धर्म का धंधा, कभी न मंदा: स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट बांटते तथाकथित महाराज

अन्तर्द्वन्द
मदन कोथुनियां

हम बचपन में जब कहानियों की कोई भी किताब पढ़ा करते थे, उस में एक कहानी इस टाइप की जरूर होती थी कि एक गांव में एक गरीब ब्राह्मण रहता था….एक दानवीर राजा था, जो सवेरेसवेरे राज्य के 100 ब्राह्मणों को 100 सोने की मोहरें और 100 गायें दान दिया करता था…..वगैरहवगैरह।

रोजरोज इतना सोना, इतनी गायें कहां से आती थीं ? मकसद सिर्फ एक था कि कैसे भी कर के ब्राह्मण को “बेचारा” साबित कर दो, ताकि वो लोगों की सहानुभूति का पात्र बना रहे और जितना हो सके कहानियों के माध्यम से दान का महिमामंडन करो, ताकि सवेरेसवेरे जब ब्रह्माण किसी के घर की चौखट पर आटालस्सी मांगने जाए तो उसे मंगता समझ कर दुत्कारें नहीं, अपितु ब्राह्मण देवता समझ कर एक मुट्ठी की जगह 2 मुट्ठी आटा, दाल, चावल और छाछ की जगह दहीघी डाले। तथाकथित धर्मग्रंथों में सब कुछ वही लिखा है, जो इन के लिए फायदे का सौदा था।

फायदे का धंधा

आजकल सभी धंधों में तेजी व मंदी का जोखिम बना रहता है। साथ ही, तारीख निकल जाने का भी खतरा बना रहता है। लेकिन इन सब से हट कर महज धर्म का धंधा ही ऐसा है, जो इन जोखिमों से दूर बिना पूंजी के अपनी धरती पर सदियों से धड़ल्ले से चलता आ रहा है।

धर्म को धंधा बना कर चालाक लोगों द्वारा गरीबों, दलितों, पिछड़ों का शोषण करने की महज सोचीसमझी प्रक्रिया है। यह एकतरफा वसूली है। आमजन के साथसाथ पूरे देश के भविष्य के लिए यह खतरनाक है। मुफ्त में ठग कर खाने वाली आदत बड़ी ख़राब होती है। खुद तो निट्ठले हो कर खा ही रहे है, लेकिन आमजनता के विकास की प्रक्रिया को भी रोक देते है।

किसी गरीब के पास 5 हजार रूपये है तो वो अपने बच्चों की पढाई पर खर्च करने के बजाय मंदिरमस्जिद या धर्म के अड्डों को चंदा दे देता है। बेचारे बच्चों का भविष्य कुर्बान कर दिया जाता है।

सालासर बालाजी मंदिर का पुजारी अपनी बेटी की शादी में 11 किलो सोना दें व करोड़ों रुपये खर्च कर डाले, तो इसे क्या कहेंगे ? जब कि मंदिर की देखरेख के लिए एक ट्रस्ट बना हुआ है व ट्रस्ट में शामिल पुजारियों को तनख्वाह दी जाती है। 30 हजार महीना तनख्वाह लेने वाला पुजारी इतना पैसा व धन अपनी बेटी पर कहांं से खर्च करेगा ? यकीनीतौर पर चंदेचढ़ावे में हेराफेरी हुई होगी, नहीं तो इतना खर्चा इस समय 30 हजार कमाने वाले के बूते में तो कतई नहीं है।

पुराने जीर्णशीर्ण मंदिरों के पुनर्निर्माण के नाम पर आजकाल हरेक गांव में इन पर करोडों रूपए खर्च किए जा कर भव्य मंदिर बनाए जा रहे हैं। दिलचस्प बात तो यह है कि इन मंदिरों के निर्माण में किसानों की कडी मेहनत की पूंजी इस्तेमाल की जा रही है।

राजस्थान के किसानों में पनपी इस नई प्रथा में गांवों के किसान बेबस या शौकशौक में अपनी मेहनत की कमाई भव्य मंदिर निर्माण के लिए दे रहे है। अकसर सभी गावों में ऐसा कार्य किया जा रहा है। चाहे किसान फटे कपडे पहने, उस के बच्चे भूखे रहें, बच्चे पढाई छोड़ दे, कर्ज के पैसे न चुके, लेकिन मंदिर निर्माण के लिए तो कमाई दान देनी ही होगी। अन्यथा धर्म के ठेकेदार नाराज हो जायेंगे और स्वर्ग जाने का सर्टिफिकेट नहीं मिलेगा।

