नेहरू हैं भारत की अर्थव्यवस्था के शिल्पी…

अन्तर्द्वन्द

आज़ादी के सपने सजोने वाले मतवालों के जूनून ने आज़ादी दिला दी हमें सन 1947 में, किन्तु तब तक आज़ादी की लम्बी लड़ाई की राह तीन भागों में बट चुकी दिखती है हमें । एक वे थे जो आज़ादी चाहते थे ब्रिटिश साम्राज्य से कम, किन्तु हिन्दुओं से ज्यादा, क्योंकि उनका दामन चुभता था उन्हें । तो बेकायदे हो गया था जूनून जिनका, जो बेकायदे हो गए थे, वही कहलाये कायदे आज़म पाकिस्तान के । तो पाकिस्तान बना मजहब के नाम पर किन्तु भाया न पाकिस्तान उन्हें भी जो मुसलमान थे ईमान के, किन्तु थे जो हिंदुस्तान के । उन्हें ईमान था, इत्मीनान था और नाज भी था हिन्दोस्तान पर क्योंकि उनकी आत्मा जो बसती थी हिन्दोस्तान में। तो पाकिस्तान जाने की उन्हें कोई वजह न थी मादरे वतन छोड़ कर ।

दूसरी धारा थी उनकी जो दलित हैं आज के । क्या होगा उनका आज़ादी के बाद, क्या मिलेगा आज़ादी से उनकों लाभ, सोचना होगा आज़ादी के पहले ही, सोच थी उनकी जो रहबर थे उनके उस काल के । तो बाबासाहेब के लिए मुल्क की आज़ादी के सपने से भी बड़ा बन गया था दबे-कुचलों की अज़ाब भरी जिंदगी से आज़ादी। वस्तुतः अभिशप्त सा हो गया था हम सब का अपना आज़ादी का सपना । किन्तु ऐसे ही अंधकार में, मजहब और जाति के अज़ाब में, दो मानव, गाँधी और नेहरू, दो अप्रतिम प्रकाश पुंज मानव इतिहास के, उभरे थे जननायक बन कर और ले ली थी आज़ादी उनसे, जिनके राज्य का सूर्य न डूबता था जहां में ।

तो उस काल में मजहबी उन्माद था, जातीय टकराव था, संदेह था और था गोरों का जलियांवाला बाग जैसा आतंक । तो ऐसे ही तूफान भरे माहौल से, आज़ादी की कश्ती पार हुई थी हिन्दोस्तान की । फिर भी हममें से कुछ मानते ही नहीं की हमारे पूर्वज, आजादी के लिए कभी मतवाले हुए थे। आज़ादी तो मिली इन सिरफ़िरों को, किन्तु सन 2014 के बाद में । तो आजाद मुल्क में आंख खोलने वाले कुछ, आजादी के तराने को कैसे माने कि कभी मेरा रंग दे वसंती चोला भी गाया, गुनगुनाया गया था हिन्दोस्तान में । ऊपर से आजादी के बाद के सत्तर साल का हिसाब भी मांगने वाले बहुतेरे पथ भ्रमित भी मिल जाते हैं सरे राह चलते चलते । तो सत्तर साल का तो नहीं लेकिन लगभग सत्रह साल के नेहरू काल का हिसाब तो हम कर सकते हैं आज । किन्तु पहले समझें कि उन मतवालों की कृपा से सांसे चल रहीं हैं आज़ाद हमारी आज, तो क्या कुछ कम है?

सारे बंधन टूटे हमारे, उन्हीं महामानवों, महानायकों के आशीर्वाद से और आज़ादी भी ली उन्होंने बिना खडग बिना ढ़ाल, जिसकी मिसाल नहीं मिलती संसार के इतिहास में । तो क्या आप अचंभित नहीं हैं उस युद्ध कौशल से जिसनें चूलें हिला दीं थीं ब्रिटिश साम्राज्य की? फिर आज़ादी, अज़ाब बन जाती, यदि न होते सपने और रहबर हमारे ।

