शहरों से विलुप्त हुई मगर ब्रज के गांवों में आज भी जीवित है टेसू-झांझी की परंपरा

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विजयदशमी के पर्व के साथ ब्रज के गांवों में महाभारत काल से जुड़ी टेसू-झांझी की पांच दिवसीय परंपरा शुरू हो जाती है, जो शरद पूर्णिमा पर टेसू-झांझी के विवाह के साथ संपन्न होती है। शहर से लेकर गांव-देहात तक टेसू झांझी की दुकानें सज गई हैं। लेकिन शहर में सजी इन दुकानों को टेसू और झेंझी के खरीददार नहीं मिल रहे हैं।

आगरा के कमलानगर, बल्केश्वर, सुल्तानगंज की पुलिया, रामबाग, घटिया आजम खां, मदिया कटरा, आवास—विकास, नौलक्खा, सुल्तानगंज की पुलिया, आगरा कैंट, टेढ़ी बगिया पर कई बाजारों में टेसू और झेंझी बनाने वाले कारीगर हैं। पिछले कुछ सालों से टेसू—झेंझी बना तो रहे हैं लेकिन बनाना अब कम कर दिया है। कारीगरों का कहना है कि बहुत कम ही लोग इन्हें खरीदने आते हैं।

पुराने लोग बताते हैं कि यह लोक परंपरा महाभारत काल से जुड़ी है। एक दौर था जब नवरात्र खत्म होते ही टेसू-झांझी की ठेल लग जाती थी। कारीगर बनाकर दुकानदारों को बेचते थे। इनसे उनकी अच्छी कमाई हो जाती थी। अब परपंरा सिमटने के साथ कारीगरों का रोजगार भी छिनने लगा है। टेसू-झांझी बनाने वाले कारीगर बताते हैं कि पांच साल पहले तक अच्छी बिक्री होती थी। नवरात्र के एक महीने भर पहले से इससे बनाने का काम शुरू कर दिया जाता था। समय बदलने के साथ यह परपंरा भी अब सिमटने लगी है।

कारीगर बताते हैं कि इस बार टेसू-झांझी पर भी महंगाई की मार है। मिट्टी आदि नहीं मिलने के कारण कीमतें बढ़ी हैं। दुकानों पर 20 से 200 रूपये की कीमत तक के टेसू और झेंझी उपलब्ध हैं।

महाभारत काल से जुड़ी है टेसू और झेंझी की कहानी

हर साल पूर्णिमा से कुछ दिन पहले बच्चे टेसू और झेंझी की मूर्तियां बनाकर उनका विवाह रचाते हैं। इसके लिए वे टोली बनाकर घर-घर जाते हैं और पैसे मांगते हैं। पूर्णिमा की रात को धूमधाम से टेसू और झेंझी की शादी होती है। परंपरा के अनुसार, शादी के कुछ समय बाद टेसू की हत्या हो जाती है। यह एक प्रतीकात्मक खेल है, जिसमें बच्चों को शादी के रीति-रिवाज और परंपराओं की शिक्षा दी जाती है।

भारत की प्राचीन परंपरा

यह खेल महाभारत की एक कहानी से प्रेरित है। कहा जाता है कि कुंती ने शादी से पहले सूर्य उपासना और तपस्या से दो पुत्रों को जन्म दिया – बब्बरवाहन और कर्ण। कुंती, लोकलाज के डर से बब्बरवाहन को जंगल में छोड़ आई थीं। बब्बरवाहन धीरे-धीरे बड़ा हुआ और उपद्रव मचाने लगा। पांडवों को उससे बहुत परेशानी होने लगी।

बब्बरवाहन और श्रीकृष्ण का संवाद

कहा जाता है कि जब बब्बरवाहन का उपद्रव बढ़ने लगा, तो सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण से प्रार्थना की कि वे इस समस्या का हल करें। श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से बब्बरवाहन का सिर काट दिया। लेकिन बब्बरवाहन अमृतपान कर चुका था, इसलिए वह मरा नहीं। उसका सिर कटकर एक छैंकुर के पेड़ पर रख दिया गया। श्रीकृष्ण ने फिर अपनी माया से झेंझी की रचना की और बब्बरवाहन (टेसू) से उसका विवाह कराया।

विवाह के बाद भी बब्बरवाहन का उपद्रव थमा नहीं। अंत में श्रीकृष्ण ने उसे मारने का निर्णय लिया। तभी से यह प्रतीकात्मक खेल शुरू हुआ, जिसमें टेसू और झेंझी की शादी होती है और बाद में टेसू को मार दिया जाता है। यह खेल बच्चों के लिए मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा का माध्यम भी बनता है।

ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी जीवित है यह परंपरा

टेसू और झेंझी का खेल आज भी ग्रामीण इलाकों में बेहद लोकप्रिय है। बाजारों में पूर्णिमा से पहले ही टेसू और झेंझी की मूर्तियां बिकने लगती हैं। हालांकि, पहले यह खेल हर जगह खेला जाता था, लेकिन अब यह कॉलोनियों और सोसाइटी में कम और छोटे कस्बों, मोहल्लों और बस्तियों में ज्यादा देखने को मिलता है।

टेसू की उत्पत्ति पर विद्वानों की अलग-अलग राय

टेसू की उत्पत्ति को लेकर कई मत हैं। कुछ विद्वान मानते हैं कि टेसू का आरंभ महाभारतकाल से हुआ, जबकि कुछ इसे बाद की परंपरा मानते हैं। इस खेल के माध्यम से बच्चों को रीति-रिवाजों और परंपराओं की शिक्षा मिलती है, साथ ही वे सामाजिकता और एकता का भी अनुभव करते हैं।

टेसू और झेंझी का यह खेल हमारे समाज में सदियों से चला आ रहा है। भले ही समय के साथ यह कुछ क्षेत्रों तक सिमट गया हो, लेकिन इसकी लोकप्रियता और महाभारतकालीन मान्यता इसे खास बनाती है।


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