हमारा समाज अब काफी शिक्षित हो चूका है लेकिन अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि सोच अभी भी अवैज्ञानिक एवं रूढ़िवादी है तथा पैसा उगाई का कार्य तथाकथित बुद्धिजीवी , पढ़ेलिखे एवं प्रतिष्ठित व्यक्तियों की समितियां करती है।

जब कोई इस तरह की लूटचोरी पर सवाल उठाते है तो नसीहत दी जाती है कि तुम लोग हिन्दू विरोधी हो, कम्युनिस्ट हो, मुल्ला हो, देशद्रोही हो, वगैरहवगैरह। तो क्या करे? एक सवाल इन का बड़ा हैरान करने वाला होता है कि लोग अपनी मर्जी से देते है, तेरा मन नहीं है तो मत दे।

लोग मर्जी से दान देते है। क्या आप को भी ऐसा ही लगता है कि लोग दान अपनी मर्जी से देते है? नमूने के तौर पर, जब कोई महिला गर्भवती होती है तो इन का प्रतिनिधि यह बताने आ जाता है कि आप के होने वाला बच्चा बड़ा काबिल होगा। बस थोड़ा राहु का प्रकोप है। पैदा होने के 7वें दिन एक मौत की घाटी आएगी जिस को कुछ मन्त्रहवन पढ़ कर व दान दे कर टाला जा सकता है। आप 10 ब्राह्मणों को खाना खिला कर कुछ दान दे दो तो यह समय टल जायेगा।
अब 9 महीने तक पीड़ा झेलने वाली वो महिला क्या करेगी? उस के पास दो ही विकल्प होते है। एक तो पंडितजी के कहे हिसाब से चल कर बच्चे को बचा ले या दूसरा विकल्प पैदा करने के बाद 7वें दिन को मरने के लिए छोड़ दे। कोई भी मांं अपने बच्चे को मरने के लिए नहीं छोड़ सकती। तो वह पहला रास्ता अपनायेगी व ढोंग पर अपनी मेहनत की कमाई लुटायेगी।

तो क्या हम यह मान ले कि उस मांं ने डर कर नहीं अपनी इच्छा से यह खर्चा कर डाला? 90% लूट के ढोंग का बौझ उठा रहे इस बूढ़े धर्म की सफाई नहीं होनी चाहिए ? कोई मर गया तो वो भूत बन कर परेशान न करे इसलिए पंडितजी के कहे अनुसार उधार ले कर ही सही, लेकिन झोलीझंडा उठा कर गंगा में बहाने के लिए हरिद्वार की तरफ निकलना ही पड़ेगा चाहे जिंदगी में कभी भूत देखा ही नहीं हो लेकिन पंडितजी ने डराया है तो डरना ही पड़ेगा। मासूमों की अज्ञानता का इस तरह नाजायज फायदा उठाना क्या धर्म के हिसाब से सही हो सकता है ?

या तो वैज्ञानिक शिक्षा व तार्किकता ला कर दुनियां के साथ मानव सभ्यता की दौड़ में साथ हो जाये या ललाट पर भंवरे, कान के पीछे तिल या हथेली की खाज को खुजलातेखुजलाते किसी अनहोनी से डरते रहिये या धन खोजते रहिये। आप चाहे तो पुराने काले जादू से भी चमत्कार की उम्मीद कर सकते है, क्योंकि ये लोग सब समस्याओं का समाधान ज्योतिष व जादू से करने का दावा जो करते है। हर गलीनुक्कड़ पर इन की दुकाने सजी हुई है।

गरीब लोगों का लुटना लगभग तय माना जाता है, चाहे वो मालीतौर से गरीब हो या मानसिक रूप से। मानसिक गरीब ज्यादा खतरनाक होते है क्योंकि इन का लूट के अड्डों पर आवागमन बहुत बड़ी आबादी पर असर डालता है। ये धनी व पढ़ेलिखे लोग होते है जिन को देख कर आर्थिक गरीब लोग भी अपना मानसिक आपा खो देते है।

साइरस मिस्त्री मंत्रो के बूते टाटा ग्रुप पर कब्ज़ा जमाने की कोशिश करे तो बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है, क्योंकि आर्थिक गरीब लोगों के दिमाग में भी यह घर कर जाता है कि शायद तिरुपति के दर्शन से अमिताभ बच्चन इतने बड़े स्टार बने होंगे व श्रीनाथजी को सोने का मुकुट चढाने से ही अम्बानी इतने बड़े उद्योगपत्ति बने है।

