पुरी के शंकराचार्य के साथ, राम निवास कठेरिया की एक फोटो सोशल मीडिया पर घूम रही है, जिसमे यह दिख रहा है कि, कठेरिया जी उनका चरण स्पर्श करने जा रहे थे और उन्होंने ऐसा नहीं करने दिया। कठेरिया जी दलित समाज से आते हैं तो, यह कहा गया कि, एक दलित होने के नाते, उन्हे शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने चरण स्पर्श नहीं करने दिया और इसी भाव पर केंद्रित, विभिन्न लोगों की प्रतिक्रियाएं भी आई और अब भी आ रही है। पर, सच तो यह है कि शंकराचार्य का चरण स्पर्श चाहे वह ब्राह्मण हो या दलित, किसी के भी द्वारा नहीं किया जा सकता है। यह शंकर परंपरा के अनुसार, वर्जित है। एक प्रसंग मेरे साथ भी ऐसा हो चुका है, जिसे मैं आप सब से साझा कर रहा हूं।
1997 में मैं कानपुर के एसपी ट्रैफिक था और कांची कामकोटि के शंकराचार्य, जयेंद्र सरस्वती, उन दिनों कानपुर में प्रवास पर थे। शंकराचार्य, का प्रोटोकॉल होता है और उनके स्वागत, सम्मान, यात्रा आदि सबके बारे में शासकीय प्रबंध होते हैं और उसी के अनुसार पुलिस आदि की व्यवस्था होती है। शंकराचार्य,जयेंद्र सरस्वती, तब प्रयाग में थे और वे वहां से, कानपुर फर्रुखाबाद होते हुए दिल्ली की ओर जा रहे थे। उसी यात्रा क्रम में वे कानपुर में कुछ दिन के लिए रुके थे। कानपुर में वे कमला नगर, जेके मंदिर के पास, जेके ग्रुप का एक अतिथिगृह था, उसी में रुके थे और उनके आतिथ्य की सारी व्यवस्था जेके ग्रुप के चेयरमैन, गौर हरि सिंहानिया जी के जिम्मे थी।
शंकराचार्य निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार आ गए थे और उसकी सूचना मुझे थाना नजीराबाद, जिस थाना क्षेत्र में वे रुके थे, द्वारा मिल गई थी। दूसरे दिन सुबह लगभग 10 बजे मैं जेके अतिथिगृह के गया, वहां पर शहर के गणमान्य लोग और गौर हरि सिघानिया जी सपत्नी उपस्थित थे। चूंकि मैं 1986 से 1992 तक कानपुर में ही डीएसपी के रूप में जिले और बिजली बोर्ड में रह चुका हूं तो वे मुझे बहुत अच्छी तरह जानते थे। वे मुझे अंदर ले गए और ड्राइंग रूम में बैठा दिया। फिर उन्होंने धीरे से कहा, शंकराचार्य जी अभी कुछ लोगो से मिल रहे हैं, थोड़ी देर में अकेले होते हैं तो, आप उनके दर्शन कर लीजिए।
थोड़ी देर के बाद, अंदर से एक सन्यासी, बाहर आए और उनके साथ, वे लोग भी जो अंदर शंकराचार्य के दर्शनार्थ गए थे। अब गौर बाबू ने कहा सीओ साहब अब आप अंदर जाएं। वे मुझे सीओ साहब ही कहते थे, क्योंकि मेरा परिचय उनसे तभी का था, जब मैं उनके इलाके का सीओ था। मैं अंदर गया। एक ऊंचे भव्य आसान पर आचार्य विराजमान थे और उनके पांव के नीचे एक चौकी रखी थी। उसी के आगे एक और छोटा सा पीढ़ा रखा था। वहीं नीचे उनके एक शिष्य बैठे थे। कमरे में कालीन बिछी थी और कोई कुर्सी नहीं थी। मैने जूता, बेल्ट, कैप आदि बाहर ही उतार दिया था। और जब उनके आसान के नजदीक आया और प्रणाम की मुद्रा में झुका तो उनके शिष्य ने मुझे रोक दिया और कहा कि, चरणस्पर्श न करें। आचार्य का चरण स्पर्श नहीं किया जाता है। मैं रुक गया और प्रणाम कर के वही बैठ गया, तभी गौर हरि सिघानिया जी भी आ गए और उन्होंने शंकराचार्य जी को मेरा परिचय दिया। शंकराचार्य जी ने मुस्कुराते हुए आशीष की मुद्रा में अपना हाथ उठा दिया। दस मिनट तक हम वहां बैठे फिर उनके शिष्य से यह पूछ कर कि, प्रस्थान का प्रोग्राम जब हो तो, बता दीजियेगा। उन्होंने कहा एक दिन बाद। शंकराचार्य मुझे देखते रहे और मंद मंद मुस्कुराते रहे, पर न उन्होंने, मुझसे कुछ पूछा और न ही मैने कुछ कहा।
