चीन की मुख्य भूमि के दक्षिण पूर्व तट से क़रीब 120 किलोमीटर दूर ताइवान स्थित है. कई जानकार ताइवान को ‘द्वीपों की पहली शृंखला’ कहकर बुलाते हैं. पिछले कई सालों में चीन ने उस इलाक़े में अपना असर बढ़ाने के कई प्रयास किए हैं.
“जापान के दक्षिण से होकर एक प्रकार की भौगोलिक रुकावट गुजरती है जो ताइवान, फिलीपींस होते हुए दक्षिण चीन सागर तक जाती है. यह शीत युद्ध का कॉन्सेप्ट है.”
द्वीपों की इस पहली शृंखला के देश अमेरिका के सहयोगी हैं और ये उनकी विदेश नीति के लिए काफ़ी अहम हैं. “चीन मानता भी है कि वो सामरिक लिहाज से इस ओर से घिरा हुआ है.”
इसी चलते इस क्षेत्र में ताइवान की स्थिति चीन और पश्चिमी देशों, दोनों के लिए, वैश्विक राजनीति के लिए बहुत ज़्यादा अहम है.
कई पश्चिमी जानकारों का मानना है कि ताइवान यदि चीन का हिस्सा हो जाए तो प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव और बढ़ाने के लिए चीन आज़ाद हो जाएगा.
इतना ही नहीं, ऐसा होते ही प्रशांत क्षेत्र के गुयाम और हवाई में मौजूद अमेरिकी सैन्य अड्डे भी सुरक्षित नहीं रह जाएंगे.
“चीन का पहले से ही दक्षिण चीन सागर में बड़ा प्रभाव है, लेकिन यदि उनके पास ताइवान आ जाए तो वो अपनी नौसेना का प्रभाव बढ़ाने में सक्षम हो जाएंगे. इससे इस इलाके पर उनका नियंत्रण कायम हो जाएगा, जिसका विश्व कारोबार पर अहम प्रभाव पड़ेगा.”
बताया जाता है कि “दक्षिणी और पूर्वी सागर में हो सकने वाले किसी भी टकराव की दशा में अपनी स्थिति मजबूत बनाने के रास्ते में ताइवान एक प्रकार का ‘मिसिंग लिंक’ है.”
हालांकि चीन ने कई बार कहा है कि इस क्षेत्र में उसके इरादे पूरी तरह शांतिपूर्ण हैं.
विश्व अर्थव्यवस्था में ताइवान कितना अहम
अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी ताइवान काफ़ी अहम है. हम रोज जिन इलेक्ट्रानिक उपकरणों का इस्तेमाल करते हैं, उनमें इस्तेमाल होने वाले चिप ताइवान के ही बने होते हैं.
बात चाहे स्मार्टफोन की हो या लैपटाप या स्मार्टवाच हो या गेमिंग कन्सोल की. इन सबमें चिप इस्तेमाल होते हैं और उनमें से अधिकांश ताइवान में ही बने होते हैं. दुनिया के क़रीब दो तिहाई चिप बाज़ार पर ताइवान का नियंत्रण है.
‘ताइवान सेमीकंडक्टर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी’ जिन्हें संक्षेप में टीएसएमसी कहते हैं, वो अकेले ही दुनिया के आधे से अधिक चिप बाजार पर नियंत्रण रखती है.
जनवरी से दिसंबर 2021 के बीच टीएसएमसी ने क़रीब 53 अरब डालर की आय अर्जित की.
यदि ताइवान पर चीन का नियंत्रण हो जाए तो दुनिया के इस अहम उद्योग पर चीन का कंट्रोल हो जाएगा।
“कई जानकारों का मानना है कि चिप और सेमीकंडक्टर बनाने में चीन पश्चिमी देशों से पीछे है. एक अनुमान है कि पश्चिमी देशों को पकड़ने में चीन को क़रीब 20 साल लगेंगे.”
यदि चीन ने ताइवान से यह उद्योग ले लिया तो पश्चिमी देशों को तुरंत इसका ख़ामियाज़ा उठाना होगा.
