़ा हुआ करता था लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण अब वहां पानी भर चुका है. अपने संदेश में उन्होंने तुवालु का ज़िक्र करते हुए कहा था कि तुवालु आज जहां है वह जलवायु संकट के गंभीर परिणामों की आहट भर है. आने वाले समय के साथ यह और गंभीर होता जाएगा और दुनिया के दूसरे देश भी इससे प्रभावित होंगे.

समुद्र का स्तर, एक संभावित ख़तरा

तुवालु में नौ छोटे द्वीप हैं. ऑस्ट्रेलिया और हवाई से यह लगभग चार हज़ार किमी दूर है. इसके निकटम पड़ोसी किरीबाती, सामोआ और फिजी हैं.

कोफ़े ने बीबीसी मुंडो से कहा कि तुवालु की समुद्र तल से ऊंचाई उतनी नहीं है. समुद्र तल से उच्चतम बिंदु चार मीटर है.
यह पूरा 26 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है, जहां क़रीब 12000 लोग रहते हैं.

किरीबाती की ही तरह और मालदीव की तरह दूसरे द्वीपों की तरह तुवालु प्रवाल भित्तियों से बना है और इसलिए ग्लोबल वॉर्मिंग का इस पर ख़ासकर गंभीर प्रभाव पड़ा है.

कोफ़े ने बीबीसी मुंडो को बताया कि जहां वे रहते हैं वहां ज़मीन की बहुत पतली परत है और कुछ जगहों पर आपको दोनों ओर समुद्र दिखाई दे सकता है. एक ओर खुला सागर और एक ओर लगून.

उन्होंने कहा, “बीते कुछ सालों में हमने अनुभव किया है कि जैसे-जैसे समुद्र का जल स्तर बढ़ा है वैसे-वैसे ज़मीन का कुछ हिस्सा भी कटता गया है.”

कोफ़े ने बताया कि तुवालु बीते कुछ समय से भयानक तेज़ चक्रवातों का और साथ ही सूखे का भी सामना कर रहा है.इसके साथ ही समुद्र के बढ़े तापमान के कारण प्रवाल भित्तियों को नुकसान पहुंचा है, जो तट के संरक्षण और मछलियों के प्रजनन के लिए महत्वपूर्ण हैं. लेकिन समस्या सिर्फ़ यही नहीं है. समुद्र और पीने के पानी पर उसका असर
कोफ़े ने बताया कि कुछ जगहों पर समुद्र का पानी जमीन के अंदर रिस रहा है और इसकी वजह से एक्वीफ़र्स प्रभावित हो रहे हैं.

उन्होंने कहा,”आमतौर पर हमें पीने का पानी बारिश से मिलता है लेकिन कुछ द्वीपों पर भूमिगत जल हासिल करने के लिए कुएं भी खोदे जाते हैं. लेकिन अब जबकि कुछ जगहों पर समुद्री जल रिस कर अंदर जा रहा है तो यह भी संभव नहीं रह गया है. ऐसे में अब पीने के पानी के लिए हम सिर्फ़ बारिश पर ही आश्रित हैं.”

ज़मीन में खारे पानी की मौजूदगी का असर कृषि पर भी हुआ है. खेती योग्य ज़मीन बेकार हो गई हैं. इस बात की गंभीरता का अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि ताइवान की सरकार तुवालु की सीमित परिस्थितियों में अन्न उत्पादन के लिए पायलट प्रोजेक्ट के तहत वित्तीय सहायता दे रही है.
कोफ़े ने बताया कि लवणता के कारण अन्न उपजाना मुश्किल हो गया है और ऐसे में धीरे-धीरे आयातित वस्तुओं पर निर्भरता बढ़ती जा रही है.

द्वीपीय देशों का संघर्ष

तुवालु जैसे द्वीप बीते 30 सालों से अधिक समय से जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में किसी ठोस वैश्विक प्रयास का आह्वान करते रहे हैं.

साल 1990 में पैसिफ़िक द्विपीय राष्ट्रों ने एंटीगुआ, बारबुडा और मालदीव के साथ मिलकर एक राजनयिक गठबंधन बनाया था. इस गठबंधन का मक़सद जलवायु परिवर्तन पर एक साझा मोर्चा बनाना था.

द एलायंस ऑफ़ स्मॉल आइलैंड कंट्रीज़ के आज 39 सदस्य हैं. इस गठबंधन ने विकासशील देशों में ग्लोबल वॉर्मिंग के गंभीर प्रभावों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

क्या है वैज्ञानिकों का कहना

यूनाइटेड नेशंस इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने इसी साल 9 अगस्त को सौंपी अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि वैश्विक स्तर पर समुद्र के जल-स्तर में वृद्धि की वार्षिक दर 1901 और 2018 के बीच तीन-गुनी हो चुकी है. जो मौजूदा वक़्त में 3.7 मिमी प्रति वर्ष है.