दस मिनट के बाद, उनके एक शिष्य, मुझे बाहर छोड़ने आए और कहा कि प्रसाद लेकर जाइयेगा। उनके शिष्य से मैने पूछा कि, शंकराचार्य का चरण स्पर्श क्यों नहीं किया जाता तो, उन्होंने कहा कि, “राजा और शंकराचार्यों का देह स्पर्श वर्जित है। जो श्रद्धालु उनका चरण स्पर्श करना चाहे, उनके चरण के आगे रखे लकड़ी के पीढ़े को स्पर्श कर लें, यही परंपरा है। यह व्यवस्था जाति निरपेक्ष है, चाहे वह ब्राह्मण हो या दलित, किसी को भी शंकराचार्यों के चरण स्पर्श की अनुमति नहीं है।”
शंकराचार्यों का प्रोटोकॉल, सिर्फ उन्ही पीठों के शंकराचार्यों के लिए है, जिनकी स्थापना, आदि शंकर ने की थी। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठ इस प्रकार हैं। वे पीठ हैं, बद्री केदार, पुरी, द्वारिका और कांची कामकोटि है। श्रृंगेरी बाद में स्थापित हुआ और जबकि कांची कामकोटि, आदि शंकर द्वारा स्थापित पीठ है। पर इस समय केवल तीन शंकराचार्य हैं। बद्री केदार के एक ही शंकराचार्य है, स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती, जगन्नाथ पुरी के स्वामी निश्चलानंद, जिनपर यह विवाद चल रहा है और कांची कामकोटि के स्वामी विजयेंद्र सरस्वती हैं। श्रीगेरी पीठ के स्वामी भारती तीर्थ भी एक अन्य शंकराचार्य हैं। इसके अतिरिक्त अन्य साधु जो, समय समय पर, खुद को शंकराचार्य घोषित करते हैं, वे शंकर परंपरा के शंकराचार्य नही हैं और न ही, उन्हे शंकराचार्य का प्रोटोकॉल और राजकीय मान्यता मिलती है। शंकराचार्यों का क्षेत्र भी बंटा होता है और उन्हे राजा के समकक्ष रख कर देखे जाने की परंपरा है।
आदि शंकर ने जब दशनामी अखाड़े और शंकराचार्यों की परंपरा स्थापित की तो, उन्हे विनियमित करने के लिए एक नियमावली भी बनाई, जिसे, मठाम्नाय (मठ+आम्नाय) महानुशासन (महा+अनुशासन) कहा जाता है। आदि शंकराचार्य द्वारा लिखे गए इस में उन्होंने, अपने द्वारा स्थापित चार मठों की व्यवस्था से सम्बन्धित विधान और सिद्धान्त दिये। यह एक प्रकार से सन्यास धर्म की गाइडलाइन है। इस छोटी सी पुस्तिका में कुल 73 श्लोक हैं। ‘आम्नाय’ का जो अर्थ इस नियमावली में जो बताया गया है, वह है
1. पवित्र प्रथा या रीति
2. वेदों आदि का अध्ययन, अभ्यास और पाठ
3. वेद
4. अध्ययन के उद्देश्य से किया जाने वाला अभ्यास।
इस ग्रन्थ में यह स्पष्ट किया गया है कि, शंकराचार्य पद का अधिकारी, कौन सन्यासी हो सकता है और अयोग्य व्यक्ति के लिए क्या व्यवहार होना चाहिए।
महानुशासन में दशनामी संन्यासी को संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त न हो जाने का निर्देश दिया गया है। महानुशासन में यह कहा गया है कि,
“मठों को संपत्ति का संयम करना चाहिए, इतना अन्न होना चाहिए कि असहाय, पीड़ित और दरिद्रजनों को आश्रय दिया जा सके। मठों में दरिद्रता का नाम भी न दिखाई दे। आचार्य और संन्यासी उस वैभव का उपयोग धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए करें, स्वयं निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ग्रहण करें।”
उसी ग्रंथ से निम्न उद्धरण हैं,
“महानुशासन में आगे की धर्माज्ञाएं हैं – मठपति अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए व धर्म-प्रतिष्ठा के लिए आलस्य त्यागकर परिश्रम करें। वे अपने-अपने शासन प्रदेश में सदैव भ्रमण कर लोगों को वर्णाश्रम के कर्त्तव्यों का उपदेश दें, सदाचार बढ़ाएं। एक मठपति दूसरे मठपति के अधिकार क्षेत्र में न जाए। सर्व मठपति बीच-बीच में एकत्रित होकर धर्म-चर्चा करें व देश में धार्मिक सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए प्राणपण से प्रयत्न करें; वैदिक धर्म प्रगतिशील व अखंडित रहे, इसके लिए वे दक्ष रहें।”
