उत्तराखंड की ऑल वेदर रोड: पर्यावरण से खेलती एक महत्वाकांक्षा

अन्तर्द्वन्द

अपने जिले में मैंने जो पहले कभी नही देखा था वो आज देख लिया, आज की युवा पीढ़ी को भी बेरोज़गारी के इस दौर में अपने स्मार्टफोन से सोशल मीडिया अकाउंटों पर राजनीतिक पोस्ट चिपकाने से पहले एक न एक बार अपना जिला जरूर घूमना चाहिए। पहाड़ से मैदान उतरते ऑल वेदर रोड की वजह से मुझे चंपावत जिले के अंदर एक दिन में ही विकास के दो पहलू सड़क और शिक्षा के सूरतेहाल देखने को मिले।

पर्यावरण से खेलती एक महत्वाकांक्षा

वर्ष 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए सारे नियम कायदों को ताक पर रख ऑल वेदर रोड पर कार्य शुरू हुआ, इसमें 150 किमी टनकपुर-पिथौरागढ़ नेशनल हाइवे भी शामिल था।

पहाड़ न दरके इसके लिए पत्थर लगा पहाड़ों पर बाउंड्री की गई, जाल बांध फ़िर सरिया लगा भी पहाड़ों को रोकने की ‘रॉक ट्रीटमेंट’ स्कीम चली। सड़क की चौड़ाई दस मीटर से अधिक ही रखी गई थी।

इस सड़क से पर्यावरण को होने वाले नुक़सान को देखते सुप्रीम कोर्ट ने एक हाई पॉवर कमेटी गठित की, जिसके अध्यक्ष रवि चोपड़ा ने अपनी रिपोर्ट में सड़क की चौड़ाई 12 मीटर रखना ठीक नहीं बताया था और इसको सिर्फ 5.5 मीटर तक ही रखने की सिफारिश की थी पर महत्वाकांक्षी सत्ता के आगे सब फीके थे और सड़क इस बार रिकॉर्ड 7 दिनों से अधिक बंद पड़ी है।

टनकपुर से चंपावत की दूरी मात्र सत्तर किलोमीटर है पर सड़क बंद होने की वजह से रीठा साहिब से होता यह सफ़र 140 किलोमीटर का बन गया है, जिसमें 20-30 किलोमीटर कच्ची सड़क है।

क्षेत्रीय समाचार पत्रों को मुख्यमंत्री के प्रस्तावित टनकपुर दौरे में अधिकारियों के सुगम मार्ग से समय पर पहुंचने की चिंता तो सता रही है लेकिन उन्हें मुसीबत में पड़े आम जन की कोई फिक्र नहीं है।

पानी पोस्ट पर हिमालय के ऊपर एक रिपोर्ट देखने को मिली जिससे हिमालय पर निमार्ण कार्य से होने वाले नुकसान की गम्भीरता को समझा जा सकता है।

हिमालय के दो ढाल हैं: उत्तरी और दक्षिणी। दक्षिणी में भारत, नेपाल, भूटान हैं। उत्तराखण्ड को सामने रख हम दक्षिणी हिमालय को समझ सकते हैं। उत्तराखण्ड की पर्वत श्रृंखलाओं के तीन स्तर हैं- शिवालिक, उसके ऊपर लघु हिमाल और उसके ऊपर ग्रेट हिमालय। इन तीन स्तरों मे सबसे अधिक संवेदनशील ग्रेट हिमालय और मध्य हिमालय की मिलान पट्टी हैं।

इस संवेदनशीलता की वजह इस मिलान पट्टी में मौजूद गहरी दरारें हैं। बद्रीनाथ, केदारनाथ, रामबाड़ा, गौरीकुण्ड, गुप्तकाशी, पिंडारी नदी मार्ग, गौरी गंगा और काली नदी – ये सभी इलाके दरारयुक्त हैं।

यहां भूस्खलन का होते रहना स्वाभाविक घटना है। किंतु इसकी परवाह किए बगैर किए निर्माण को स्वाभाविक कहना नासमझी कहलायेगी। अतः यह बात समझ लेनी जरूरी है कि मलवे या सड़कों में यदि पानी रिसेगा, तो विभीषिका सुनिश्चित है।

हिमालय में निर्माण की शर्तें

दरारों से दूर रहना, हिमालयी निर्माण की पहली शर्त है। जल निकासी मार्गों की सही व्यवस्था को दूसरी शर्त मानना चाहिए। हमें चाहिए कि मिट्टी-पत्थर की संरचना कोे समझकर निर्माण स्थल का चयन करें, जल निकासी के मार्ग में निर्माण न करें। नदियों को रोकें नही, बहने दें।

