पीएम नरेंद्र मोदी मनमाने तरीके से हर कुछ थोपते जाते हैं, जैसे सरकार लोकतंत्र से नहीं राजतंत्र से चलाते हैं
-कृष्ण प्रताप सिंह-
संसद के सत्रों में राफेल सौदा, चीन घुसपैठ, महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना काल कुप्रबंधन, और पेगासस जासूसी पर कभी हुई कोई चर्चा ?
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध यह गंभीर आरोप एक बार फिर दोहराया है कि वे देश को राजा की तरह चलाने लगे हैं। पिछले दिनों लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर चल रही चर्चा में अपने भाषण में उन्होंने इसे लेकर प्रधानमंत्री पर बरसते हुए कहा था कि वे शहंशाह बनने की कोशिशों से बाज आएं। उसके बाद उत्तराखंड में ऊधम सिंह नगर जिले में स्थित किच्छा की सभा में उन्होंने कहा कि कि नरेन्द्र मोदी राजा बन गए हैं, और किसी भी मसले पर लोगों से बात करके उन्हें विश्वास में लेने के बजाय सीधे हुक्म सुनाते हैं।
राहुल को पप्पू साबित करने में कोई कोर-कसर न छोड़ने वाले प्रधानमंत्री, उनकी सरकार या भारतीय जनता पार्टी ने ये पंक्तियां लिखने तक उनके इस आरोप का कोई जवाब नहीं दिया है। यह जवाब न देना हर हाल में दुर्भाग्यपूर्ण है: वे इस आरोप को जवाब देने लायक नहीं मानते तो भी और उनके पास जवाब में कुछ कहने को नहीं है तो भी। तिस पर इसका एक अर्थ यह भी लगाया ही जा सकता है कि अब वही राहुल, प्रधानमंत्री की असुविधा का कारण बनने लगे हैं, जिन पर अपने प्रधानसेवक वाले दिनों में तंज करते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें व्यंग्यपूर्वक शहजादे की उपाधि से नवाजा था- और यह भी कि कुछ लोगों की उम्र बढ़ती जाती है लेकिन अक्ल नहीं बढ़ती!
अब वही राहुल कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री प्रधानसेवक तो क्या प्रधानमंत्री भी नहीं रह गये हैं, अकड़ में भरकर शहशांह या राजा में बदल गये हैं और प्रधानमंत्री, उनकी सरकार या पार्टी के पास कोई जवाब या सफाई नहीं है तो यह प्रधानमंत्री के लिए ही नहीं, देश के लिए भी यह सोचने और चिंतित होने का समय है कि उसने कैसी अलोकतांत्रिक जमात को देश की सत्ता सौंप दी है।
वैसे पिछले कुछ बरसों के प्रधानमंत्री के बड़े कदम याद कर लिए जायें तो राहुल के आरोप को सच मान लेने में कोई दुविधा नहीं रह जाती। इसकी सबसे ताजा मिसाल विवादास्पद कृषि कानूनों के खिलाफ 2020 में शुरू होकर 2021 के अंत तक चला किसानों का आन्दोलन है, जिसमें किसानों द्वारा बार-बार मांग किए जाने के बावजूद प्रधानमंत्री ने उनसे बात नहीं की। वार्ताओं के जो दौर चले भी, उन्हें ऐसे मंत्रियों के भरोसे छोड़ दिया, जिनके बारे में किसानों का कहना था कि उन्हें प्रधानमंत्री ने कोई अधिकार ही नहीं दे रखा है। यहां तक कि जब प्रधानमंत्री को लगा कि अब कृषि कानून वापस लेने के अलावा कोई विकल्प नहीं है तो भी उन्होंने एकतरफा तौर पर राष्ट्र के नाम संदेश में उसकी घोषणा की.
