सबने देख लिया कि सच्चाई को हमेशा छुपाया नहीं जा सकता

अन्तर्द्वन्द

मौन को अवगुण कमजोरी की तरह स्थापित किया और इसके सामने बड़बोलेपन को सबसे बड़े गुण की तरह पेश।

लेकिन सब तूमार (फेब्रिकेशन) खत्म हो गया। इतना मीडिया इतना पैसा पूरी सत्तारुढ़ पार्टी सरकार सब फेल हो गए। शांति से मौत के आगोश में गए मनमहोन सिंह आखिरी आखिरी तक कुछ नहीं बोले। मगर उनके जाते ही लोग जिस तरह बोले, मीडिया के मुंह से अनायास सच निकला उसने बता दिया कि झूठा प्रचार कुछ नहीं होता है। किसी सच को हमेशा के लिए दबा कर नहीं रख सकता। काम, शराफत और विद्वता अपने आप बोलते हैं। और फिर झूठ उपहास बड़बोलापन उसके सामने बहुत बौने हो जाते हैं।

मौन कम बोलना केवल आवश्यक बोलना साधना विद्वता से अर्जित सबसे विरल गुण होता है। उसे कमजोरी बताया। जो सबसे ताकतवर आन्तरिक शक्ति है उसका उपहास उड़ाया!
एक उदाहरण देते हैं। राम का। रामचरित मानस, वाल्मिकी कृत रामायण कहीं ज्यादा बोलते हुए दिखे? कौन था सबसे बड़बोला? सबका उपहास उड़ाने वाला? किसी को कुछ नहीं समझने वाला ? नाम बताएं क्या? रावण के अलावा और कौन?

महाभारत में सबसे ज्यादा कौन बोलता है? दुर्योधन ही ना! कहीं अर्जुन ज्यादा बोलता दिखा ?

मगर गजब है हमारा मीडिया। भाजपा की तो ठीक है राजनीति है। और दूसरे की लकीर छोटी करने के अलावा उसके पास कुछ और है भी नहीं। दक्षिणपंथी विचार की यह मजबूरी है। नकारात्मकता से वह निकल ही नहीं पाती है। उसे तो चरित्रहनन करना था। गांधी, नेहरू, आंबेडकर से लेकर मनमोहन सिंह, सबका। मगर मीडिया देश के दूसरे इन्स्टिट्यूशन जनता बुद्धिजीवी वर्ग सबको क्या हो गया था? 56 इंच की छाती, लाल आंखे करना, एक अकेला सब पर भारी के आत्मश्र्लाधा को गुण बता रहे थे! और अन्तरमुखी स्वाभाव, साफ्ट स्पोकन, शब्दों के उचित चयन को कमजोरी !

क्या हुआ? सब भरभरा कर गिर गया। मनमोहन सिंह ने कुछ नहीं किया। 2014 से घर में बैठे थे। जब प्रधानमंत्री मोदी ने गिरती अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए कोई मदद मांगी बिना किसी को बताए प्रचार किए दी। इसके बावजूद दी कि उनके कुर्सी से हटते ही उनके घर सीबीआई पहुंचा दी थी। क्या हुआ? क्या मिला? गिरफ्तार करना था उन्हें।

लेकिन मनमोहन सिंह पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। कोई विद्वेष की भावना नहीं आई। यह बड़प्पन होता है। भारीपन।
और इसलिए मीडिया का भाजपा का मोदी सरकार का भक्तों का बांधा हुआ सारा तूमार एक मिनट में खत्म हो गया। मनमोहन सिंह के जाते ही उन्हें दिल से याद करने, आम भारतीयों की जिन्दगी बदलने, हाथ में पैसा देने हर तरफ काम ही काम के मौके देने के किस्से आम ओ खास सबके मुंह से निकलने लगे। अंबानी अडानी जो मोदी सरकार के खास हैं वे भी नहीं कह पाए कि मनमोहन सिंह ने देश की अर्थ व्यवस्था डूबो दी थी। बोलना था तो इतना ही बड़ा झूठ बोलना था। मीडिया संभाल लेता। मगर हिम्मत नहीं पड़ी। और उनकी क्या जिन प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें देहाती औरत, रेनकोट पहनकर नहाने वाला और यहां तक कि पाकिस्तान से मिलकर मनमोहन सिंह और कुछ कांग्रेसी नेता गुजरात में उनकी सरकार बदलना चाहते हैं जैसे आरोप लगाए उन्हें भी श्रद्धाजंलि देते हुए मनमोहन सिंह के लिए ईमानदार शब्द का उपयोग करना पड़ा।

माहौल से बड़ा कोई नहीं होता। मनमोहन सिंह की मौत के बाद अचानक ऐसा माहौल बदला कि कोई उन शब्दों को नहीं बोल सका जो 2004 से जब से वे बने थे उनकी मृत्यु से कुछ समय पहले तक बोल रहे थे।

