पिछड़े समाज के बड़े नेताओं के सपा में चले जाने के बाद भी ‘कुशवाहा, मौर्या, शाक्य, सैनी, नोनिया, कश्यप का वोट भाजपा को मिला
उत्तर प्रदेश में योगी 2.0 की सरकार का शपथग्रहण हो गया। शपथग्रहण समारोह की भव्यता के जरिये भाजपा-आरएसएस ने ‘योगी बाबा’ को भाजपा का अगला राष्ट्रीय नेता भी प्रोजेक्ट कर दिया। इसके लिए देश के लगभग हर राज्य के अखबारों में पहले पन्ने पर शपथग्रहण का विज्ञापन भी प्रकाशित किया गया।
इसके बावजूद देश भर के अधिकांश पिछड़े-दलित आबादी की रुचि 10 मार्च से लेकर 25 मार्च की सुबह तक यही जानने में थी कि यूपी में डिप्टी सीएम का क्या होगा और उसमें भी केशव प्रसाद मौर्य का क्या होगा?
क्योंकि, केशव प्रसाद मौर्य का सिराथू से हार जाना सिर्फ अखिलेश यादव की सामाजिक घेराबंदी भर का मामला नहीं था, बल्कि एक रणनीति के तहत केशव को न सिर्फ सिराथू में हराया गया, बल्कि पूरे कौशाम्बी जनपद में भाजपा का खाता भी नहीं खुला।
योगी बाबा की टीम के लोग और यूपी के अधिकांश ठाकुर बिरादरी की नजरों में केशव 2017 से ही चुभते रहे थे। मीडिया हमेशा केशव मौर्य को योगी के समक्ष रोड़े की तरह पेश कर देती थी। केशव मौर्य अपने बयानों से भी कई बार योगी की प्रभुता को चुनौती देते नजर आते थे। उन्होंने कई बार कहा था कि हम कमल के निशान की अगुवाई में चुनाव लड़ने जा रहे हैं। चूंकि, 2017 में भाजपा की जीत में योगी कहीं नहीं थे, लेकिन केशव उस समय प्रदेश अध्यक्ष रहे थे।
ऐसे में योगी समर्थकों के मन में इस चुनाव में भी यह डर बना हुआ था कि यदि केशव जीतते हैं और अकेले भाजपा की जगह एनडीए को बहुमत मिलता है, तो योगी बाबा के लिए मुश्किल हो जायेगी।
केशव की मौजूदा यूपी भाजपा संगठन पर पकड़ किसी से छिपी नहीं है। आज भी ऑफ द रिकॉर्ड यदि विधायकों से पूछा जाये तो 255 में ज्यादातर ओबीसी/दलित यहां तक कि ब्राह्मण बिरादरी के विधायक योगी की जगह केशव को चुनना पसंद करेंगे। ऐसे में योगी के समर्थक बाहर से जो भी बोल रहे हों, अंदर से बिल्कुल भी केशव को जीतते नहीं देखना चाहते थे।
केशव ने तब शायद इस खतरे को नहीं भांपा होगा, क्योंकि उन्हें लगा कि वे भी संघ और विश्व हिंदू परिषद के उतने ही अपने हैं, जितने कि योगी बाबा। इसलिए, कार्यकर्ता उनके साथ कोई छल नहीं करेंगे। यही वजह रही कि सिराथू में बड़ी रैलियों के अलावा वे प्रदेश भर में भाजपा के स्टार प्रचारक की भूमिका निभाते रहे और सिराथू को परिवार के लोगों और भाजपा कार्यकर्ताओं के भरोसे छोड़ दिया। यहां एक और बात उनके खिलाफ गयी, वह था उनके परिवार के लोगों की राजनीतिक अपरिपक्वता।
ख़ैर, केशव मौर्य की हार के बाद सपा वालों से ज्यादा योगी बाबा के समर्थक खुश हो रहे थे। उन्हें लगा कि बला टली। जैसे परिणाम आये थे, उसमें बला सचमुच टल चुकी थी। योगी ही जीत के हीरो थे, भले ही स्वामी प्रसाद मौर्य, धर्म सिंह सैनी, दारा सिंह चौहान, रोशन लाल वर्मा जैसे पिछड़े समाज के बड़े नेता के सपा में चले जाने के बाद भी ‘कुशवाहा, मौर्या, शाक्य, सैनी, नोनिया, कश्यप, लोध समेत अन्य अति पिछड़ी बिरादरी का अधिकांश वोट भाजपा को ही मिला।
मैंने पहले भी बताया था कि योगी आदित्यनाथ ने मोदी जी से साफ-साफ कह दिया था कि वे हारे विधायक/मंत्री कैबिनेट में नहीं चाहते हैं। केशव मौर्य के विकल्प के रूप में उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह का नाम भी सूझा दिया था, लेकिन गृह मंत्री अमित शाह, केशव प्रसाद मौर्य की सबको साथ लेकर चलने की कला/काबिलियत से अच्छी तरह वाकिफ थे।
इसके साथ-साथ केशव प्रसाद मौर्य को विपक्षी नेताओं द्वारा स्टूल मंत्री कहा जाना केशव के पक्ष में चला गया। केशव मौर्य यदि फिर से डिप्टी सीएम नहीं बनाये जाते तो मैसेज लाउड एंड क्लियर जाता कि एक पिछड़े डिप्टी सीएम को साजिश के तहत निबटा दिया गया। हालांकि, योगी बाबा को इस बात/मैसेज से कोई फर्क नहीं पड़ रहा था, लेकिन दूरदर्शी अमित शाह ने डिप्टी सीएम का मामला अपने हाथ में ले लिया।
योगी बाबा को भी यह समझा दिया गया कि महाराज – ‘सांप तो मर चुका है, जरूरत है कि लाठी न टूटे। यानी केशव मौर्य तो हार कर सीएम पद की रेस से पहले ही बाहर हो चुके हैं और यदि इसके बाद भी उनको डिप्टी सीएम बना दिया जाये तो कुशवाहा, मौर्या, शाक्य, सैनी बिरादरी ऐसे ही भाजपा की समर्थक हो जायेगी। बाकी के पिछड़ों को भी लगेगा, देखो भाजपा में पिछड़ों का कितना सम्मान हो रहा है।
चूंकि, पल्लवी पटेल के हाथों केशव की हार ने कुशवाहा और कुर्मी के बीच यूपी में एक खाई बन चुकी है। अगर केशव की जगह स्वतंत्र डिप्टी सीएम बनते, तो यह खाई और गहरी हो जाती, जिसका नुकसान 2024 में एनडीए को हो सकता था।
अंततोगत्वा, योगी को भी अमित शाह की बात माननी पड़ी और हार कर भी केशव एक बाजी जीत गये। फिलहाल, वे बाजीगर तो नहीं, लेकिन एक राजनीतिक जीवनदान जरूर पा चुके हैं।