बॉलीवुड का एक दौर था जब फिल्म देखने के लिए सिंगलस्क्रीन सिनेमाघरों के बाहर लंबी लाइनें लगती थीं। कुछ फिल्मों की दीवानगी तो इस कदर होती थी कि उनके टिकट ब्लैक में बेचे जाते थे। कई फिल्में इन सिनेमाघरों में कई महीनों तक भी लगी रहती थीं। देखते-देखते इन सिनेमाघरों से दर्शक गायब हो गए और बाजार से ये सिनेमाघर।
क्या मल्टीप्लेक्स सिंगलस्क्रीन सिनेमाघरों को ले डूबे या इसकी वजह कुछ और भी है? नजर डालते हैं इनकी चुनौतियों पर।
लोकप्रिय रहे ये सिंगलस्क्रीन सिनेमाघर
भारत में कई सिंगलस्क्रीन सिनेमाघर समय की भेंट चढ़ गए। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में कई सिनेमाघर ऐसे थे, जो खूब मशहूर रहे और लोगों की यादों का हिस्सा हैं।
मराठा मंदिर, लिबर्टी सिनेमा, रीगल सिनेमा देशभर में मशहूर हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार, 1990 में भारत में करीब 24,000 सिंगलस्क्रीन सिनेमाघर थे, जो 2022 में सिर्फ 6,000 रह गए।
इस साल ‘पठान’ की वजह से करीब 25 सिनेमाघर दोबारा शुरू हुए थे।
क्या है छोटे शहरों के सिनेमाघरों का हाल?
बाजार में सबसे ज्यादा प्रभावित छोटे शहरों के सिनेमाघर हुए हैं। इन सिनेमाघरों में बॉलीवुड की बड़ी फिल्में कम ही नजर आती हैं। जो फिल्में लगती भी हैं, वे कई महीनों तक लगी रहती हैं। ऐसे सिनेमाघरों के मालिक अकसर आजीविका के लिए कोई और काम कर रहे होते हैं। वे इन्हें बस किसी तरह जिंदा रखे हैं।
छोटे शहरों के अधिकांश सिनेमाघर बंद कर दिए गए। कमाई के लिए उन्हें मैरेज हॉल या शॉपिंग कॉम्प्लेक्स में बदल दिया गया।
दक्षिण भारत की स्थिति हिंदी बेल्ट से बेहतर
दक्षिण भारत में सिंगलस्क्रीन सिनेमाघरों की स्थिति हिंदी बेल्ट के मुकाबले बेहतर है। वहां अब भी बड़ी संख्या में दर्शक सिंगलस्क्रीन सिनेमाघरों में उमड़ते हैं।
जहां हिंदी के दर्शकों का अपने पसंदीदा कलाकारों के लिए गाजे-बाजे के साथ आना अब बीते जमाने की बात हो गई है, वहीं दक्षिण भारत में अब भी दर्शक इन सितारों पर जान छिड़कते हैं।
दर्शक सिनेमाघरों के बाहर सितारों के बड़े-बड़े कटआउट्स के साथ जमा होते हैं।
मल्टीप्लेक्स लेकर आए क्रांति
2000 के दशक में मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों की लोकप्रियता बढ़ी।
1997 में PVR ने दिल्ली में पहला मल्टीप्लेक्स सिनेमाघर शुरू किया था। इसके बाद इस क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव हुए।
इसके बाद आइनॉक्स, सिनेपॉलिस, SRS, सिनेमैक्स जैसे कई मल्टीप्लेक्स की शुरुआत हुई और देखते-देखते ये बाजार में छा गए।
मल्टीप्लेक्स सिनेमाघरों ने दर्शकों को एयरकंडीशन हॉल में खानपान के साथ आरामदेह कुर्सियों पर फिल्म देखने का अनुभव दिया।
स्मार्टफोन और मोबाइल एप्लिकेशंस के आने के बाद टिकट भी ऑनलाइन मिलने लगे।
मल्टीप्लेक्स नहीं, कंटेंट की वजह से बर्बाद हुए सिंगलस्क्रीन
मल्टीप्लेक्स का विस्तार तो महानगरों में हुआ, ऐसे में छोटे शहरों के सिनेमाघर कैसे गायब हो गए?
विशेषज्ञ सिंगलस्क्रीन की बर्बादी का कारण मल्टीप्लेक्स को नहीं, बल्कि खुद फिल्म निर्माताओं को मानते हैं। फिल्मों का कंटेंट अब छोटे शहरों के लोगों को नहीं जोड़ता है। फिल्मों में ग्लैमर और पश्चिमीकरण ने इन दर्शकों को सिनेमाघरों से दूर कर दिया। इसके उलट, शहरी दर्शक इन फिल्मों और मल्टीप्लेक्स के लुभावने ऑफर के तरफ आकर्षित होते गए।
पहले दर्शकों से सीधा जुड़ते थे कलाकार
70 और 80 के दशक के कलाकार और निर्माता दर्शकों से सीधा जुड़ने का प्रयास करते थे। वे अलग-अलग कार्यक्रमों के जरिए छोटे शहरों का दौरा करते थे।
बोनी कपूर, मुकेश भट्ट, राकेश रोशन जैसे निर्माता सिंगलस्क्रीन सिनेमाघरों के मालिकों से फोन पर बात करते थे और दर्शकों की प्रतिक्रिया जानते थे।
विशेषज्ञों का मानना है कि आजकल के फिल्म निर्माता दर्शकों से बिल्कुल कट चुके हैं और उनकी उपस्थिति सोशल मीडिया तक ही सीमित है।
दक्षिण भारत के सिनेमाघर इसलिए बेहतर
दक्षिण भारतीय सिनेमा इंडस्ट्री की यही बात वहां के सिनेमाघरों की रौनक बनाए है। वहां के कलाकार अपनी सादगी और अपनेपन से दर्शकों से जुड़े रहते हैं। उनके सिनेमा का कंटेंट भी क्षेत्रीय दर्शकों के हिसाब से होता है।
निर्माता मल्टीप्लेक्स को देते हैं बढ़ावा
इंडिया टुडे की रिपोर्ट के अनुसार, जाने-माने थिएटर मालिक मनोज देसाई ने फिल्म निर्माताओं और डिस्ट्रीब्यूटर पर लालची होने का आरोप लगाया। उनका कहना है कि निर्माता जानबूझकर मल्टीप्लेक्स को बढ़ावा देते हैं।
मल्टीप्लेक्स के लिए एडवांस बुकिंग काफी पहले शुरू कर दी जाती है, जबकि सिंगलस्क्रीन सिनेमाघरों में बुकिंग आखिरी के 1-2 दिनों में शुरू होती है।
देसाई का आरोप है कि निर्माता और डिस्ट्रीब्यूटर पैसा कमाते हैं, जबकि सिनेमाघरों को संघर्ष करना पड़ता है।
पाठको से सवाल आप के गांव या शहर में मल्टीप्लेक्स है या सिंगलस्क्रीन सिनेमाघर। मल्टीप्लेक्स आने से पहले क्या आप के शहर में सिंगल स्क्रीन सिनेमा घर था.
साभार सहित अज्ञात
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