
कभी किरण चौधरी और शशि थरूर मंचों पर एक-दूसरे के खिलाफ़ खड़े होते हैं, कभी हिंदू-मुस्लिम के नाम पर पार्टियों की नीतियाँ बँटती हैं, और इसी बीच पिसती है आम जनता। क्या हमने कभी सोचा कि ये नेता तो एक-दूसरे से हाथ मिलाते हैं, कार्यक्रमों में एक-दूसरे की तारीफ़ भी कर देते हैं, मगर हम, जो पड़ोसी हैं, रिश्तेदार हैं, हम इनके बयान सुनकर दुश्मन क्यों बन जाते हैं? राजनीति को अगर चुनाव तक ही सीमित रखा जाए, तो समाज की शांति बनी रह सकती है।
लेकिन जब हम वोट की राजनीति को अपने दिल-दिमाग पर हावी कर लेते हैं, तब नफरत पनपती है। नेताओं का तो अगला चुनाव आ जाएगा, अगला मंच सज जाएगा, लेकिन आम लोगों के दिलों में जो दरार पड़ती है, वो सालों नहीं भरती। अब वक्त है समझने का—राजनीतिक लड़ाइयों को व्यक्तिगत रिश्तों में घुसने मत दो। जो नेता आज एक-दूसरे को ‘गद्दार’ कहते हैं, वो कल संसद में साथ बैठकर कानून बनाएंगे, और हम? हम अब भी सोशल मीडिया पर बहस कर रहे होंगे।
राजनीति का मंच कभी सीधा नहीं होता। सामने जो दिखता है, वह अक्सर पर्दे के पीछे छिपी सच्चाई का केवल एक दृश्य होता है। एक दृश्य, जिसमें मंच पर नेता जनता के लिए लड़ते, मरते, झगड़ते दिखाई देते हैं, और उसी दृश्य के अंत में वे परदे के पीछे गले मिलकर चाय की चुस्कियों में ठहाके लगाते हैं।
कभी आप ने सोचा है? कि जो लोग टीवी डिबेट्स में एक-दूसरे को ‘देशद्रोही’ और ‘गद्दार’ कहते हैं, वे ब्रेक के बाद साथ कॉफी पीते हैं? या जो नेता एक-दूसरे की पार्टियों को ‘जनता के दुश्मन’ बताते हैं, वे संसद सत्र खत्म होते ही एक-दूसरे के घर डिनर पर भी जाते हैं?
तो फिर असली बेवकूफ़ कौन है? वो नेता जो दिखावे की लड़ाई लड़ता है, या हम, जो उस लड़ाई को दिल पर लेकर अपनों से बैर पाल लेते हैं?
दुश्मनी का अभिनय, यारी की सच्चाई
राजनीति में दुश्मनी एक कला है, और यारी एक ज़रूरत। टीवी पर तीखे तेवर और ट्विटर पर जहरीले तीरों के बाद भी एक सच्चाई बनी रहती है—इन सबका असली उद्देश्य जनता को भावनात्मक रूप से ठगना है। चुनावों में वोट मिलते हैं ‘भावना’ से, न कि तर्क से। और जब जनता धर्म, जाति, मज़हब, और देशभक्ति के नाम पर जोश में आती है, तभी नेताओं की गोटियाँ सेट होती हैं।
किरण चौधरी और शशि थरूर हों या मोदी और ममता, केजरीवाल और राहुल—ये सब अपने-अपने हिस्से की जनता को भावनाओं में उलझाकर निजी ज़िन्दगियों में आराम से जीते हैं।
जनता: नेता के लिए साधन, खुद के लिए शत्रु
हमें ये सोचकर शर्म नहीं आती कि एक नेता के लिए हम अपने पड़ोसी से झगड़ा कर लेते हैं। वोट डालने से पहले हम दोस्ती तोड़ लेते हैं, व्हाट्सएप पर एक-दूसरे को ब्लॉक कर देते हैं, परिवारों में फूट पड़ जाती है, शादियों में मनमुटाव हो जाते हैं।
क्यों? क्योंकि हमें लगता है कि ‘हमारा नेता’ देश को बचा रहा है, और ‘तुम्हारा नेता’ देश बेच रहा है।
इस पागलपन की सीमा तब टूटती है जब आप यह देखते हैं कि जिन नेताओं को आप कट्टर दुश्मन मानते थे, वे एक-दूसरे के बेटे-बेटियों की शादी में साथ फोटो खिंचवा रहे होते हैं।
इतिहास गवाह है: यारी की राजनीति कोई नई बात नहीं
आज का ही नहीं, भारत के राजनीतिक इतिहास में भी ऐसे हजारों उदाहरण मिलते हैं जहाँ विरोधी विचारधाराओं वाले नेता संसद से बाहर एक-दूसरे के घनिष्ठ मित्र रहे हैं।
पंडित नेहरू और श्यामा प्रसाद मुखर्जी एक-दूसरे के कट्टर आलोचक थे, लेकिन व्यक्तिगत सम्मान की लकीर कभी नहीं लांघी।
अटल बिहारी वाजपेयी और सोनिया गांधी संसद में एक-दूसरे पर तीखी टिप्पणियाँ करते थे, परंतु व्यक्तिगत स्तर पर सौहार्द्र बना रहता था।