यह सत्य की बहुत बड़ी विजय है। सबने देख लिया कि सच्चाई को हमेशा छुपाया नहीं जा सकता। पूरी दुनिया में तो मनमोहन सिंह को सम्मान मिलना ही था। वहां तो हमेशा से मिलता रहा। इसके बारे में इतना लिखा गया कि सबको मालूम है। यहां फिर से बताने की जरूरत नहीं। मगर यहां जैसा माहौल बदला वह बताना जरूरी है।

हालांकि मोदी सरकार ने अपनी राजनीति करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ट्रोल आर्मी नए भक्त पुराने भक्त उसको जस्टिफाई करने में लग गए। मगर पहली बार है कि कोई कर नहीं पाया।

जनता में सवाल चला गया कि निगम बोध घाट के सार्वजनिक श्मशान घाट पर पूर्व प्रधानमंत्री की अन्त्येष्टी क्यों? वैसे तो खुद ही करना था। केन्द्र सरकार का काम होता है। राजकीय सम्मान के साथ अंतिम क्रिया का। लेकिन इस सरकार को जानते थे सब इसलिए मनमोहन सिंह के परिवार ने और कांग्रेस अध्यक्ष खरगे ने सरकार से उनकी अन्त्येष्टी राजघाट क्षेत्र में जहां प्रधानमंत्रियों की समाधियां हैं वहां करने की मांग की थी। मगर सरकार ने निगम बोध घाट निर्धारित किया। वहां क्या हुआ। मनमोहन सिंह के शोक में डूबे परिवार के साथ धक्का मुक्की। पूरी तरह अव्यवस्था। एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी देश के नाम संदेश देकर उनके कामों की सराहना कर रहे हैं दूसरी तरफ पूर्ण गरिमा के साथ उनके अन्तिम संस्कार की व्यवस्था भी नहीं।

अभी भी उनकी लकीर छोटी करने की कोशिश। क्या हो पाएगी?

मनमोहन सिंह के एपिसोड ने बता दिया कि जनता का जीवन बदलने और उसे 5 किलो अनाज में फंसाए रखकर वैसे ही गरीबी में और यह भी मिलना खत्म न हो जाए के डर में जिन्दा रखने में बहुत फर्क होता है। मनरेगा दिया। जहां काम के बदले पैसे मिलते थे। गांवों की जिन्दगी बदल गई थी। रोजगार और उसका मुआवजा। यह मुफ्त का अनाज तो देश की श्रम शक्ति को नकारा बना रहा है। मुफ्त अनाज का मतलब है नौकरी नहीं देना। दूसरे किसी रोजगार की व्यवस्था नहीं करना। दस साल पहले देश में काम की कमी नहीं थी। भारत के हर युवा के पास काम था। वह छोटे कम्प्यूटर के कोर्स करके और दूसरे तकनीकी काम सीखकर विदेश जा रहे थे। पढ़े लिखे प्रोपेशलन तो नेहरू के समय से अमेरिका, युरोप और इग्लेंड में जाने लगे थे। मगर 2004 के बाद इन देशों सहित खाड़ी देशों में भारत की वर्क फोर्स की मांग बहुत बढ़ गई थी। अभी जब प्रधानमंत्री मोदी कुवैत में थे तो इसी वर्क फोर्स का जिक्र कर रहे थे कि हमारे पास है। मगर यह नहीं बता रहे थे कि पहले की तैयार की हुई। उनके शासन काल में कोई नए काम करने वाले प्रशिक्षित युवा तैयार नहीं हुए।

मनमोहन सिंह की सबसे बड़ी ताकत क्या है? यह कि उनके बारे में बताने में उनके काम गिनाने की जरूरत नहीं। सब जनता का मालूम हैं। क्यों? क्योंकि उन कामों ने उसकी जिन्दगी बदली। नया मध्यम वर्ग बना। यह बड़े शहरों से लेकर छोटे शहरों तक निर्माण की क्रान्ति देखते हैं। रहने के लिए मकान माल बाजारों का विस्तार यह सब उसी समय का है। लोगों के पास पैसा आ रहा था वह खर्च कर रहे थे।

आज माल बाजार क्या पहले की तरह गुलजार हैं?

लोगों को अपने आप समझ में आ रहा है। और यही उस मौन की सबसे बड़ी ताकत थी।
थोथा चना बाजे घना! गांव गांव की जानी पहचानी कहावत है। मगर अर्थ अचानक खुलते हैं। और आज वह खुल गए।

भरी गगरी क्यों छलकेगी?

भरी गागर थे मनमोहन सिंह। कभी कभी मौत फैसला करती है। बड़ी शान से गए। कोई फर्क नहीं पड़ता कि कहां ले जाकर चिता बनाई। उनका स्थान देश के करोड़ों करोड़ों लोगों के दिल में और मजबूत हो गया।

साभार सहित – शकील अख्तर जी के फेसबुक पेज से


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