कोविड-19 महामारी ने दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा प्रणालियों की खामियों को उजागर किया है । सभी देशों ने इस महामारी के दौरान रोगियों की लगातार बढ़ती संख्या की वजह से उपयुक्त चिकित्सा की कमी, स्वास्थ्य सेवाओं में असमानता और अपर्याप्त बुनियादी ढांचे जैसी चुनौतियों का सामना किया है। इन चुनौतियों या असमानताओं के परिणामस्वरूप महामारी के दौरान मृत्यु दर काफी अधिक देखी गई। इस साल संक्रमण की एक नई लहर के चपेट में आने बाद भारत को भी इसी तरह की स्थितियों का सामना करना पड़ा। अब हमें पहले से कहीं अधिक, यह मूल्यांकन करना जरूरी है कि भविष्य की महामारियों के मद्देनजर हमारी स्वास्थ्य प्रणाली में किस प्रकार के बदलाव किये जा सकते है।
भविष्य के लिए अब हमें यह भी देखने की जरूरत है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में पहले किस प्रकार के महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं। सदी की शुरुआत तक देश में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन, मिशन इंद्रधनुष और एकीकृत बाल विकास सेवाओं जैसी योजनाओं ने स्वास्थ्य के क्षेत्र में क्रांति लाने में मदद की। हाल ही में सरकार ने स्वास्थ्य क्षेत्र को मजबूत करने के लिए आयुष्मान भारत कार्यक्रम शुरू किया। हालांकि अभी भी भारत को देश के स्वास्थ्य परिदृश्य में क्रांति लाने के लिए त्वरित सुधार की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए निवेश में वृद्धि करने की आवश्यकता है। हालांकि हाल के वर्षों में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय में वृद्धि हुई है, फिर भी यह देश के जीडीपी के 2.5% के लक्ष्य से कम है। स्वास्थ्य क्षेत्र में निवेश में वृद्धि के साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के सुधारों के अलावा स्वास्थ्य के लिए मानव संसाधन और स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे के लिए प्रमुख रूप से नीतिगत प्रयासों में तेजी लानी होगी।
सार्वजनिक क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित करना
130 करोड़ जनसंख्या वाले देश में, नीतिगत और कार्यान्वयन दोनों स्तरों पर स्वास्थ्य प्रणालियों को उन्नत करने के लिए कई चुनौतियाँ हैं। इन सेवाओं को प्रदान करने में सार्वजनिक क्षेत्र की घटती भूमिका भी एक प्रमुख कारक है। पिछले कुछ वर्षों में, हमने कई वजहों से सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में कमी देखी है, जिसमें कम संसाधन, खराब प्रबंधन और प्रतिस्पर्धी सरकारी प्राथमिकताएं शामिल हैं। संसाधनों की कमी से एक नई प्रणाली विकसित हुई है। शहरी निजी क्षेत्र, स्वास्थ्य देखभाल में एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभरकर सामने आया है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा मुख्य रूप से सार्वजनिक होनी चाहिए ताकि वह समान हो और सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (यूएचसी) के लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद कर सके।
जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे में सुधार
हर राज्य में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की तरह ही देश में स्वास्थ्य क्षेत्र के रूप में तीसरे सार्वजनिक ढांचे को बढ़ाने का हालिया निर्णय सराहनीय है। अब हमें छोटे शहरों और कस्बों में गुणवत्तापूर्ण देखभाल सुविधाएं सुनिश्चित करने के लिए ठोस प्रयास करने होंगे। जिला अस्पतालों और मेडिकल कॉलेजों के मौजूदा बुनियादी ढांचे के सुधार पर ध्यान केंद्रित करना होगा। रखरखाव योजनाओं के त्वरित और कार्यान्वयन को राज्य सरकारों द्वारा प्राथमिकता दी जानी चाहिए। प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों में भी बिजली की उपलब्धता, पानी की आपूर्ति, स्वच्छ शौचालय, प्रकाश व्यवस्था और उपकरणों की उपलब्धता सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
कुशल जनशक्ति और सामान्य चिकित्सकों का निर्माण
भारत में दुनिया के सबसे ज्यादा मेडिकल कॉलेज हैं। स्वास्थ्य और चिकित्सा शिक्षा के लिए मानव संसाधन के तहत जिला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेजों में बदलने का स्वास्थ्य मंत्रालय का हालिया फैसला सही दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस दिशा में काम शुरू हो गया है जिसमें तेजी लाने की जरूरत है। कारण यह है कि अब भी भारत को चिकित्सा पेशेवरों की गंभीर कमी का सामना करना पड़ रहा है। इस चिंताजनक स्थिति को इस तथ्य से उजागर किया जा सकता है कि डब्ल्यूएचओ-अनुशंसित मानक के अनुसार भारत में प्रति एक हजार जनसंख्या पर डॉक्टरों की संख्या काफी कम है, जो इस क्षेत्र की विषमताओं को बढ़ा देती है। सार्वजनिक क्षेत्र में, स्वास्थ्य कर्मियों पर बोझ और भी अधिक है, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में सामान्य चिकित्सकों की भारी कमी है। यह हालत तब है जबकि भारत में चिकित्सा पेशेवरों के लिए ग्रामीण सामुदायिक सेवा को प्रोत्साहित किया जाता है। इसी प्रकार निजी क्षेत्र व सार्वजनिक क्षेत्र के पेशेवरों के वेतन के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से पाटने की आवश्यकता है।
महामारी से सबक
कोविड-19 महामारी ने स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के कई मुद्दों पर प्रकाश डाला जैसे उच्च उपचार लागत, स्वास्थ्य सुविधाएं पर अत्यधिक भार, चिकित्सा उपकरणों की कमी और यहां तक कि अत्यधिक नुस्खे और ओवर-द-काउंटर दवाओं का अनावश्यक उपयोग, जैसा कि हमने स्टेरॉयड और म्यूकोर्मिकोसिस के मामले में देखा है। ओवर-द-काउंटर परीक्षणों का मुद्दा भारत के लिए अजीब है।
अधिक खोजी, आक्रामक, महंगे, वाणिज्यिक मॉडल के बजाय अधिक रोगी-केंद्रित, सस्ती, जवाबदेह, मॉडल की ओर बढ़ते हुए इन मुद्दों का मुकाबला करना होगा। महामारी के दौर में नकारात्मक खबरों के कारण निराशा फैल रही थी। लेकिन अब हमें स्थायी, साक्ष्य-आधारित परिवर्तनों में निहित देश में स्वास्थ्य सेवाओं के चेहरे को बदलने के लिए एक क्रांति का सहारा लेना चाहिए। तभी हम अपने नागरिकों को एक समान और समावेशी स्वास्थ्य सेवा मॉडल प्रदान करने की भारत की प्रतिबद्धता को पूरा कर सकते हैं।
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