“चीन और अमेरिका इन तकनीकों को डेवलप करने में एक दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं. यदि यह उद्योग चीन के पास चला जाए तो पश्चिमी देशों की चिप और सेमीकंडक्टर तक पहुंच बाधित हो जाएगी. इससे इनकी क़ीमतें काफ़ी बढ़ जाएंगी.”
ऐसा ही हाल अन्य उद्योगों के मामले में भी हो सकता है. इसके निपटने की कोशिश करना पश्चिमी देशों के लिए आसान नहीं हो सकता.
इसलिए है ताइवान की स्थिति जटिल
ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार ताइवान, चीन के नियंत्रण में किंग राजवंश के दौरान 17वीं सदी में आया था.
जापान के साथ हुई पहली लड़ाई में हारने के बाद चीन ने 1895 में ताइवान को जापान को सौंप दिया. उसके बाद अगले 50 सालों तक ताइवान जापान के कब्जे में बना रहा.
दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान 1945 में जापान के हारने के बाद चीन ने फिर से ताइवान पर अपना नियंत्रण कर लिया. लेकिन इसी समय चीन की मुख्यभूमि में गृहयुद्ध छिड़ गया.
यह गृहयुद्ध मोओत्से तुंग के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट पार्टी और नेशनलिस्ट पार्टी ‘कुओमिंतांग’ के बीच हो रहा था. उसके बाद, 1949 में कम्युनिस्ट पार्टी ने चीन पर नियंत्रण कर लिया.
उससे बचने के लिए कुओमिंतांग सरकार ने ताइवान जाकर शरण ले ली. हालांकि समुद्र में बहुत मजबूत न होने के चलते चीन ने तब ताइवान की कुओमिंतांग सरकार को छोड़ देना पड़ा.
अस्थाई राष्ट्रपति सनयात सेन के बाद च्यांग काई शेक ताइवान के पहले राष्ट्रपति बने.
वे तानाशाह शासक के रूप में 1975 तक इस पद पर रहे. उनके निधन के तीन साल बाद तब के प्रधानमंत्री और च्यांग काई शेक के बेटे च्यांग चिंग कुओ ताइवान के राष्ट्रपति बने.
उन्होंने ताइवान की शासन व्यवस्था को तानाशाही से लोकशाही की ओर ले जाने के प्रयास को अनमुति दी. चीन इतिहास का सहारा लेकर दावा करता है कि ताइवान मूल रूप से उसका एक प्रांत रहा है.
हालांकि कई लोगों का मानना है कि ताइवान कभी भी 1911 या माओत्से तुंग के नेतृत्व में 1949 में हुई क्रांति के बाद कायम चीन के आधुनिक शासन का हिस्सा नहीं रहा है.
कई पश्चिमी देशों ने च्यांग काई शेक द्वारा स्थापित ताइवान के ‘रिपब्लिक आफ चाइना’ को चीन की एकमात्र वैध सरकार के रूप में मान्यता दी. लेकिन 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ ने ताइवान की मान्यता रद्द करके कम्युनिस्ट चीन को चीन के रूप में मान्यता दे दी.
उसके बाद से अब तक ताइवान को मान्यता देने वाले देशों की संख्या घटते घटते महज 15 रह गई है. ताइवान को सबसे ज़्यादा लातिन अमेरिका और कैरिबियाई देशों से समर्थन मिला है.
चीन और ताइवान की हैसियत में बहुत ज़्यादा अंतर होने के चलते, ज़्यादातर देशों ने इस तरह का द्वैध बनाए रखा है. इससे अपनी क़ानूनी हैसियत स्पष्ट न होने के बावजूद ताइवान आज़ाद मुल्क जैसी स्थिति बनाए रखी है.
वैसे चीन की मुख्य भूमि से ताइवान गए लोगों की मौजूदा आबादी 15 लाख है, जो ताइवान की आबादी के 14 फ़ीसदी हैं. हालांकि ताइवान की राजनीति पर कई सालों से इसी समूह का दबदबा है.
-एजेंसी