अब अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी संयुक्त राष्ट्र में सुधार की वकालत की है. संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करते हुए बाइडन ने कहा कि समय आ गया है कि इस संस्था को और समावेशी बनाया जाए ताकि वो आज की दुनिया की ज़रूरतों को बेहतर तरीक़े से पूरा कर सके.
उन्होंने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का ख़ास तौर पर ज़िक्र करते हुए कहा, “अमेरिका समेत सुरक्षा परिषद के सदस्यों को संयुक्त राष्ट्र चार्टर की रक्षा करनी चाहिए और सिर्फ़ बहुत ही विषम परिस्थितियों में वीटो का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, ताकि परिषद विश्वसनीय और प्रभावी बनी रहे.”
अपने संबोधन में बाइडन ने आगे कहा, “यही वजह है कि अमेरिका सुरक्षा परिषद में स्थायी और अस्थायी, दोनों तरह के सदस्यों की संख्या बढ़ाने का समर्थन करता है. इनमें वे देश भी शामिल हैं, जिनकी स्थायी सीट की मांग का हम लंबे समय से समर्थन करते आ रहे हैं और अफ़्रीका, लैटिन अमेरिका और कैरेबियाई देश भी शामिल हैं.”
बाइडन के इस बयान को संयुक्त राष्ट्र में सुधार की भारत की लंबे समय से चली आ रही मांग का समर्थन क़रार दिया जा रहा है.
भारतीय मीडिया में अमेरिकी प्रशासन के एक वरिष्ठ अधिकारी का नाम सार्वजनिक किए बग़ैर दावा किया जा रहा है कि बाइडन ने भारत, जापान और जर्मनी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाए जाने का समर्थन किया है.
हालाँकि बाइडन ने अपने संबोधन में इनमें से किसी भी देश का नाम नहीं लिया.
क्या कहते हैं जानकार?
ईरान और चेक गणराज्य में भारत के राजदूत रह चुके और भारतीय विदेश मंत्रालय में यूएन डेस्क पर काम कर चुके भारत के पूर्व राजनयिक डीपी श्रीवास्तव के अनुसार बाइडन का यह ताज़ा बयान बहुत ही महत्वपूर्ण है.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, “90 के दशक में इस विषय पर जब संयुक्त राष्ट्र में चर्चा शुरू हुई थी तो उस समय मैं विदेश मंत्रालय में निदेशक था और मैं इसी विषय को डील करता था. उस समय अमेरिका यूएनएससी के विस्तार के लिए तैयार नहीं था. आज उनका राष्ट्रपति ख़ुद कह रहा है कि सुरक्षा परिषद का विस्तार होना चाहिए और स्थायी और अस्थायी सदस्यों की संख्या बढ़नी चाहिए.”
डीपी श्रीवास्तव के अनुसार यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि आज बाइडन वीटो के कम से कम इस्तेमाल की बात कर रहे हैं क्योंकि पहले कोई भी स्थायी सदस्य इसके लिए तैयार नहीं था.
वीटो का सबसे ज़्यादा इस्तेमाल अब तक तत्कालीन सोवियत संघ ने किया है और दूसरे नंबर पर अमेरिका रहा है.
राजदूत श्रीवास्तव की नज़र में बाइडन का ताज़ा बयान भारत के लिए अच्छी ख़बर ज़रूर है लेकिन फिर भी वो कहते हैं कि बाइडन के बयान को और बारीकी से देखने की ज़रूरत है.
उनके अनुसार बाइडन ने पर्मानेंट सीट शब्द का ज़िक्र किया है पर्मानेंट सदस्यता का नहीं, और दोनों में काफ़ी फ़र्क़ है.
वो कहते हैं, “पर्मानेंट सीट अक्सर अफ़्रीकी देशों के लिए इस्तेमाल होता है जो कि रोटेशनल सीट है. इसका मतलब है कि एक वर्ग या एक क्षेत्र को दी जाएगी और उस सीट का रोटेशन होगा उस क्षेत्र के देशों के बीच. बाइडन के बयान में यह कन्फ़यूज़न बना हुआ है.”
राजदूत श्रीवास्तव भले ही बाइडन के इस बयान को बहुत संभल कर देखने की सलाह दे रहे हैं लेकिन संयुक्त राष्ट्र में भारत की स्थायी राजदूत रह चुकी पूर्व राजनयिक भास्वती मुखर्जी इसे सीधे तौर पर भारत की मांग का समर्थन क़रार देती हैं.
बीबीसी हिंदी से बातचीत में राजदूत भास्वती मुखर्जी कहती हैं, “बाइडन ने जो कहा है वो भारत की स्थिति का समर्थन है. अमेरिका ने बहुत सालों से यूएनएससी में भारत के स्थायी सदस्य की दावेदारी का समर्थन किया है. राष्ट्रपति बाइडन ने उसी स्थिति को दोहराया है.
बाइडन के पहले ट्रंप और उससे पहले राष्ट्रपति ओबामा ने भी कहा है. इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि अमेरिका में कौन सी पार्टी सत्ता में है.”
भास्वती मुखर्जी के अनुसार बाइडन ने भारत का नाम सीधे लिया या नहीं, इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि पिछले 15 सालों से अमेरिका यूएनएससी में भारत की सदस्यता का समर्थन करता रहा है और अगर अमेरिका इस स्थिति में कोई बदलाव करता है तो राष्ट्रपति बाइडन को सार्वजनिक तौर पर कहना पड़ेगा कि अमेरिका अब यूएनएससी में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन नहीं करता है.
वो कहती हैं, “यह वैसे ही है जैसे आप आलू का पराठा कहें या पराठे में आलू कहें. पर्मानेंट सीट और पर्मानेंट मेंबर में कोई फ़र्क़ नहीं है. फ़र्क़ तब होगा जब पर्मानेंट सीट या पर्मानेंट मेंबर हम लोग बनें ( बाइडन चाहे जो भी कहें) और हमें पर्मानेंट वीटो नहीं दिया जाए क्योंकि पर्मानेंट सीट या पर्मानेंट मेंबर को पर्मानेंट वीटो है जिससे वो अपनी स्थिति को सुरक्षित कर सकते हैं. बाइडन ने यह नहीं कहा कि जो नए पर्मानेंट मेंबर आएंगे उनको पर्मानेंट वीटो दिया जाएगा या नहीं. बस वही रह गया है वर्ना इन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं है.”
-एजेंसी
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