
निजी स्कूल एनसीईआरटी की सस्ती और गुणवत्तापूर्ण किताबों की बजाय, कमीशन के लालच में निजी प्रकाशकों की महंगी किताबें बच्चों पर थोपते हैं। हर साल जानबूझकर पाठ्यक्रम में मामूली बदलाव कर किताबें बदल दी जाती हैं ताकि पुराने संस्करण बेकार हो जाएं। स्कूलों और प्रकाशकों के गठजोड़ से चुनिंदा दुकानों पर ही ये किताबें मिलती हैं, जिससे अभिभावकों को विवश होकर भारी रकम खर्च करनी पड़ती है। सरकार और प्रशासन इस लूट पर आंखें मूंदे हुए हैं। इस शोषण को रोकने के लिए सख्त कानून बने, एनसीईआरटी की किताबें अनिवार्य हों, और अभिभावकों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए।
शिक्षा को मानव विकास की नींव माना गया है। लेकिन जब वही शिक्षा मुनाफाखोरी का साधन बन जाए, जब स्कूल शिक्षा के मंदिर से बदलकर किताबों के डीलर बन जाएं, तो यह किसी भी सभ्य समाज के लिए एक गंभीर चेतावनी है। भारत में नया शैक्षणिक सत्र शुरू होते ही माता-पिता की जेब पर जो बोझ पड़ता है, वह अब किसी फीस तक सीमित नहीं रहा। अब कॉपी-किताबें खरीदना भी किसी मध्यमवर्गीय परिवार के लिए एक आर्थिक आपदा जैसा बनता जा रहा है। प्राइवेट स्कूलों का असली चेहरा अब सामने आ रहा है, जहां शिक्षा एक सेवा नहीं, व्यापार बन गई है। स्थिति यह है कि एनसीईआरटी की किताबें, जो कि गुणवत्ता, रिसर्च और सस्ती कीमत की दृष्टि से सर्वोत्तम मानी जाती हैं, उन्हें दरकिनार कर निजी प्रकाशकों की महंगी किताबें थोप दी जाती हैं। एक तरफ एनसीईआरटी की 256 पन्नों की किताब महज 65 रुपये में उपलब्ध है, तो दूसरी ओर निजी प्रकाशकों की 167 पन्नों की किताब 305 रुपये में बिक रही है। यह अंतर महज कीमत का नहीं, बल्कि नीति, नियत और नैतिकता का भी है।
किताबों की दुकानें या कमीशन सेंटर?
कई निजी स्कूलों में किताबों की बिक्री अब एक रिटेल मार्केट जैसा हो गया है। स्कूल प्रबंधन प्रकाशकों से मोटा कमीशन लेकर उन्हीं की किताबें बच्चों पर थोप देता है। इसके लिए पहले से चुनिंदा दुकानों से गठजोड़ किया जाता है और अभिभावकों को मजबूर किया जाता है कि वे इन्हीं दुकानों से किताबें लें। ऐसे में न केवल विकल्पों की आज़ादी छीनी जाती है, बल्कि एक कृत्रिम महंगाई भी पैदा की जाती है। पुस्तक विक्रेताओं को एनसीईआरटी की किताबों पर मात्र 15-20% कमीशन मिलता है, जबकि निजी प्रकाशक 30-40% तक कमीशन देते हैं। यही मोटा मुनाफा स्कूल संचालकों को लालच की ओर खींच ले जाता है। कुछ स्कूल तो इतने आगे निकल चुके हैं कि वे खुद ही किताबें मंगवाकर अपने परिसर में ही बेचते हैं, जिससे पूरा कमीशन सीधा स्कूल के जेब में जाता है। यह किसी भी दृष्टि से शिक्षा का उद्देश्य नहीं हो सकता।
हर साल बदलता पाठ्यक्रम: मजबूरी या चालाकी?
पहले के समय में एक ही किताब कई सालों तक चलती थी। बड़े बच्चे की किताबें छोटे भाई-बहन भी पढ़ सकते थे। लेकिन आज स्थिति उलट है। हर साल किताबें बदल दी जाती हैं। कभी अध्यायों की क्रम संख्या बदल दी जाती है, कभी कवर डिज़ाइन बदल दी जाती है, तो कभी एक पन्ने के बदलाव के नाम पर पूरी किताब बदलवा दी जाती है। यह बदलाव शिक्षा की गुणवत्ता के नाम पर नहीं, बल्कि कमीशन की चालाकी के तहत किए जाते हैं। यह बात सोचने वाली है कि एनसीईआरटी की किताबें कई वर्षों तक बिना बदलाव के चलती हैं, क्योंकि उन्हें विशेषज्ञों द्वारा गहन शोध के बाद तैयार किया जाता है। लेकिन प्राइवेट स्कूलों में पाठ्यक्रम का ‘स्तर’ हर साल अचानक इतना गिर जाता है कि उसे पूरी तरह बदलने की ज़रूरत पड़ती है? यह तर्क नहीं, साजिश है।
अभिभावकों की बेबसी: विरोध का मतलब खतरा
अभिभावक जानते हैं कि उनके साथ अन्याय हो रहा है। वे महसूस करते हैं कि उनकी जेब से जबरन पैसे निकाले जा रहे हैं। फिर भी वे चुप हैं, क्योंकि उनके विरोध का सीधा असर उनके बच्चों की पढ़ाई पर पड़ सकता है। स्कूल यदि नाराज़ हो गया, तो बच्चों को मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा सकता है, उन्हें अलग ट्रीटमेंट दिया जा सकता है, या अनावश्यक रूप से तंग किया जा सकता है। यह डर निजी स्कूलों को बेलगाम बना रहा है। एक अभिभावक जब प्रशासन में शिकायत करता है, तो कार्रवाई स्कूल पर नहीं, बल्कि किताब बेचने वाले दुकानदार पर होती है। और वह भी बहुत ही सीमित स्तर पर। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या शिक्षा विभाग और प्रशासन को यह लूट दिखाई नहीं देती? या वे जानबूझकर आंखें मूंदे बैठे हैं?
