अंग्रेजी साहित्य के भारतीय लेखकों में जिन तीन सबसे महान उपन्यासकारों को गिना जाता है, उनमें मुल्कराज आनंद तथा राजा राव के साथ तीसरा नाम है आर के नारायण का।
आर के नारायण की आज पुण्यतिथि है। 10 अक्टूबर 1906 को मद्रास में जन्मे आर के नारायण का पूरा नाम राशीपुरम कृष्ण स्वामीनारायण ‘अय्यर’ था। आर के नारायण की मृत्यु 13 मई 2001 को चेन्नई (मद्रास) में ही हुई।
नारायण के पिता एक तमिल अध्यापक थे, जिन्होंने अपना अधिकांश समय मैसूर के शांत शहर में बिताया। नारायण ने भी बहुत थोड़े समय के लिए एक अध्यापक तथा पत्रकार के रूप में कार्य करने के बाद अपना सारा जीवन लेखन में ही लगाया।
आर के नारायण मैसूर के यादवगिरि में करीब दो दशक तक रहे। 1990 में बीमारी की वजह से वे चेन्नई शिफ्ट कर गये थे।
इनके द्वारा रचित एक उपन्यास गाइड के लिये उन्हें सन् 1960 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
उन्होंने एक काल्पनिक शहर मालगुडी को आधार बनाकर अपनी अनेक रचनाएँ की हैं। मालगुडी को प्रायः दक्षिण भारत का एक काल्पनिक कस्बा माना जाता है परंतु स्वयं लेखक के कथनानुसार “अगर मैं कहूँ कि मालगुडी दक्षिण भारत में एक कस्बा है तो यह भी अधूरी सच्चाई होगी क्योंकि मालगुडी के लक्षण दुनिया में हर जगह मिल जाएँगे।
उनका पहला उपन्यास स्वामी और उसके दोस्त (स्वामी एंड फ्रेंड्स) 1935 ई. में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास में एक स्कूली लड़के स्वामीनाथन का बेहद मनोरंजक वर्णन है तथा उपन्यास के शीर्षक का स्वामी उसी के नाम का संक्षिप्तीकरण है। इस उपन्यास के शीर्षक में ही व्यंग्य सन्निहित है। शीर्षक से कहानी के बारे में पाठक जैसी उम्मीद करने लगता है, उसे लेखक पूरी तरह ध्वस्त कर देता है। यह स्वामी ऐसा लड़का है जो स्कूल में वर्ग में अनुपस्थित रहकर हेड मास्टर के दफ्तर की खिड़कियों के शीशे तोड़ता है और अगले दिन सवाल किए जाने पर कोई जवाब नहीं दे पाता है तो बेवकूफों की तरह ताकते रहता है और सरासर पीठ पर बेंत पड़ने पर तथा डेस्क पर खड़े किए जाने पर अचानक कूदकर किताबें उठा कर यह कहते हुए भाग निकलता है कि ‘मैं तुम्हारे गंदे स्कूल की परवाह नहीं करता’।
इसी तरह स्वामी की कहानी में एक लड़के की सामान्य शरारतों और उसके एवज में मिलने वाली सजाओं का ही वर्णन है किंतु लेखक उसे बड़े मजाकिया लहजे में किसी लड़के के मन को पूरी तरह समझते हुए कहते हैं।
आरंभिक उपन्यास होने से इसमें नारायण बढ़ती उम्र के साथ अनुभव की जाने वाली तकलीफ तथा समय के बीतने की अनुभूति का अहसास आदि के रूप में रचनात्मक प्रौढ़ता का पूरा परिचय तो नहीं दे पाते परंतु बचपन की पूरी ताजगी को कथा में उतार देने में बिल्कुल सफल होते हैं।
‘स्नातक’ (द बैचलर ऑफ आर्ट्स) 1935 ई. में प्रकाशित हुआ। यह एक संवेदनशील युवक चंदन की कहानी है जो उसके शिक्षा द्वारा प्राप्त प्रेम एवं विवाह संबंधी पश्चिमी विचारों तथा जिस सामाजिक ढांचे में वह रहता है के बीच के द्वंद्व को प्रस्तुत करता है।
द डार्क रूम (1938) भी दैनंदिन जीवन की छोटी-छोटी बातों और घटनाओं के विवरण से बुनी कहानी है। इसमें सावित्री नामक एक ऐसी परंपरागत नारी की कथा है जो समस्त कष्टों को मौन रहकर सहन करती है।
स्वतंत्रता से पहले लेखक का अंतिम उपन्यास द इंग्लिश टीचर 1946 में प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास अमेरिका में ‘ग्रेटफुल टु लाइफ एंड डेथ’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था। इसमें लेखक ने एक ऐसी कहानी चुनी है जिस के बाद का अंश अविश्वसनीय हो गया है।
वस्तुतः नारायण की रचनात्मकता के तीन स्तर हैं। उनकी रचनात्मक श्रेष्ठता का ‘स्वर्णयुग’ भारतीय स्वतंत्रता के बाद आया। 1952 ईस्वी से 1962 ईस्वी तक के एक दशक से कुछ अधिक वर्षों का समय उनकी रचनात्मकता का स्वर्ण युग था। इससे पहले और इसके बाद के समय को स्पष्ट विभाजित किया जा सकता है।
रचनात्मक प्रौढ़ता के इस श्रेष्ठ समय में लेखक के उपन्यासों की त्रयी आयी। ये तीन उपन्यास थे- द फाइनेंसियल एक्सपर्ट (1952), गाइड (1958) तथा मालगुडी का आदमखोर (द मैनईटर ऑफ मालगुडी) [1962]।
एक कहानीकार के रूप में नारायण का प्रमुख स्वर कोमल व्यंग्य का है। व्यंग्य-विपर्यय द्वारा लेखक मानवीय मनोविज्ञान पर प्रकाश डालते रहते हैं। कुछ कहानियां रेखाचित्र के रूप में भी है और वे नारायण के सनकी पात्रों की समझ को पकड़ने की क्षमता से भरी हुई हैं।
आर के नारायण की प्रायः सभी कहानियां एक जैसी चुस्त-दुरुस्त तथा ऐसी शैली में कही गयी है जो ऊपर से सपाट सी लगती है। कहानी में वे किसी क्रांतिकारी शैली को नहीं अपनाते हैं। सहज पठनीयता उनकी कहानी का अतिरिक्त वैशिष्ट्य है। इसके बावजूद उत्तम कहानियों में भी व्यंग्य के एक सामान्य मुद्रा से ऊपर उठकर एक सार्थक जीवन दृष्टि के रूप में विकसित न हो पाने के कारण[14] लेखक का ‘गाइड’ और ‘मालगुडी का आदमखोर’ वाला उपन्यासकार रूप उनके कहानीकार रूप पर भारी पड़ता है।
-एजेंसी
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