लेकिन आइये पहले यह देख और जान लें कि किस अज़ाब का शिकार था हिन्दोस्तान ब्रिटिश शासन काल में ।
सन 1947 में ब्रिटिश शासन के अस्त होते सूर्य के समय भारतीय अर्थव्यवस्था भी अंतिम सांसें लेती हुई दिखाई देती है । भारत ने ब्रिटिश शासन के लगभग दो सौ साल के इतिहास में, ब्रिटिश शासन के पूर्व के एक स्वर्ण युग को खोया और एक विपन्नता भरे युग को पाया भी । विपन्नता आई जमींदारी प्रथा के उदय और भारत के घरेलू संसाधनों का ब्रिटेन को बहिर्गमन से । इन परिवर्तनों से ब्रिटिश साम्राज्य, अंगद के पैर की तरह मजबूती से पांव जमाती हुई दिखाई देती है हिन्दोस्तान में, किन्तु भारत दुर्दशाग्रस्त और श्रीहीन हिन्दोस्तान में परिवर्तित हो जाता है । इसके अनेक आर्थिक-सामाजिक संकेतक और आंकड़े दिखाई देते हैं हमें ।
सन 1947 में जीवन प्रत्याशा लगभग 36.6 वर्ष मात्र थी ।भूख, कुपोषण, बीमारी के शिकार जो थे हमारे पूर्वज । तो ब्रिटिश शासन में, पैदा होनें और काल के गाल में समा जाने के बीच फ़ासला बहुत कम था । औसत आय भी बहुत कम थी और जीडीपी निचले स्तर पर स्थिर बनी हुई थी।

अर्थव्यवस्था में कृषि ही प्रमुख व्यवसाय थी और वह भी पिछड़ी हुई स्थिति में थी क्योंकि तकनीकी विकास तो था ही नहीं । उत्पादन और उत्पादकता निम्न थी । भारत ने सन 1905 और 1943 के दुर्भिक्ष भी देखे । तो एक बड़ी जनसँख्या भूख से ग्रसित थी । सन 1951 में मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर, दोनों ही ऊँची थी जिसके परिणाम स्वरूप ज्यादा बच्चे पैदा करना भी मजबूरी थी । केवल 18.4 प्रतिशत जनसँख्या ही साक्षर थी अर्थात 82 प्रतिशत जनता निरक्षर थी । तो दो सौ साल के ब्रिटिश शासन की उपलब्धि थी यह। किन्तु क्या यह उपलब्धि थी या अभागे हिन्दोस्तानिओं के दुर्भाग्य और अंधकार की कहानी बयां करती सच्चाई ? न सड़कें थी, न बिजली, न स्वच्छ पानी, न स्वास्थ्य का उचित प्रबंध । तो था क्या ?

भूख और गरीबी थी, अधनंगे इंसान थे, सड़कें नहीं पगडंडिया थी, बिजली नहीं वरन ढिबरी की रौशनी थी । हैजा, चेचक और प्लेग था किन्तु टीके और दवाइयों का अभाव था और थे उनसे अल्पायु में मरने के लिए अभिशप्त लोग। आँकड़े तो यही कहते और बताते हैं । अनुभव भी यही बताता है कि भूख से बिलबिलाती एक बड़ी जनसँख्या थी जिनको एक वक्त का खाना भी नसीब नहीं था। अवाम का एक बड़ा तबका पुराने और दूसरों के शरीर से उतरे कपड़ों से ही किसी तरह तन छुपा पाता था । क्या आपने अधनंगे गाँधी को नहीं देखा है ? जिन्होंने नंगे-अधनंगे हिंदुस्तानिओं को देख कर ही तो आधा शरीर छुपाने का व्रत लिया था ।

मय्यत के दफ़न के लिए कफ़न का इंतजाम भी तो कठिनाई से होता था । शादियों में खर्च के लिए चीनी कैसे मिले, परमिट का जुगाड़ कैसे बने, शादी की सबसे बड़ी समस्या तो वही थी । तो इस काल में विकास था कहां ? ऐसे ही घोर पिछड़ी हुई सामाजिक-आर्थिक दशा के अंध युग में भारत का जन्म हुआ था । किन्तु जन्म के साथ अपरिमित अपेक्षाएं भी जन्म लेती हैं। तो स्वाधीन भारत में आवाम की भारी अपेक्षाओं को सहन और वहन करने के साथ-साथ घोर विपन्नता का सामना भी करना था, नेहरू शासन को । विकास के मार्ग की डगर कठिन थी । चुनौतियाँ अपार थीं । तो घोर मेहनत करनी ही थी ।

भारतीयों के सामने अर्थव्यवस्था को राह दिखाने का कोई पूरा या स्पष्ट मॉडल भी नहीं था । विकास की डगर पर चलना था किन्तु संभल-संभल कर । वस्तुतः अंधेरे में ही टटोलना था ।दैवयोग से नेहरू के रूप में सैद्यान्तिक सोच से परिपूर्ण रहबर मिल गए थे देश को, उत्साही कर्मठ जनता को राह दिखाने के लिए ।