स्कूलों की ‘अनुशंसा’ या ‘आदेश’?
अक्सर स्कूल प्रशासन कहता है कि हम किताबों की “अनुशंसा” करते हैं, ज़बरदस्ती नहीं करते। लेकिन वास्तविकता यह है कि यदि कोई अभिभावक अन्य किताबें लाने की बात करता है तो स्कूल उन्हें सीधे तौर पर अस्वीकार कर देता है। कुछ स्कूल तो छात्रों को उन किताबों से पढ़ाई में शामिल ही नहीं करते जो उनके अनुशंसित प्रकाशन की न हों। यह कैसे संभव है कि पूरे शहर में एक विशेष किताब केवल एक ही दुकान पर मिले? यह सीधा-सीधा एक संगठित व्यापारिक नेटवर्क है, जिसमें स्कूल, प्रकाशक और चुनिंदा दुकानदार शामिल हैं।
सरकार की चुप्पी: एक गंभीर सवाल
भारत सरकार ने स्पष्ट निर्देश दिए हैं कि केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड से जुड़े सभी स्कूलों में एनसीईआरटी की किताबें ही पढ़ाई जानी चाहिए। लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही है। अधिकांश निजी स्कूल इन निर्देशों का पालन नहीं करते और जब कोई पूछता है तो उसे नियमों की धज्जियां उड़ाने वाला कोई न कोई बहाना दे दिया जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें दोनों इस विषय पर गंभीर नहीं दिखतीं। चुनावी घोषणापत्र में शिक्षा सुधार की बात जरूर होती है, लेकिन वास्तव में शिक्षा को व्यापार से बचाने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
समाधान क्या हो सकता है?
सरकार को चाहिए कि वह निजी स्कूलों के पाठ्यक्रम निर्धारण और किताबों की सूची को पारदर्शी बनाने के लिए कानून बनाए। कोई भी स्कूल केवल निर्धारित शैक्षिक बोर्ड की किताबें ही पढ़ाए, और निजी प्रकाशकों की किताबों के चयन पर प्रतिबंध या स्पष्ट नियम हों। जैसे दवाओं के लिए एक मूल्य नियंत्रण प्रणाली होती है, वैसे ही शिक्षा से जुड़ी किताबों के लिए एक मूल्य निर्धारण आयोग होना चाहिए, जो किताबों की कीमत को तर्कसंगत बनाए।
सरकार को एनसीईआरटी की किताबों को व्यापक डिजिटल फॉर्मेट में उपलब्ध कराना चाहिए, ताकि कोई भी छात्र मुफ्त में उन्हें पढ़ सके। इससे अभिभावकों पर वित्तीय बोझ भी घटेगा। कानूनन तय हो कि कितने वर्षों के भीतर ही कोई किताब बदली जा सकती है, और उसके लिए भी पूरी प्रक्रिया पारदर्शी हो। हर स्कूल में एक अभिभावक परिषद होनी चाहिए, जो पाठ्यक्रम, किताबों और अन्य वित्तीय निर्णयों पर राय दे सके और उसका फैसला बाध्यकारी हो।
शिक्षा नहीं बिकनी चाहिए
आज जब हम ‘शिक्षा का अधिकार’ जैसे कानूनों पर गर्व करते हैं, तब यह सोचना भी जरूरी है कि क्या वह शिक्षा वास्तव में सबके लिए सुलभ है? यदि निजी स्कूल किताबों के नाम पर लूट मचाएंगे, यदि सरकारें मूकदर्शक बनी रहेंगी, और यदि अभिभावक चुपचाप यह सब सहते रहेंगे, तो यह देश की भावी पीढ़ी के साथ अन्याय होगा।
शिक्षा एक सेवा है, अधिकार है — न कि व्यापार। इसे बाजार की भाषा में तौलना भारत जैसे लोकतांत्रिक देश के लिए कलंक है। यदि अब भी हम नहीं जागे, तो अगली पीढ़ी न केवल महंगी किताबों के बोझ से दबेगी, बल्कि उस व्यवस्था के खिलाफ भी आवाज़ उठाएगी जिसने ज्ञान को बिकाऊ बना दिया।
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