कोरोना वायरस से उपजी महामारी पूरे देश में कहर बरपा रही है। प्रतिदिन इसकी चपेट में आने वाले लोगों का आंकड़ा 2 लाख से ऊपर जा पहुंचा है। अस्पताल से लेकर बेड तक और दवाइयों से लेकर टेस्ट तक करने की व्यवस्था दम तोड़ती जा रही है। कई शहरों में तो लाशों के ढेर लगे हैं और वहां अंतिम संस्कार कराने के लिए भी लाइनें लग रही हैं। परिजन अपने प्रियजनों का चेहरा तक आखिरी बार देखने को तरस रहे हैं।
ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या “यही दिन” देखने के लिए “अपनी सरकारें” चुनते हैं “हम भारत के लोग”?
क्या कहती है संविधान की प्रस्तावना
भारत के संविधान की प्रस्तावना कहती है कि “हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म एवं उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा व अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा एवं राष्ट्र की एकता व अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
इस प्रस्तावना को भारतीय संविधान का ‘परिचय पत्र’ कहा जाता है और इसकी उद्देशिका यह बताती है कि संविधान जनता के लिए है तथा जनता ही अंतिम सम्प्रभु है किंतु ऐसा लगता है कि आज यह प्रस्तावना या तो बेमानी हो चुकी है या इसके परिचय पत्र पर लिखे अक्षर इतने अधिक धुंधले हो चुके हैं कि 71 साल का बूढ़ा गणतंत्र उन्हें पढ़ने में असमर्थ है।
लोकशाही या राजशाही
कहने को हम दुनिया का सबसे बड़ा ‘लोकतांत्रिक’ देश हैं तथा राजशाही यहां से पूरी तरह विदा हो चुकी है परंतु गौर से देखें तो पता लगता है कि लोकशाही महज एक शब्द भर है और राजशाही ही चेहरा बदलकर अपना काम कर रही है।
कौन नहीं जानता कि देश की आमदनी का एक बड़ा हिस्सा राजनेताओं की शानो-शौकत, उनकी सुरक्षा-व्यवस्था, वेतन-भत्ते तथा पेंशन पर खर्च किया जाता है। इन राजनेताओं की वैभवशाली जिंदगी यह बताने के लिए काफी है कि कहलाते भले ही यह जनप्रतिनिधि हों परंतु हकीकत में बेताज बादशाह होते हैं।
वीआईपी और वीवीआईपी का तमगा हासिल ये वर्ग हर उस सुविधा पर अपना पहला हक रखता है जिसे उपलब्ध कराने में सरकारें सक्षम हैं।
महामारी के इस दौर में आज आम आदमी जहां खुद को कतई असहाय और बेसहारा महसूस कर रहा है, वहीं इन विशिष्टजनों के लिए आलीशान अस्पतालों के अंदर बेड एवं वेंटिलेटर ‘आरक्षित’ किए हुए हैं। ये वर्ग अपनी सुविधा से न केवल टेस्ट करा रहा है बल्कि बेहतरीन इलाज प्राप्त कर रहा है जबकि दूसरी ओर आम आदमी बुखार से तपता हुआ, खांसता व छींकता हुआ और अपनी जांच एवं उपचार की प्रतीक्षा में ‘लावारिस कुत्तों’ की तरह अस्पतालों के चक्कर लगा रहा है।
नेताओं की तरह संवेदनाशून्य हो चुके अधिकांश सरकारी अफसरान उसे तथा उसके परिजनों को दुत्कार रहे हैं, इधर से उधर दौड़ा रहे हैं लेकिन न कोई देखने वाला है और न सुनने वाला।
महामारी के इस दौर में एक साल से अधिक का समय बिता चुका आम आदमी पैसे से तो परेशान है ही, साथ ही सरकारी कु-व्यवस्था से अत्यधिक आहत है। घर में किसी के भी कोरोना की जद में आने की आशंका भर उसे हिला कर रख देती है।
दुर्भाग्य से रिपोर्ट पॉजिटिव आ गई तो समझो कि नगर निगम की टीम द्वारा घर को सील करने के लिए लगाए गए ”टीन के दो आड़े-तिरछे टुकड़े” उस दयनीय दशा तक ले जाने का काम करते हैं जो शायद कोरोना भी नहीं कर पाता।
