पद्मश्री प्राप्त रतनलाल जोशी कितना सटीक कहकर गए हैं कि मुंशी प्रेमचंद के पात्रों में जो मुकाम होरी का है, जीवजगत में वही स्थान मेंढक का है- शोषण तंत्र की सबसे अंतिम और निचली कड़ी, निरीह, प्रतिशोध और प्रतिरोध में असमर्थ, जिस तरह ज़मींदार, पटवारी, पतरौल, पुरोहित, सभी हर क्षण होरी को लूटने के लिए सन्नद्ध रहते हैं, उसी प्रकार बगुला, चील, कौआ, सांप आदि प्राणी हर समय मेंढक को निगलने के लिए मुंह खोले खड़े रहते हैं। जैसे-तैसे बरसात के बहाने मेंढक ने कोयल और पपीहा के साथ मीठी ज़बान वालों की फ़ेहरिस्त में दस्तक दी और कुम्भनदास ने लिखा कि- ‘आये माई वरषा के अगवानी। दादुर मोर पपीहा बोले कुंजन बग पांत उड़ानी।।’ लेकिन यहां भी बदक़िस्मती ने मेंढक का साथ नहीं छोड़ा और बारिश में उसका अधिक टर्र-टर्र करना रहीम को इतना खल गया कि उन्होंने यह लिखते हुए मेंढक की ज़बान को लानतें भेजने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी- ‘पावस देख रहीम मन, कोईल साधे मौन अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।’
अपने दुर्भाग्य को ढोता फिरता मेंढक आख़िर कुएं में ही जा गिरा मगर वहां भी तोहमतें उसके साथ गईं। ‘कूप मंडूक’ जैसे तर्ज़ेकलाम गढ़े गए और मेंढक पर तोहमतों का सिलसिला बदस्तूर रहा। दुनिया को टर्र-टर्र की आवाज़ में कर्कश स्वर सुनाई देता है, लेकिन असल में तो मेंढकों का भादो में इस तरह टर्राना सदियों के शोषण के ख़िलाफ़ एक करुण रुदन है जिसे शोषण करने वाला समाज ‘बरसाती मेंढक’ और ‘भादो का मेंढक’ कहकर नकारता जाता है।
बहरहाल, 20 मार्च को गुज़रे विश्व मेंढक दिवस के मौक़े पर जान लीजिए कि ख़ुदगर्ज़ी के ज़माने में भी मेंढक कभी ख़ुदगर्ज़ ना हो पाया और हज़ारों लानतें अपने आंचल में समेटकर हर हाल में इंसान के काम ही आया। हिंदुस्तान में तो जब तक मेंढक और मेंढकी की शादी की रस्में पूरी नहीं हो जातीं तब तक बारिश के देवता इंद्र मेहरबान नहीं होते। भारत के अनेक हिस्सों में ऐसी परम्परा है कि मेंढक-मेंढकी की शादी बारिश का सटीक टोटका है। जिसकी टर्र-टर्र देवताओं को प्रसन्न करती है, वही टर्र-टर्र मनुष्यों को इतनी नागवार गुज़रती है कि अब तो मनुष्य मेंढकों को धरती से मिटा देने पर उतारू है। एक राजनीतिज्ञ नेे अपने एक लेख में लिखा कि- ‘आज हमारे आसपास बीमारी का सबसे बड़ा कारण इतने ज़्यादा मच्छर हैं तो उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हमने मच्छरों के सबसे बड़े शिकारी मेंढकों को जीने नहीं दिया है।’
केरल की सरकार ने लाभ के चक्कर में एक बार अमेरिका को बड़े स्तर पर मेंढकों का निर्यात कर दिया। उसका नुक़सान यह हुआ कि अगले साल ही केरल के फ़सल उत्पादन में बड़ी गिरावट दर्ज कर ली गई। जब कारण ढूंढे तो पता चला कि ज़मीन की उर्वरता के सबसे बड़े मित्र मेंढकों की टर्र-टर्र अब केरल में कम हो गई है। दरअसल, मेंढकों की ख़ुराक वे कीड़े-मकोड़े जो फ़सल को नुक़सान पहुंचाते हैं। जब केरल में मेंढक घट गए तो इन कीड़ों और मच्छरों की संख्या इतनी ज़्यादा बढ़ गई कि फ़सल को बचाना मुश्किल हो गया। कीटनाशकों का ख़ूब प्रयोग किया गया जिससे कि फ़सल की गुणवत्ता बुरी तरह प्रभावित हो गई। जब तक मेंढकों के निर्यात पर रोक लगी तब तक पानी ज़्यादा बह चुका था और उत्पादन बढ़ाने के लिए बड़े स्तर पर कीटनाशकों का प्रयोग किया गया। लेकिन फ़सल नहीं सुधर सकी। यही हश्र फ्रांस का हुआ जब मेंढक खाने के शौक़ीन फ्रांसीसी अपने देश के मेंढकों के हत्यारे हो गए। आख़िरकार सरकार को ही रोक लगानी पड़ी।
दुनियाभर में मेंढकों की पांच हज़ार से ज़्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें कुछ पर लुप्त होने का ख़तरा लगातार मंडरा रहा है। बीते दशकों में भारत सहित दुनिया के दूसरे देशों में भी मेंढक की नई प्रजातियां खोजी गई हैं। बीते साल ही पनामा के जंगलों में मेंढक की एक नई प्रजाति खोजी गई और उसका नाम स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थुनबर्ग के नाम पर रखा गया।
लेकिन नई खोजों में मशग़ूल मनुष्य ने मेंढक की 170 से अधिक प्रजातियों को धरती से विदा कर दिया है। एक भारतीय परम्परा की मानें तो मेंढक का घर में आगमन जितना शुभ माना जाता है, उसका जाना उतना ही अशुभ। लगातार विलुप्त होती मेंढक की प्रजातियां मानव जाति को क्या संकेत दे रही हैं, इसे समझने की ज़रूरत है। इसलिए अब ज़रूरी है कि हम विलुप्त होते मेंढकों को बचा लें, वरना एक दिन हम भी कूप मंडूक बनकर जाएंगे।
courtsey: लोकेन्द्र सिंह किलाणौत
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