उत्तराखंड के चामोली जिले में गोपेश्वर महादेव का प्राचीन मंदिर है जिसे गोस्थल के रूप में जाना जाता है। मान्यता है कि पश्वीश्वर महादेव देवी पार्वती के साथ मंदिर में वास करते हैं। बद्रीनाथ के धर्माधिकारी भुवनचंद्र उनियाल के अनुसार स्कंदपुराण के केदारखंड में इस तीर्थ के बारे में बताया गया है।
गोपीनाथ मंदिर एक प्राचीन मंदिर है जो भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर अपने वास्तु के कारण अलग से पहचाना जाता है; इसका एक शीर्ष गुम्बद और ३० वर्ग फुट का गर्भगृह है, जिस तक २४ द्वारों से पहुँचा जा सकता है।
मंदिर के आसपास टूटी हुई मूर्तियों के अवशेष इस बात का संकेत करते हैं कि प्राचीन समय में यहाँ अन्य भी बहुत से मंदिर थे। मंदिर के आंगन में एक ५ मीटर ऊँचा त्रिशूल है, जो १२ वीं शताब्दी का है और अष्ट धातु का बना है। इस पर नेपाल के राजा अनेकमल्ल, जो १३ वीं शताब्दी में यहाँ शासन करता था, का गुणगान करते अभिलेख हैं। उत्तरकाल में देवनागरी में लिखे चार अभिलेखों में से तीन की गूढ़लिपि का पढ़ा जाना शेष है।
दन्तकथा है कि जब भगवान शिव ने कामदेव को मारने के लिए अपना त्रिशूल फेंका तो वह यहाँ गढ़ गया। त्रिशूल की धातु अभी भी सही स्थित में है जिस पर मौसम प्रभावहीन है और यह एक आश्वर्य है। यह माना जाता है कि शारिरिक बल से इस त्रिशुल को हिलाया भी नहीं जा सकता, जबकि यदि कोई सच्चा भक्त इसे छू भी ले तो इसमें कम्पन होने लगता है।
गोस्थलकं स्मृतम्।
तत्राहं सर्वदा देवि निवसामि त्वया सह।।
नाम्ना पश्वीश्वरः ख्यातो भक्तानां प्रीतिवर्धनः।
त्रिशूलं मामकं तत्र चिन्हमाश्चर्यरूपकम्।।
(स्कंद पुराण, केदारखंड, अध्याय-55, श्लोक 07-08)
इस श्लोक के अनुसार शिवजी मां पार्वती से कहते हैं कि यह गोस्थल नाम का दर्शनीय स्थल है। जहां मैं तुम्हारे साथ नित्य निवास करता हूं, वहां मेरा नाम पश्वीश्वर है। इस स्थान में भक्तों की भक्ति विशेष बढ़ती जाती है। वहां हमारा चिह्न स्वरूप जो त्रिशूल है, वह हैरान करने वाला है।
ओजसा चेच्चाल्यते तन्नहि कंपति कर्हिचित।
कनिष्ठया तु यत्स्पृष्टं भक्त्या तत्कंपते मुहुः।।
(स्कंद पुराण, केदारखंड, अध्याय-55, श्लोक 09)
यदि ताकत के साथ इस त्रिशूल को हिलाने का प्रयास किया जाए तो वह बिल्कुल भी कंपित नहीं होगा, लेकिन भक्ति के साथ कनिष्ठ उंगली (हाथ की सबसे छोटी उंगली) से स्पर्श किया जाए तो त्रिशूल में बार-बार कंपन होता है।
धर्माधिकारी उनियाल ने बताया कि मैंने इस चमत्कार को अपनी आंखों से देखा है। जब मैंने त्रिशूल को भक्ति-पूर्वक छोटी उंगली से स्पर्श किया तो त्रिशूल में जो दो कंकड़ हैं, उन में कंपन हुआ। लेकिन, हाथ से हिलाने पर त्रिशूल बिल्कुल भी नहीं हिला।
अन्यच्च संप्रवक्ष्यामि चिन्हं तत्र सुरेश्वरि।
एकस्तत्र पुष्पवृक्षोऽकालेपि पुष्पितः सदा।।
(स्कंद पुराण, केदारखंड, अध्याय-55, श्लोक 10)
मंदिर के ठीक बगल पर एक वृक्ष है, जो हर ऋतु में एक जैसा सदा पुष्पों से भरा रहता है..
तस्मात्पूर्वप्रदेशे वै वसामि झषकेतुहा।
मया तत्र पुरा दग्धो झषकेतुर्महेश्वरि।।
झषकेतुहरो नाम्ना सर्वतीर्थफलप्रदः।
(स्कंद पुराण, केदारखण्ड, अध्याय-55, श्लोक 13)
केदारखंज के अनुसार महादेव ने अपने तीसरे नेत्र से कामदेव को इसी स्थान पर भस्म कर दिया था। इसीलिए शिवजी को इस क्षेत्र में झषकेतुहर भी कहा जाता है।
झष का अर्थ है – मीन, मछली
केतु का अर्थ है – ध्वज
कामदेव के ध्वज पर मीन का चिह्न होता है।
कामदेव का वध करने वाला – झषकेतुहरो
रतीश्वर इति ख्यातो मम संगमदायक।
रतिकुण्डं च तत्रास्ति नाम्ना मल्लोकदायकम्।।
(स्कंद पुराण, केदारखण्ड, अध्याय-55, श्लोक 15)
इसी स्थान पर भगवान शिवजी का नाम रतीश्वर भी पड़ा, क्योंकि कामदेव के भस्म होने के बाद कामदेव की पत्नी रति ने यहां एक कुंड के निकट घोर तप किया और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया कि कामदेव प्रद्युम्न के रूप में भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र बनकर जन्म लेंगे और वही तुम्हारी उनसे भेंट होगी।
जहां रति ने तप किया, उस कुंड का नाम रतिकुंड पड़ा। जिसे वैतरणीकुंड भी कहा जाता है। द्वारिका में प्रद्युम्न के रूप में कामदेव का जन्म होता हैं और मायावती के रूप में रति का भी पुनर्जन्म होता है।
-एजेंसियां