संसद के 2020 के शीतकालीन सत्र में कोरोना की महामारी के बीच उक्त कृषि कानून लाए गए और 2022 शीतकालीन सत्र में वापस लिये गए, तो इन दोनों ही मौकों पर किसी चर्चा या बातचीत की जरूरत नहीं समझी गई। संसद के पिछले कुछ सत्रों में राफेल रक्षा सौदे, चीन की घुसपैठ, महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना काल के कुप्रबंधन और पेगासस जासूसी कांड जैसे गंभीर मसलों पर चर्चा करने की विपक्ष की मांग भी ऐसे ठुकरा दी गई, जैसे इस तरह की चर्चाओं का कोई मायने न हो। वैसे भी मोदी सरकार पिछले सात आठ सालों से संसद में एक के बाद एक महत्वपूर्ण विधेयक बिना चर्चा किये ही पारित कराती चली आ रही है।
वर्ष 2016 में आठ नवंबर को नोटबंदी का हुक्म भी उन्होंने इसी तरह बिना किसी को विश्वास में लिये रातों-रात सुना दिया था, जिसके कई दुष्परिणाम देश अभी तक भोग रहा है, जबकि उन्होंने सपना दिखाया था कि इससे कालेधन की समस्या जड़-मूल से नष्ट हो जायेगी, और आंतकवादियों की कमर तो इस तरह टूट जायेगी कि वे सिर उठाने लायक ही नहीं रह जायेंगे। अर्थव्यवस्था डिजिटल हो जायेगी, सो अलग।
फिर इसी तर्ज पर उन्होंने आधी रात को संसद बिठाकर जीएसटी लागू करने की घोषणा की तो, उसे आर्थिक आजादी नाम दे डाला था-जैसे कि आजादी संघर्षों के बजाय ऐसे आडंबरों से ही हासिल होती हो। जम्मू-कश्मीर राज्य को विभक्त कर तीन केंद्र शासित प्रदेशों में बांटने और संविधान में हासिल विशेष दर्जे के अनुच्छेद 370 को हटाने से ठीक पहले तो इंटरनेट बैन, अघोषित सेंसरशिप, नेताओं की नजरबंदी और कर्फ्यू आदि के हथकंडे भी अपनाए गए थे। देश के धर्मनिरपेक्ष संविधान की शपथ लेने के बावजूद प्रधानमंत्री अयोध्या में राममन्दिर के लिए भूमि पूजन करने आए, तो भी किसी को विश्वास में नहीं लिया था। उनके शहंशाही बर्ताव ऐसी कई और भी मिसालें दी जा सकती हैं, लेकिन यहां इतना ही कहना अभीष्ट है कि इसी सबका फल है कि हम अपने जिस लोकतंत्र पर गर्व करते नहीं अघाते, अंतरराष्ट्रीय सूचकांकों में उसे लंगड़ा करार दिया जाने लगा है-साथ ही हमारी आजादी को आंशिक।
जाहिर है कि अब लंगड़ा लोकतंत्र देश के लोक की धड़कनों में भले ही जिंदा है, उसकी व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी उठा रहे सत्ताधीश जिस तरह उसका दम घोंटने में लगे हैं, उससे असहमतियों और आन्दोलनों के दमन व उत्पीड़न का लम्बा सिलसिला चल निकला है। नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ खड़े हुए शाहीन बाग के आंदोलन से लेकर देश भर में छात्रों-युवाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, महिलाओं, मजदूर-किसानों व बच्चों तक के दमन व उत्पीड़न के कई दर्दनाक वाकए बिखरे हैं, जिनसे अनुमान लगाया जा सकता है कि किस तरह देशवासियों को उनके लोकतांत्रिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है।
हां, प्रधानमंत्री द्वारा लोकतंत्र को दरकिनार कर राजा या शहंशाह जैसे बरताव की एक और नजीर संसद के बजट सत्र से पहले देखने को मिली। उन्होंने संसद के हर सत्र से पहले सर्वदलीय बैठक बुलाने की पुरानी परंपरा को निभाना भी जरूरी नहीं समझा। सांसदों से सदन की चर्चा में भाग लेने की सार्वजनिक कारुणिक अपील जरूर की, लेकिन यह अपील भी किसी गुड़ खाने वाले शख्स द्वारा उसे न खाने की अपील करने जैसी थी। दरअसल, प्रधानमंत्री का खुद का संसद का ट्रैक रिकार्ड भी कुछ अच्छा नहीं है। गत शीतकालीन सत्र में वे पहले दिन संसद में दिखने के बाद लगातार अनुपस्थित रहे थे। इस दौरान संसद में उपस्थिति को गैरजरूरी मानकर उन्होंने उत्तर प्रदेश में भाजपा का प्रचार करने वाले कई कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था, जो सरकारी खर्च पर आयोजित हुए थे। उन्होंने उसी दौरान चुनावी राज्यों उत्तराखंड और गोवा की यात्राएं भी की थीं.
अंत में यही कहा जा सकता है कि काश, वे अपने लोकतांत्रिक होने का थोड़ा-सा भरम बना रहने देते। तब उन्हें और उनके लोगों को राहुल के शहंशाह या राजा बन जाने के आरोपों का कोई न कोई जवाब जरूर सूझता। लेकिन शायद वे समझ गये हैं कि अब हालात उस मोड़ पर पहुंच गए हैं कि वे प्रत्याक्रमण करते हुए राहुल के पुरखों पर भी वैसी ही शहंशाहियत का आरोप लगा डालें, तो भी खुद पर चस्पां इस आरोप से पीछा नहीं छुड़ा पायेंगे। ‘सूट-बूट की सरकार’ वाली तोहमत से ही पीछा कहां छुड़ा पाए हैं।
-कृष्ण प्रताप सिंह-
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