जापान और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसी दरारें हैं लेकिन सड़क मार्ग का चयन और निर्माण की उनकी तकनीक ऐसी है कि सड़कों के भीतर पानी रिसने की गुंजाइश नगण्य है इसलिए सड़कें बारिश में भी स्थिर रहती हैं।

देखा है कभी? अब भी कंधों में बैठ नदी पार कर स्कूल जाता है देश का भविष्य

चंपावत से रीठासाहिब तक सड़क ठीक है। रीठासाहिब के बारे में बात की जाए तो लोदिया और रतिया नदियों के संगम पर स्थित यह गुरुद्वारा सिखों का लोकप्रिय तीर्थस्थल है जहां वर्षभर में लाखों श्रद्धालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं।

गुरुद्वारे के आसपास चौड़ा मेहता गांव के निवासियों द्वारा बताया गया कि इतने लोकप्रिय तीर्थस्थल के क्षेत्र में होने के बावजूद भी सरकार क्षेत्र को विकसित करने में असफल रही है, बहुत से गांवों के बच्चों की पढ़ाई के लिए एकमात्र विद्यालय राजकीय इंटर कॉलेज चौड़ा मेहता है।

आसपास के गांव बिनवाल, गागर, चमोला, कैड़ागांव, परेवा के बच्चे कई किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल पहुंचते हैं और इनमें से कुछ गांव के बच्चों को तो नदी पार कर स्कूल पहुंचना पड़ता है।

रीठासाहिब के बाद लगभग 20-25 किलोमीटर कच्ची सड़क पूरी तरह से पत्थरीली है। पक्की सड़क शुरू होने से चार-पांच किलोमीटर पहले सड़क किनारे मुझे मथियाबाज गांव के कुछ लड़के सड़क किनारे घूमते मिले, उनसे बातचीत करने पर यह पता चला कि उन्हें ग्यारहवीं और बारहवीं कक्षा पढ़ने के लिए 9-10 किलोमीटर दूर राजकीय इण्टर कॉलेज सुखीढांग पैदल ही जाना पड़ता है।

पहाड़ के इस कष्टकारी रास्ते से नीचे उतरते ही चंपावत जिले के मैदानी क्षेत्र टनकपुर में मुख्यमंत्री के स्वागत के लिए लगे बड़े-बड़े बैनर पहाड़ों में सरकार की नाकामी को ऐसे छुपा रहे थे मानो जैसे सब ठीक है और क्षेत्र की जनता बहुत ही खुशहाल जीवन व्यतीत कर रही है। राजनीतिक दलों ने यही किया है जनता के पैसे अपनी पार्टी के प्रचार-प्रसार में ही ख़र्च किए हैं और जनता को अपने हाल पर छोड़ दिया है। पर फ़र्क किसे पड़ता है शायद हम भारतीयों के लिए अब यही लोकतंत्र है, काम न करने वाले नेता हमारे भगवान हैं और उन्हें वोट देकर हम उन्हें भेंट चढ़ाते रहते हैं।

ग्राम स्वराज्य पढ़ें, समझें और अपनाएं

ऑल वेदर रोड या ऐसी अनेक योजनाएं वह हैं जिनके चलने से भारत के अधिकतर गांव वासियों को आजतक सिर्फ़ वही भावनाएं महसूस होती आयी हैं जो ज़मीन पर खड़े ग्रामीण को आसमान में ऊंची उड़ान भरते हेलीकॉप्टर को देख या फ़टे कपड़ों में सड़क पर फॉर्च्यूनर से हाथ हिलाते नेताजी को देख कर होती है पर मिला कुछ भी नही है।

जरूरत इस बात की है कि महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज्य विचार को अपनाया जाए जहां छात्रों को अपने गांव में ही शिक्षा मिले, युवाओं को अपने गांव में ही रोज़गार के अवसर प्राप्त हों और गांव की सुरक्षा भी गांववालों के हाथों में ही हो।

ग्राम स्वराज्य में महात्मा गांधी ने केंद्र या राज्य किसी भी सरकार के साथ गांववालों के सम्बंध पर विचार नही किया था क्योंकि शायद वह जानते थे कि इनका कार्य सिर्फ़ गांव निवासियों को लूटना या इन्हें अपने वोट बैंक के तौर पर देखने तक ही सीमित होगा ।

  • हिमांशु जोशी, उत्तराखंड