आचार्य के मतानुसार, “विद्वान लोग ही धर्म के प्रति नियामक हो सकते हैं। वे इन धर्म-पीठों पर ध्यान रखें, समय-समय पर मठपतियों के आचरण को परखें। विद्वान, चरित्रवान, कर्त्तव्यदक्ष, सद्गुणी,दशनामी संन्यासी को ही पीठाधिष्ठित बनाएं। वह पीठाध्यक्ष कर्त्तव्यच्युत साबित हो, तो विद्वान उसे पीठ से पदच्युत कर दें।”
पुरी के शंकराचार्य के साथ हुआ यह विवाद कोई नया नहीं है। वे अक्सर ऐसे बयान देते रहते हैं जिससे तरह तरह के विवाद उत्पन्न हो जाते हैं। उसी विवादो की कड़ी में, यह भी एक नया विवाद है। दलितों के साथ हिंदू धर्म में भेदभाव कोई आज से नहीं है बल्कि यह पहले से चला आ रहा है। समाज सुधारक इस भेदभाव के खिलाफ समय समय पर आवाज भी उठाते रहे हैं। पूरे भारत में, इस घृणित और अमानवीय कुप्रथा के खिलाफ आंदोलन भी हुए हैं, और अब भी हो रहे हैं। दलितों का मंदिर प्रवेश भी, वर्जित था और मंदिर प्रवेश के लिए कई महत्वपूर्ण और प्रभावी आंदोलन भी हुए हैं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने, साल 1917 के अधिवेशन में, एक प्रस्ताव पास कर जनता से अपील की थी कि, “ऐसी सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करें, जिनके कारण पिछड़े और दलित वर्गों को हेय दृष्टि से देखा जाता है और उनके साथ अन्याय किया जाता है।” इसके बाद छुआछूत खत्म करने की गांधी जी की प्राथमिकता के आधार पर 1923 में कांग्रेस ने ठोस कदम उठाने का प्रयास किया।
उस समय के छुआछूत के खिलाफ आंदोलनों के रूप में केरल की दो घटनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। जिनका उल्लेख कर रहा हूं।
वायकोम सत्याग्रह –
केरल में एझवा और पुलैया नामक अछूत जातियों को सवर्णों से क्रमशः 16 व 32 फुट की दूरी रखनी पड़ती थी। त्रावणकोर के एक गाँव वायकोम में एक मंदिर से जुड़ी सड़क को इस्तेमाल करने की अनुमति अवर्ण या दलित वर्ग को नहीं थी। केरल कांग्रेस समिति ने इस छुआछूत के खिलाफ सत्याग्रह करने का निर्णय लिया। कई सवर्ण संगठनों जैसे- नायर समाजम, केरल हिंदू सभा, सर्वोच्च ब्राह्मण जाति नंबूदरियों की योगक्षेम सभा आदि ने न केवल सत्याग्रह का समर्थन किया, बल्कि अछूतों के मंदिर प्रवेश की भी वकालत की। आंदोलन चलता रहा, सन्1925 में गांधी जी ने केरल का दौरा किया तथा त्रावणकोर की महारानी से एक समझौता किया जिसमें अछूतों को मंदिर की सड़क का इस्तेमाल करने की अनुमति दे दी गई थी। अब भी अछूतों को मंदिर प्रवेश की अनुमति न मिलने के विरोध में गांधी जी ने अपने दौरे में केरल के किसी भी मंदिर में प्रवेश नहीं किया। ई. वी. रामास्वामी नायकर इस आंदोलन से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे।
गुरुवयूर सत्याग्रह-
स्थानीय नेता के.केलप्पण की अपील पर केरल कांग्रेस समिति ने 1931 में मंदिर प्रवेश का मुद्दा फिर से उठाया। समिति ने गुरुवयूर में मंदिर प्रवेश सत्याग्रह छेड़ने का निर्णय लिया। इस सत्याग्रह में भी दलितों से लेकर ऊँची जाति नंबूदरी तक के लोग शामिल थे। 1932 में केलप्पण अनशन पर बैठ गए। गांधी जी द्वारा स्वयं आंदोलन का नेतृत्त्व करने के आश्वासन के बाद ही केलप्पण ने अनशन तोड़ा। सत्याग्रह स्थगित कर दिया गया। उस समय तो मंदिर प्रवेश की अनुमति नहीं मिली, परंतु इस आंदोलन को मिले ज़बरदस्त समर्थन ने उस समय एक सामाजिक जागृति ला दी थी।
उत्तर भारत की तुलना में दक्षिण भारत में जातिगत भेदभाव अधिक रहा है। हालांकि, अब चीजें काफी कुछ बदल भी गई है, फिर भी ऐसी खबरें अक्सर आती रहती हैं जिनसे यह पता चलता है कि यह बीमारी अभी कहीं न कहीं समाज में शेष है, जिसका उन्मूलन एक विषमताहीन समाज के लिए जरूरी है।
साभार- श्री विजय शंकर सिंह जी ( लेखक रिटायर्ड आईपीएस है)
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