मानव सभ्ययता के लिए रेड अलर्ट

जलवायु परिवर्तन के जानकार और आईपीसीसी की रिपोर्ट में छोटे द्वीपों पर शोध के प्रमुख लेखक डॉ मोर्गन वाइरियू ने बीबीसी मुंडो से कहा कि “प्रशांत द्वीप क्षेत्र में स्थिति बेहद ख़राब है.”

उन्होंने कहा, “दक्षिण प्रशांत क्षेत्र में 1900 से 2018 की अवधि के बीच समुद्र के स्तर में क्षेत्रीय औसत वृद्धि 5 से 11 मिमी प्रति मापी गई.”
हालांकि, तुवालु पर अलग से कोई डेटा नहीं है.

ऐसा अनुमान है कि अगर समुद्र में एक मीटर की भी वृद्धि होती है तो इससे तटीय क्षेत्रों की जैव-विविधता सीधे तौर पर प्रभावित होगी और इसके कई गंभीर परोक्ष प्रभाव भी होंगे.
आईपीसीसी ने अपनी रिपोर्ट में यह भी कहा है कि अगर उत्सर्जन स्तर उच्च होता है तो इस संदर्भ में वर्ष 2100 तक समुद्र के स्तर में एक मीटर से अधिक की वैश्विक औसत वृद्धि हो सकती है. साथ ही अगर उत्सर्जन को नियंत्रित नहीं किया गया तो उच्चतम स्तर पर 2150 तक 5 मीटर की वृद्धि भी हो सकती है.

दूसरे विकल्प

जलवायु परिवर्तन की मौजूदा स्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता है और विश्व स्तर पर अभी भी कोई ठोस क़दम नज़र नहीं आ रहा, इन सबके बीच तुवालु और यहां के लोग अपने लिए भविष्य के विकल्प तलाश रह हैं.

कोफ़े ने बीबीसी मुंडो को बताया, “यह सबसे बुरा होगा. हमें अपनी जगह छोड़कर जाना होगा. हमारे द्वीप समुद्र में डूब रहे हैं.”

वह कहते हैं, “अंतर्राष्ट्रीय मानदंड हमारे जैसे देशों के पक्ष में नहीं हैं. हमने कभी भी किसी देश को जलवायु परिवर्तन के कारण गायब होते नहीं देखा है.”

तुवालु वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार किए जाने के लिए क़ानूनी रास्ते तलाश रहा है ताकि भले ही देश गायब हो जाए फिर भी एक देश के रूप में पहचान रहे.
कोफ़े कहते हैं, ऐसे कई विकल्प हैं जिन पर हम विचार कर रहे हैं.

किरिबाती से इतर, तुवालु ने फिजी में ज़मीन नहीं खरीदी है. हालांकि कोफ़े कहते हैं कि देश ने “एक सार्वजनिक घोषणा की है कि अगर हम भविष्य में डूब जाते हैं तो जमीन की पेशकश की जाएगी.

कोफ़े कहते हैं कि हमने अभी तक उस देश को चिन्हित नहीं किया है जहां स्थानांतरण के बाद हम जाना चाहेंगे. इसके पीछे वजह देते हुए वह कहते हैं कि हम इस बात को पूरी तरह से समझते हैं कि स्थानांतरण को एक बहाने के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है. बड़े देश संभव है कि ऐसा कहें कि क्योंकि उन्होंने हमें आश्रय दिया है इसलिए वे ग्रीनहाउस गैस का उत्सर्जन जारी रखेंगे.
कोफ़े कहते हैं,”स्थानांतरण हमारे लिए अंतिम उपाय है.”

मुआवज़े के लिए कानूनी लड़ाई

तुवालु भी विकासशील देशों की तरह ही मुआवज़ा पाने की आस रखता है. जिस तरह से विकासशील देशों का कहना है कि विकसित देशों के कारण जलवायु परिवर्तन गंभीर चरण में पहुंच चुका है और उसकी वजह से उन्हें नुकसान उठाना पड़ रहा है और इस वजह से वह खुद को मुआवज़े का अधिकारी बताते हैं, तुवालु भी उसी आधार पर मुआवज़ा चाहता है.

एंटिगुआ और बारबुडा की सरकार के साथ तुवालु ने हाल ही में संयुक्त राष्ट्र के साथ एक कमिशन रजिस्टर किया है.
कोफ़े कहते हैं कि इस आयोग के निर्माण के पीछे मक़सद सिर्फ़ इतना ही है कि हम इसके माध्यम से हम इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल फॉर द लॉ ऑफ़ द सी तक पहुंच रख सकेंगे. और साथ ही हम सलाह भी ले सकेंगे.

जर्मनी के हैम्बर्ग में स्थित इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल फॉर द लॉ ऑफ़ द सी, 1982 के संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन ऑन द लॉ ऑफ़ द सी से संबंधित विवादों को हल करने के लिए ज़िम्मेदार है.
यूरोपीय संघ के देशों और 167 अन्य देशों ने इस सम्मेलन को मंज़ूरी दी है. जबकि अमेरिका उनमें शामिल नहीं है. चीन और भारत जैसे सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करने वाले कुछ देशों ने समझौते को मंजूरी दी है.

-BBC