इच्छा मृत्यु पर कानूनी स्वीकृति और उसके प्रभाव: कर्नाटक सरकार का ऐतिहासिक कदम

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बृजेश सिंह तोमर
(वरिष्ठ पत्रकार एवं आध्यात्मिक चिंतक)

कर्नाटक सरकार ने एक महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए असाध्य बीमारियों से ग्रस्त मरीजों को गरिमामय मृत्यु चुनने का अधिकार दिया है। राज्य के स्वास्थ्य विभाग की ओर से जारी आदेश में कहा गया है कि यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के दिशा-निर्देशों के तहत लिया गया है ।कर्नाटक सरकार के इस फैसले को चिकित्सा के क्षेत्र में नैतिकता एवं मानवीय दृष्टिकोण से एक बड़ा बदलाव माना जा रहा है। स्वास्थ्य मंत्री दिनेश गुंडूराव के आदेश के अनुसार, अब ऐसे मरीज, जिनके स्वस्थ होने की कोई संभावना नहीं बची है, वे अपनी मर्जी से ‘पैसिव यूथनेशिया’ यानी इच्छा मृत्यु का विकल्प चुन सकते हैं। यह निर्णय विशेष रूप से उन मरीजों के लिए राहत की बात है जो लाइलाज बीमारियों से लंबे समय से जूझ रहे हैं और जिनका जीवन अत्यधिक कष्टदायक हो चुका है।वे पल पल मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे है।

भारत में इच्छा मृत्यु का विषय लंबे समय से बहस का हिस्सा रहा है। 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए “पैसिव यूथनेशिया “को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गरिमामय जीवन के अधिकार का हिस्सा माना था। इसके तहत मरीजों को ‘लिविंग विल’ यानी जीवनकालीन वसीयत लिखने का अधिकार दिया गया, जिसमें वे भविष्य में अपने उपचार से संबंधित इच्छाएं स्पष्ट कर सकते हैं। यह व्यवस्था विशेष रूप से उन मामलों के लिए बनाई गई थी, जहां मरीज की स्थिति ऐसी हो जाती है कि वह खुद निर्णय लेने में सक्षम नहीं रहता। अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि “लिविंग विल” के तहत मरीज की इच्छा को तभी मान्यता दी जाएगी जब चिकित्सकों का पैनल यह प्रमाणित करे कि मरीज की स्थिति में सुधार की कोई संभावना नहीं है।

भारत में अब तक ‘इच्छा मृत्यु’ की मांग करने वाले कई मामले सामने आ चुके हैं। सबसे चर्चित मामला अरुणा शानबाग का था, जो 42 वर्षों तक कोमा में रहीं। उनके लिए ‘पैसिव यूथनेशिया’ की मांग की गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया था। हालांकि, इस मामले के बाद ही देश में इच्छा मृत्यु पर बहस तेज हुई और अंततः 2018 में इसे सीमित शर्तों के साथ कानूनी मान्यता दी गई। इसके अलावा, मुंबई के रहने वाले एनडी जयसिंह, जो टर्मिनल कैंसर से पीड़ित थे, उन्होंने भी इच्छा मृत्यु की मांग की थी, लेकिन कानूनी प्रक्रिया के चलते उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली। इसी तरह, कई अन्य मरीजों ने भी अदालतों में याचिकाएं दायर की हैं, जिनमें से कुछ को स्वीकृति मिली, जबकि कुछ मामलों में निर्णय लंबित रहा।

इस कानून के प्रभावों की बात करें तो इसके कई सकारात्मक और नकारात्मक पहलू हैं। इसके पक्ष में सबसे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि यह मरीज को असहनीय पीड़ा से मुक्ति दिलाने का मानवीय तरीका है। ऐसे मरीज, जिनकी जीवन की गुणवत्ता अत्यधिक खराब हो चुकी है, उनके लिए यह एक गरिमापूर्ण विकल्प हो सकता है। यह परिजनों पर पड़ने वाले मानसिक और आर्थिक बोझ को भी कम करता है, क्योंकि गंभीर बीमारियों का उपचार अक्सर लंबा और बहुत महंगा होता है जो परिवार की आर्थिक रूप से कमर तोड़ देता है। इसके अलावा, चिकित्सा संसाधनों का उचित उपयोग भी एक महत्वपूर्ण पक्ष है। कई बार, अस्पतालों में ऐसे मरीज महीनों या वर्षों तक जीवन रक्षक उपकरणों पर निर्भर रहते हैं, जिनकी बचने की संभावना नहीं होती। ऐसी स्थिति में, इच्छा मृत्यु को कानूनी मान्यता देने से चिकित्सा संसाधनों का अधिक प्रभावी उपयोग संभव हो सकता है।

हालांकि, इसके विपक्ष में भी कई तर्क दिए जाते हैं। सबसे बड़ी चिंता यह है कि कहीं यह निर्णय गलत हाथों में न चला जाए और इसका दुरुपयोग न होने लगे। अगर इच्छा मृत्यु को कानूनी स्वीकृति दी जाती है, तो आशंका यह बनी रहती है कि कमजोर वर्गों, बुजुर्गों या आर्थिक रूप से निर्भर लोगों पर इसे थोपने की कोशिश न की जाए। कई बार, परिवार आर्थिक तंगी या अन्य कारणों से किसी बीमार सदस्य के इलाज को बोझ समझ सकता है और उसे इच्छा मृत्यु के लिए सहमत करने का प्रयास कर सकता है। इसके अलावा, यह भी तर्क दिया जाता है कि चिकित्सा विज्ञान लगातार उन्नति कर रहा है और कई बीमारियों का इलाज भविष्य में संभव हो सकता है। ऐसे में, यदि किसी मरीज को जल्दबाजी में इच्छा मृत्यु दी जाती है, तो यह एक तरह से संभावनाओं को समाप्त कर देने जैसा होगा।

कर्नाटक सरकार का यह कदम निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक बदलाव का संकेत देता है, लेकिन इसे लागू करने में सावधानी बरतने की जरूरत होगी। सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि इसे केवल उन मरीजों के लिए अनुमति दी जाए, जिनकी स्थिति में सुधार की कोई संभावना शेष नहीं है अर्थात यही अंतिम विकल्प है, और यह निर्णय पूरी तरह से उनकी अपनी मर्जी से लिया गया हो। इसके अलावा, चिकित्सकीय पैनलों की पारदर्शिता और निष्पक्षता भी बेहद जरूरी होगी, ताकि कोई भी मरीज किसी दबाव में आकर यह निर्णय न ले ओर न ही उसके परिजन उसे इस निर्णय हेतु बाध्य कर सके।चिकित्सकीय अधिकारी सरकार द्वारा गठित जिम्मेदार पैनल के साथ पूर्ण जिम्मेदारी से उस मरीज की काउंसलिंग करे।

भारत जैसे देश में, जहां पारिवारिक मूल्यों और धार्मिक मान्यताओं का गहरा प्रभाव है, वहां इच्छा मृत्यु को लेकर सहमति बनाना आसान नहीं होगा। फिर भी, इस फैसले को एक मानवीय दृष्टिकोण से देखने की जरूरत है, ताकि वे लोग जो जीवन की अंतिम अवस्था में असहनीय पीड़ा झेल रहे हैं, उन्हें गरिमापूर्ण तरीके से विदा लेने का अधिकार मिल सके। अब यह देखना होगा कि अन्य राज्य भी इस फैसले से प्रेरणा लेकर अपने-अपने स्तर पर ऐसे कदम उठाते हैं या नहीं।

-up18News