आज यह मर्यादा खत्म हो चुकी है, पर नेताओं के संबंध अब भी मधुर हैं—बस जनता को भ्रम में रखकर।
धर्म और जाति का खेल: राजनीति का सबसे सस्ता हथियार
हमारे देश की राजनीति धर्म और जाति के ट्रिगर पर चलती है। हिन्दू-मुस्लिम, दलित-ठाकुर, ब्राह्मण-पिछड़ा—हर चुनाव में एक नया विभाजन उछाल दिया जाता है।
और हम? हम झपटते हैं इस जाल पर। जैसे ही कोई नेता कहता है “हिंदू खतरे में हैं”, “मुसलमान बढ़ गए हैं”, “राम का अपमान हुआ है”—हम तलवारें निकाल लेते हैं, ट्वीट्स छोड़ने लगते हैं, और बहसों में मर्यादा भूल जाते हैं।
जबकि नेता जानते हैं कि ये मुद्दे सिर्फ जनता को उलझाने के लिए हैं, असल खेल कहीं और खेला जा रहा है—प्राइवेट डील्स, सरकारी टेंडर, ट्रांसफर पोस्टिंग, और सत्ता की कुर्सी।
मीडिया: आग में घी डालने वाली फैक्ट्री
जो आग नेता लगाते हैं, उसमें घी डालने का काम करता है मीडिया। न्यूज चैनलों की बहसें स्क्रिप्टेड होती हैं। हर रात एक तय एजेंडा, एक तय दुश्मन, और एक तय “राष्ट्रवाद” का पैमाना।
एंकर चिल्लाता है: “क्या आप देशभक्त हैं या देशद्रोही?”
जनता बंट जाती है: “मैं मोदी वाला हिंदू हूं, तू राहुल वाला मुसलमान है।”
और इसी बहस में हम इंसान से मशीन बन जाते हैं—नफ़रत फैलाने की मशीन।
सोशल मीडिया: अंधभक्तों और लिबरल्स की अखाड़ा राजनीति
सोशल मीडिया ने आम जनता को ‘डिजिटल योद्धा’ बना दिया है। अब हर कोई फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर एक विचारधारा का झंडा लेकर दूसरे पर टूट पड़ता है।
जो बीजेपी का समर्थक है, वह हर सवाल को ‘टुकड़े-टुकड़े गैंग’ बता देता है।
जो विपक्ष का है, वह हर सरकारी निर्णय को ‘तानाशाही’ का उदाहरण बताता है।
इस लड़ाई में तर्क मर गया है, और बची है तो सिर्फ भावनात्मक अंधभक्ति।
असल मुद्दों पर चुप्पी क्यों?
देश में आज भी करोड़ों लोग साफ पानी, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं।
लेकिन इन पर कोई नेता नहीं बोलता, क्योंकि इन मुद्दों से भावनाएं नहीं भड़कतीं, वोट नहीं मिलते।
गरीब की भूख, किसान की आत्महत्या, बेरोजगार की बेबसी, छात्र की आत्महत्या—इन सब पर राजनीति चुप है।
हम भी चुप हैं। क्योंकि हम उस “ट्रेंडिंग” मुद्दे पर ध्यान देते हैं जो हमारे नेता और मीडिया परोसते हैं।
क्या हम सच में लोकतांत्रिक हैं?
लोकतंत्र केवल वोट देने भर का नाम नहीं। यह सोचने, सवाल पूछने, और असहमति को सम्मान देने का नाम है। लेकिन आज जैसे ही कोई सरकार या नेता के खिलाफ सवाल उठाता है, उसे “देशद्रोही” करार दे दिया जाता है।
नेताओं की आलोचना अब ‘राष्ट्र-विरोधी’ हो गई है। क्या यह लोकतंत्र है? या एक भावनात्मक तानाशाही?
अब क्या करें? समाधान क्या है?
1. राजनीति को राजनीति की तरह समझें, धर्म या जाति का प्रतीक न बनाएं।
2. मीडिया और नेताओं के एजेंडे से बाहर निकलें, खुद सोचें, पढ़ें, सवाल करें।
3. आपसी संवाद बनाए रखें—राजनीति के मतभेद को व्यक्तिगत संबंधों पर हावी न होने दें।
4. लोकतंत्र में विपक्ष ज़रूरी है—उसे गालियाँ नहीं, जगह दीजिए।
5. नेताओं के दिखावे की लड़ाइयों में खुद को मोहरा न बनाएं।
अंत में: एक सीधा सवाल—आप असली नेता हैं या गुलाम?
हर चुनाव से पहले ये सोचिए कि आपका वोट किसको दे रहा है—उस नेता को जो आपको सड़कों, मस्जिदों और मंदिरों में लड़वाता है, या उस नेता को जो अस्पताल, स्कूल, पानी और रोज़गार की बात करता है?
अगर आप भी वही गुस्सा, वही नफ़रत लेकर जी रहे हैं जो नेताओं ने बोई थी, तो माफ़ कीजिए—आप आज़ाद नहीं हैं। आप उस तमाशे के दर्शक हैं जहाँ नेता नायक हैं और आप जोकर।
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