माना कि कोरोना वायरस एक किस्म की छूत की बीमारी है और इसके लिए बीमार को अलग-थलग रखना जरूरी है किंतु इसका यह मतलब तो नहीं कि उसे इस बेहूदे तरीके से चिन्हित कर सामाजिक तौर पर बहिष्कृत कराने का काम भी किया जाए।
तमाम लोग तो इसी कारण अपनी जांच कराने को आगे नहीं आ रहे क्योंकि उन्हें बीमारी से कहीं अधिक डर इस बेहूदे सरकारी तरीके से लगता है।
प्राइवेट मेडिकल प्रैक्टिशनर को अधिकार क्यों नहीं
क्या बेहतर नहीं होगा कि इस महामारी से मुकाबले के लिए प्राइवेट मेडिकल प्रैक्टिशनर को भी सरकार वही अधिकार दे जो सरकारी अस्पताल के डॉक्टर्स को दिए हुए हैं।
फिलहाल जबकि कोरोना अपने नित नए रूप में सामने आ रहा है और उसकी कोई खास दवाई भी नहीं मिली है। जिन दवाइयों से उपचार किया जा रहा है, वह हर डॉक्टर जानता है तो फिर सरकार सभी प्राइवेट प्रैक्टिशनर डॉक्टर्स को इसके इलाज की खुली छूट क्यों नहीं दे रही?
क्यों निजी पैथोलॉजी लैब को कोरोना की जांच के लिए अधिकृत कर भीड़ और भय के उस माहौल से लोगों को मुक्ति नहीं दिलाई जा रही जिसके कारण वह मानसिक रूप से भी अस्वस्थ होने लगे हैं।
किसी शहर में लाशों के ढेर लगने की खबरें तो किसी शहर में स्वास्थ संसाधनों के अभाव की बातें। कहीं अस्पतालों में बेड के लिए भटकते लोग और टूटती सांसों को थामने के लिए ऑक्सीजन का अभाव तो कहीं वेंटीलेटर्स की बड़ी कमी के समाचार किसी का भी दिल दहला देने के लिए काफी हैं।
इस समय लोगों को जितनी जरूरत स्वास्थ सेवाओं की है, उससे कहीं अधिक यह अहसास कराने की है कि सरकार हर परेशानी में उसके साथ खड़ी है क्योंकि मानसिक संबल के बिना महामारी से जूझ पाना संभव नहीं होगा लेकिन सरकारी रवैया ऐसा अहसास करा पाने में अब तक तो पूरी तरह असफल रहा है।
नेता नगरी चुनावी दंगल में व्यस्त है और सरकारी अमला उनका हुकुम बजा लाने में, आम आदमी की शारीरिक, आर्थिक एवं मानसिक परेशानी से जैसे किसी को कोई मतलब नहीं।
कोरोना के हर रोज आसमान छू रहे आंकड़े बेशक स्थिति की भयावहता महसूस कराने को पर्याप्त हों लेकिन सरकारें अब भी डर्टी पॉलिटिक्स में व्यस्त हैं और आरोप-प्रत्यारोप के सर्वाधिक पसंदीदा खेल से लोगों को गुमराह करने का काम कर रही हैं क्योंकि इस काम के लिए उनके पास तंत्र है। वो ‘तंत्र’ जिसके हाथ का खिलौना है लोक और लोकशाही।
कड़वा सच यही है कि हम राजशाही के अधीन थे, अधीन हैं, और इसी के अधीन रहेंगे। सत्ता चाहे किसी दल या व्यक्ति के हाथ में क्यों न हो, जब तक व्यवस्था नहीं बदलेगी तब तक सत्ता की चाल, उसका चरित्र और चेहरा भी नहीं बदलेगा।
महामारी का यह दौर पता नहीं कब तक और कितने लोगों को निगलने तथा कितने लोगों को दीन-हीन बनाने के बाद खत्म होगा, खत्म होगा भी या नहीं…. इसका तो पता नहीं लेकिन इतना जरूर पता है कि यदि ‘लोकतंत्र’ की प्रस्तावना इसी गति से धुंधली होती चली गई तो तय समझिए कि देश में सिर्फ ‘सरकारी तंत्र’ ही बचेगा, लोक जल्द पूरी तरह दम तोड़ देगा।
-सुरेन्द्र चतुर्वेदी
साभार- legend News
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