कालजयी सोच के स्वामी और स्वप्नद्रष्टा पंडित नेहरू ने एक नई सोच, मिश्रित अर्थव्यवस्था की नींव भारत में रखी। सोच थी कि भारत के विकास में सार्वजानिक और निजी क्षेत्र, दोनों की भागीदारी आवश्यक है । अर्थव्यवस्था का निर्माण अकेले और छोटे, निजी क्षेत्र से नहीं हो सकता था । लगभग पूरा भारत ही तो घोर गरीबी से त्रस्त था। निराशा और अंधकार का आलम था । तो नेहरू सरकार, ब्रिटिश शासकों जैसा अपना दामन, अपरिमित समस्याओं से नहीं बचा सकती थी । इसलिए सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से विकास की पहल सुनिश्चित की।

तो क्या कुछ गलत किया ? सार्वजनिक क्षेत्र को सरकार ने हथियार बनाया दबे, कुचले, पिछड़े भारतीयों के जीवन में प्रकाश भरने के लिए । हम उन्हीं की उस अभिनव सोच पर वर्षों चले और भारत के निर्माण की आधारशिला रख पाने में सफल रहे । इस सोच में सबकी भागीदारी भी थी। सरकार में बाबासाहेब के साथ-साथ श्री श्यामा प्रसाद मुख़र्जी भी शामिल थे । सरदार पटेल और मौलाना आज़ाद तो थे ही। तो मिश्रित अर्थव्यवस्था की सोच में तो सभी की सहभागिता थी । विश्व के लिए पंडित नेहरू और भारत ने दो अमूल्य नीतियों का योगदान दिया ।

मिश्रित अर्थव्यवस्था और गुटनिरपेक्ष नीति । विश्व में डंका बजा दिया इन नीतियों नें । मजहबी सोच की जगह भारत की राष्ट्रीय और मानवीय सोच ने भी जहान के जन मानस का ध्यान खींचा था । तो क्या कुछ गलत था ? भारत माता की गोंद में जन्मे हम सब के बीच भेदभाव स्वीकार न था उन्हें । तभी तो पाकिस्तान बनने के दंश को हम पचा पाए।

दूसरी तरफ, उनकी मिश्रित अर्थव्यवस्था नीति की सफलता के कीर्ति स्तम्भ आज भी हमारी अर्थव्यवस्था को संचालित और प्रभावित कर रहे हैं ।क्या यह सच नहीं की विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बन चुके हैं हम आज, किन्तु उसकी आधारशिला तो पंडित नेहरू ने ही रख दी थी वर्षों पहले । क्या हम सब और वर्त्तमान की हमारी सरकार उसी का आनंद नहीं ले रही है आज भी ? आइये समझें कि उनके विजन में क्या क्या था चमत्कारी, जिसनें प्रभाव डाला था हमारी अर्थव्यवस्था पर ।

सोच थी कि कैसे दरिद्रता और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को कम करना होगा? भविष्य के भारत के लिए क्या क्या करना होगा ? पिछड़ापन केवल सामाजिक-आर्थिक सोच में ही तो नहीं होती है ।वह राजनैतिक सोच, नेतृत्व में भी प्रवेश कर जाती है । लेकिन हिन्दोस्तान के सौभाग्य से नेहरू की सोच आधुनिक और वैज्ञानिक ही थी ।मानवता भरी तो वह थी ही । भारत के भविष्य के लिए या कि आधुनिक भारत के निर्माण के लिए कौन कौन से विकास के मंदिर बनाने की आवश्यकता होगी वह उनके विजन में शामिल था । घोर गरीबी, अशिक्षा, न्यून संसाधन और लगभग अल्पायु में ही काल के गाल में समा जाने के लिए अभिशप्त जनसँख्या के साथ साथ पिछड़ी सोच, पिछड़ी तकनीक और ज्ञान-विज्ञानं के बीच एक नई रोशनी, प्रकाश स्तम्भ की तरह बन निकली थी नेहरू को सोच ।क्या नहीं था उसमें ? ज्ञान-विज्ञानं को बढ़ाना था, शैक्षिक संस्थाओं और विकास के लिए आवश्यक संस्थाओं का निर्माण और संयोजन करना था । सोच तो अंतरिक्ष तक जा कर रुकी थी उनकी ।

