विद्युत जामवाल की फिल्म क्रैक रिलीज, स्क्विड गेम का देसी वर्जन है फिल्म

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जिंदगी में कुछ कर दिखाने के लिए इंसान का ‘क्रैक’ होना जरूरी है…ये विद्युत जामवाल के वो बोल हैं जो मुंबई के गली बॉयज की डिक्शनरी का स्लैंग है यान‍ि क्रैक, जिसका इस्तेमाल वो हर रोज करते हैं. उनके लिए क्रैक का मतलब है दिमाग से थोड़ा पागल, लेकिन विद्युत जामवाल की 2 घंटे 28 मिनट की ये फिल्म देखकर मैं इतना जरूर कह सकती हूं कि ‘क्रैक’ देखने से आपका दिमाग तो क्रैक नहीं होगा. फिल्म में दिखाए गए कमाल के एक्शन सीन की वजह से आखिर तक आप इसे झेल ले जाते हैं, मेरा मतलब है सह पाते हो.

अगर आपको एक्शन फिल्में देखना पसंद है तो ‘क्रैक’ आपके लिए सही फिल्म है. क्योंकि इस फिल्म में कुछ ऐसा एक्शन दिखाया गया है, जो शायद ही इससे पहले आपने कहीं देखा हो. विद्युत जामवाल अपने इंटरनेशनल लेवल की एक्शन से और अर्जुन राजपाल अपनी इंटेंस एक्टिंग से फिल्म को न्याय देने की पूरी कोशिश करते हैं. लेकिन नोरा फतेही और एमी जैक्सन की एक्सप्रेशनलेस एक्टिंग निराश करती है.

कहानी है मुंबई की चॉल में अपने परिवार के साथ रहने वाले सिद्धार्थ दीक्षित (विद्युत जामवाल) की. कभी मुंबई की सड़कों पर तो कभी वहां की ट्रैन के ऊपर हैरतअंगेज स्टंट करने वाले सिड, कॉमनवेल्थ में मेडल जीतने वाले अपने पापा की तरह देश के लिए नहीं खेलना चाहते. बल्कि वो अपने बड़े भाई की तरह वर्चुअल गेमिंग का हिस्सा बनना चाहते हैं. और इसके पीछे उनका सिर्फ एक ही मकसद है, खूब सारे पैसे कमाना. पैसे कमाने का लालच सिद्धार्थ को देव (अर्जुन रामपाल) के ‘मैदान’ तक लेकर आता है, और वहां उन्हें अपने गुमशुदा भाई के बारे में कुछ ऐसा सच पता लगता है, जिससे उनकी दुनिया पूरी तरह से बदल जाती है. अब मुंबई का ये क्रैक आगे क्या करता है ये जानने के लिए आपको थिएटर में जाकर विद्युत जामवाल की ये फिल्म देखनी होगी.

कहानी और निर्देशन

‘क्रैक’ का निर्देशन आदित्य दत्त ने किया है, इससे पहले उन्होंने विद्युत की फिल्म ‘कमांडो 3’ का भी निर्देशन किया था. ‘कमांडो’ के मुकाबले ‘क्रैक’ एक्शन स्टंट और सिनेमैटोग्राफी के मामले में बहुत एडवांस है. आदित्य ने रेहान खान, सलीम मोमिन और मोहिंदर प्रताप सिंह के साथ मिलकर फिल्म की स्क्रिप्ट लिखी है, जो काफी हद तक प्रेडिक्टेबल है, लेकिन एंगेजिंग डायलॉग के दम पर ये फिल्म हमें बांधकर रखती है. बाकी कहानी की बात करें, तो स्क्विड गेम को देसी इमोशन का तड़का देकर हमारे सामने परोसा गया है. फिल्म की कहानी जितनी कमजोर है उतने ही फिल्म के एक्शन सीन बेमिसाल हैं.