न तो लूटने वाले इस आदत से बाज आने वाले है न लुटाने वाले । क्योंकि धर्म एक महफ़िल की तरह व ढोंग नशे की तरह होते है। इस मदहोशी में जो झूमता है वो पूरा होशहवास खो देता है। एक मेरे मित्र है। काफी समय बाद उन से मिला तो वो ललाट पर हाथ फेरते हुए कुछ इस तरह बताने लगे “मेरे तीसरा नेत्र खुलता है, मैं मोहमाया से बहुत दूर हो चूका हूं, मैं नौकरी छोड़ कर हरिद्वार जाऊंगा, भजन करूंगा! ”

तभी उन का 12 वर्षीय बेटा पानी का गिलास ले कर आ गया व उस के पीछेपीछे 7 वर्षीय बच्ची भी आ गई। मैं बच्चों का मासूम चेहरा देख कर सहम सा गया। इन बच्चों का क्या होगा? था तो मैं भी जल्दी में लेकिन उन बच्चों की मासूमियत ने रोक लिया। फिर तीन घंटे तक साइकोथेरेपी का दौर चला। वो बिलकुल ठीक हो गए।

आज भी उधर से गुजरता हूं तो मिलने की हरसंभव कोशिश करता हूं। वो भी मुझे कहीं पर भी देखते है तो प्रेमभाव चेहरे से ही झलकने लगता है। पहले मैं कभी उन के घर नहीं गया था। उस दिन भी किसी अन्य दोस्त के माध्यम से संपर्क हुआ था। उस के बाद कई बार घर आनाजाना हुआ। आज उन के बच्चे अच्छी पढाईलिखाई कर रहे है। जब भी मिलते है तो बच्चों के भविष्य के बारे में चर्चा करते है। आज वो घर हकीकत में मुझे स्वर्ग नजर आता है। अगर वो नौकरी छोड़ कर हरिद्वार चले जाते तो क्या वो घर खुशहाल रहता ?

काबिलेगौर है कि कमजोर लोग संघर्षों से मानसिक संतुलन खो देते है और धर्म का धंधा करने वाले लोग ऐसे लोगों को ही टारगेट करते है। धार्मिक बनाने या धर्म परिवर्तन का भी असली कारण यही है। धर्म के नहीं इंसानियत के रखवाले बनो। धार्मिक स्थलों को नहीं अपने घरपरिवार को सजाओ।
मानव सभ्यता की उत्तरोत्तर दौड़ में अपने आप का वजूद बनाये रखना ही असली जीवन है। इस दौड़ का मैदान छोड़ कर धर्म की महफ़िलों में बैठ कर ढोंग के नशे में झूलना ब्रह्म की खोज नहीं बल्कि मानव जीवन से पलायन मात्र है। इसलिए मानव होने का सबूत मानव सभ्यता की बेहतरी के लिए कुछ योगदान दे कर दीजिये। अपने आसपास के संबंधों को गुलजार करिये। इंसान बनिये सिर्फ और सिर्फ इंसान।

धर्म के धंधे की विकृति

धर्म के धंधे का सब से हास्यास्पद और विकृत रूप देखना है तो पितृपक्ष श्राद्ध और इस के कर्मकांडों को देखिए। इस से बढ़िया केस स्टडी दुनिया के किसी कोने में आप को नही मिलेगी। ऐसी भयानक रूप से मूर्खतापूर्ण और विरोधाभासी चीज सिर्फ विश्वगुरु भारत के पास ही मिल सकती है। एक तरफ तो ये माना जाता है कि पुनर्जन्म होता है। मतलब कि घर के बुजुर्ग मरने के बाद अगले जन्म में कहीं पैदा हो गए होंगे, तो दूसरी तरफ ये भी मानेंगे कि वे अंतरिक्ष में लटक रहे हैं और खीरपूड़ी के लिए तडप रहे हैं ।

अब सोचिये पुनर्जन्म अगर होता है तो अंतरिक्ष में लटकने के लिए वे उपलब्ध ही नहीं हैं। किसी स्कूल में नर्सरी में पढ़ रहे होंगे या मिडडे मील वाले स्कूलो में खिचड़ी खा रहे होगें। अगर अन्तरिक्ष में लटकना सत्य है तो पुनर्जन्म गलत हुआ। लेकिन हमारे पोंगापंडित दोनों हाथ में लड्डू चाहते हैं। इसलिए मरने के पहले अगले जन्म को सुधारने के नाम पर भी उस व्यक्ति से कर्मकांड करवाएंगे और मरने के बाद उस के बच्चों को पितरों का डर दिखा कर उन से भी खीरपूड़ी का इंंतजाम जारी रखेंगे।