अर्थव्यवस्था के लिए आधारशिला के मंदिर भी बनाना ही था साथ में।

नेहरू शासन ने यह मानते हुए की शिक्षा, तकनीक और विज्ञानं ही विकास, बदलाव एवम परिवर्तन की जननी होती है देश में कृषि विश्वविद्यालयों, तकनीकी संस्थाओं (आईआईटी), आईआईएम्, शोध संस्थाओं का जाल सा निर्माण कर डाला ।आधुनिक सांख्यिकीय सिस्टम के साथ साथ अंतरिक्ष और परमाणु ऊर्जा प्रोग्राम की नींव भी डाल दी । तो क्या यह आधुनिक भारत की बुनियाद नहीं थी ? सिचाई, ऊर्जा, स्टील की भी तो जरूरत होती है विकास के लिए । इसलिए भांखड़ा-नांगल, हीराकुंड, रिहन्द और दामोदर वैली जैसी जल-विद्युत् परियोजनाएं लागू की गईं। इनसे सिचाई की सुविधा भी तो बनी ।थर्मल-पॉवर प्लांट और स्टील प्लांट भी लगे । स्वास्थ्य सुविधाओं का जाल बिछा । एम्स बना । योजनाओं के निर्माण के लिए योजना आयोग बना। शिक्षा के लिए यूजीसी बना । नेहरू काल में स्थापित संस्थाओं की संख्या कोई 75 के ऊपर बताते हैं। तो क्या यह सामान्य काम थे जिसमें अपार पूंजी भी लगनी थी और अव्वल दर्जे की तकनीक भी चाहती थी । दोनों ही उस काल में लगभग अप्राप्य थे । किन्तु इन कार्यों से उद्योगों का जाल बिछाने में सफलता मिली हमें। परिवहन के लिए डीजल रेल कारखाना बना । रेल के डिब्वों के निर्माण के लिए इंटीग्रल कोच फैक्ट्री का निर्माण हुआ । अनेक संस्थाओं का राष्ट्रीयकरण करके राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका को यादगार बना दिया गया । स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया आज भी तो सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण बैंक बना हुआ है हमारा । जीवन के साथ भी और जीवन के बाद भी के लिए एलआईसी स्थापित हुई । पेट्रोलियम उत्पाद और प्राकृतिक गैस की भी आवश्यकता होगी विकास कार्यों में बड़े पैमाने पर, इसलिए इंडियन आयल कारपोरेशन, आयल एंड नेचुरल गैस कमीशन की स्थापना की गईं। देश के विकास के लिए तीव्र परिवहन की आवश्यकता होगी तो एयर इंडिया स्थापित हो गईं । बीसीजी के टीके लगे, क्योंकि उत्पादन सन 1948 से शुरू हो गया था। आप अपने किसी बुजुर्ग की बांह देख लीजिये, कोई टीका लगा मिल जायेगा । इसलिए महामारी घटी और उम्र बढ़ी । परिवार नियोजन का कार्य शुरू हुआ सन 1952 में । इन कार्यों ने देश के विकास की आधारशिला निर्मित कर दी थी और आज भी ये संस्थाएं भारत के विकास की नींव बनीं हुई हैं । जीडीपी में इसी कारण बचत और निवेश तेजी से बढ़ा था उस काल में, जो कि विकास के लिए बहुत आवश्यक है । मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर तेजी से विकसित हुआ जिससे मांग और जीडीपी बढ़ी और रोजगार भी । कार्यों की लम्बी फ़ेहरिस्त में शामिल इन कुछ कार्यों से ही आप क्या अचम्भित और गौरवान्वित नहीं हुए ? वस्तुतः न्यून पूंजी, निम्न तकनीक, संसाधनों की कमी और उपेक्षा से जर्जर हुई अर्थव्यवस्था और भूख और गरीबी से जर्जर तन-मन और अल्पायु जीवन के स्वामियों ने ही बदल डाली थी मिलकर देश की तक़दीर और तस्वीर, उनके नेतृत्व में। क्या नहीं है आज जो हमारे पूर्वजों ने नहीं दिया है हमें अपनी हाड़तोड़ मेहनत और समर्पण से, उस सारथी या बरगदरूपी महामानव की छाया तले । फिर भी हममें से कुछ हैं कि मानते ही नहीं, पूछते हैं कि क्या किया है उन्होंने हमारे लिए ? तो जैसे कृतज्ञता व्यक्त न करने में ही शान मानते हैं वे अपनी ।

(लेखक विमल शंकर सिंह, डी.ए.वी.पी.जी. कॉलेज, वाराणसी के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे हैं)

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