फिल्म की शुरुआत में बिना किसी बॉडी डबल विद्युत चलती ट्रेन के दरवाजे पर लटकते हुए कुछ स्टंट कर रहे हैं. अचानक दरवाजे पर लटकते हुए ये एक्शन हीरो अगले ही पल ट्रेन के ऊपर चढ़ जाते हैं और फिर पलक झपकते ही ट्रेन से बाहर भी कूद जाते हैं. फिल्म में इस तरह के कई एक्शन सीन हैं, जिन्हें देखकर आप दंग रह जाओगे. इसके अलावा मैदान के चेस सीक्वेंस में भी बेहतरीन कैमरा वर्क किया गया है. हर एक्शन सीन में सिनेमैटोग्राफर मार्क हैमिल्टन ने आदित्य के विजन को बखूबी अपने वीडियो में कैप्चर किया है. इन दोनों को साथ मिला है, विद्युत और अर्जुन रामपाल की शानदार एक्टिंग का.

एक्टिंग

‘क्रैक’ विद्युत जामवाल के लिए ही बनी है. हर फिल्म के साथ उनकी एक्टिंग में इम्प्रूवमेंट नजर आ रहा हैं. मुंबई का ‘टपोरी’ उन्होंने सही ढंग से बड़े पर्दे पर पेश किया है, इससे पहले रणवीर सिंह ने ‘गली बॉय’ में अपने किरदार पर बड़ी शिद्दत के साथ काम किया था और वही ईमानदारी हमें विद्युत के किरदार में भी नजर आती है. स्टंट और एक्शन की बात करें तो विद्युत इसी के लिए जाने जाते हैं. हमेशा की तरह उनका हर स्टंट उन्होंने सफाई और सहजता से परफॉर्म किया है. अर्जुन भी अपनी इंटेंस एक्टिंग से विद्युत का पूरा साथ दे रहे हैं. लेकिन नोरा और एमी की बात करें तो फिल्म में ग्लैमर ऐड करने के अलावा, वे दोनों इस कहानी में कुछ ज्यादा कंट्रीब्यूट नहीं करतीं.

क्यों देखें फिल्म?

अगर आपको एक्शन फिल्में पसंद हैं या फिर आप विद्युत जामवाल के फैन हैं, तो आपको ये फिल्म जरूर देखनी चाहिए. गेमिंग को पसंद करने वाली ऑडियंस भी इसे थिएटर में जाकर देख सकती है, लेकिन जिन्हें इस वर्चुअल गेमिंग की दुनिया से नफरत है, वो इस फिल्म से दूर रहें. लॉजिक ढूंढ़ने वाले भी इसे स्वाइप लेफ्ट कर ‘आर्टिकल 370’ की तरफ राइट में मुड़ सकते हैं. यानी अगर सिड दीक्षित के अंदाज में एक लाइन में इस फिल्म का रिव्यू देना होगा तो: ‘बोले तो वन टाइम वॉच मूवी है भिड़ू, देखना है तो देख कर आजा’

फिल्म का काम सिर्फ मनोरंजन करना नहीं होता, इसलिए फिल्म देखते हुए जिन बातों ने परेशान किया, उनके बारे में भी लिखना जरूरी है. ‘क्रैक’ के मेकर्स इस फिल्म को इंडिया की पहली’ एक्सट्रीम स्पोर्ट्स एक्शन फिल्म’ मानते हैं, लेकिन डार्क वेब की दुनिया में इस तरह के खेले जाने वाले जानलेवा गेम को ‘स्पोर्ट्स’ कहना कितना सही है? क्या एक्सट्रीम स्पोर्ट्स बोल देने से हमारी जिम्मेदारी खत्म हो जाती है? वर्चुअल गेमिंग को ‘स्पोर्ट्स’ के नाम पर ग्लोरिफाई करना सही नहीं है. साथ ही कहानी तक तो ठीक है, लेकिन जिस ट्रेन के दंग कर देने वाले स्टंट को फिल्म की ओपनिंग में दिखाया गया है, उस तरह के स्टंट करते हुए हर हफ्ते लगभग एक गली बॉय अपनी जान गंवा देता है और चद्दर में लिपटे हुए उनके शव हमें मुंबई की सड़क पर या रेलवे स्टेशन पर कई बार देखने मिलते हैं, तो क्या ऐसे सीन को दिखाते हुए साथ में एक डिस्क्लेमर जारी करना मेकर्स की जिम्मेदारी नहीं है? उम्मीद है इन चीजों का भी भविष्य में ध्यान रखा जाएगा, क्योंकि विद्युत जामवाल के ज्यादातर फैन्स बच्चे हैं.

– एजेंसी


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