अब मजा ये कि कोई कहने पूछने वाला भी नहीं कि महाराज इन दोनों बातों में कोई एक ही सत्य हो सकती है। उस पर दावा ये कि ऐसा करने से सुखसमृद्धि आयेगी। लेकिन इतिहास गवाह है कि ये सब हजारों साल तक करने के बावजूद यह देश गरीब और गुलाम बना रहा है। बावजूद इस के हर घर में हर परिवार में श्राद्ध का ढोंग बहुत गंभीरता से निभाया जाता है और वो भी पढ़ेलिखे और शिक्षित परिवारों में। वाकई ये सच में एक चमत्कार है।

हर कदम पर लूट

वैसे धंधा तो सम्मानजनक होता है क्योंकि कोई सामान बेचता है और खरीददार खरीदते हैं। शर्तें तय की जाती हैं और मामला साफ़ होता है. यहांं तो लूट ही लूट है। धर्म की लूट। इन लोगों की महारत इसी से समझ में आ जाती है कि शिक्षित, जागरुक लोग भी इन के झांंसे में आ जाते हैं। कुछ हद तक मैं भी इस झाँसे में आ ही गया था। अफसोस कि ये बात थोड़ी देर से समझ में आई।

2 दिन की छुट्टी थी। सुझाव आया कि मथुरा और वृंदावन दो दिन में घूम सकते हैं। बृजभूमि है…कृष्ण से जुड़ी तमाम लीलाए….यमुना का तीर…ये सब सोच कर मन में कौतुहूल भी था। पर वहांं जो देखा और अनुभव किया उस का धर्म और कर्म से कम और छल और छलावे से लेनादेना ज्यादा था।

मथुरा में प्रवेश करते ही खुद को पंडे या गाइड कहने वाले लोग आप को घेर लेंगे। कहेंगे महज 551 रुपए में दर्शन कराएंगे। आप की गाड़ी का दरवाजा अगर खुला मिल गया तो आप के हांं या ना कहने के पहले आप की गाड़ी में बैठ भी जाएंगे।

दूरदराज़ से आए और इलाके से अपरिचित लोग आसानी से इन की बातों में आ जाते हैं। लेकिन बाद में पता चलता है कि ये 551 रुपए आप को काफी महंगे पड़ने वाले हैं। दरअसल ये पूरा रैकेट है। गाइड आप को मंदिर के बाहर तक ले जाता है और अंदर मौजूद किसी पंडित के हवाले कर देता है।

मथुरा में ऐसा ही एक पंडानुमा गाइड हमें मथुरा से गोकुल ले गया, बिना हमें ठीक से बताए कि वो हमें कहांं ले जा रहा है। रास्ते में वो कुछ बातें बारबार दोहराता रहा जैसे गाय को दान देना चाहिए, इस से उद्धार होगा वगैरहवगैरह।

मंदिर में गाइड ने हमें पंडित के हवाले कर दिया। पंडितजी भी आते ही समझाने लगे कि गाय के नाम पर दान देना कितना पुण्य की बात होती है। तब समझ में आया कि दरअसल गाइड हमारा दिमाग पहले से कंडीशन कर रहा था ताकि पंडितजी की बात मानने में हमें आसानी हो।

यहांं तक तो ठीक था। इस के बाद तो पंडितजी ने कमाल ही कर दिया। कहा, पूजा के बाद दान देना होगा। इस ‘दान देना होगा’ में आग्रह नहीं आदेश था। उस पर तुर्रा ये कि दान उन की बताई राशि के अनुसार देना पड़ेगा जिस में न्यूनतम स्तर तय था। उस से ज्यादा दे पाए तो कहना ही क्या। दान न हुआ मानो इनकम टैक्स हो गया कि न्यूनतम कर देना लाजमी है। अनावश्यक भावनात्मक दबाव बनाने के लिए पंडित बोले, “मंदिर में संकल्प करो कि बाहर दानपत्र में कितने पैसे दोगे, तभी बाहर जाओ।”

क्या इस के लिए आप के मन में धार्मिक ब्लैकमेल के अलावा कोई शब्द उभरता है? मन खिन्न था कि कैसी लूटखसोट है। धार्मिक लूट का रैकेट बना रखा है।

वापस लौटने पर एक सहयोगी ने बताया कि जगन्नाथपुरी जैसी जगहों पर तो हालात इस से भी बुरे है। इस तरह ठगने वाले लोग धर्मधर्म में फर्क नहीं करते क्योंकि एक अन्य मित्र ने बताया कि अजमेर शरीफ व पुष्कर जैसी जगहों पर भी लोगों को कुछ ऐसे ही अनुभवों से गुजरना पड़ता है।

चंदे की चाशनी

कोई भी धार्मिक काम बिना चंदे के नहीं होता। मेहनत की कमाई चंदे के माध्यम से ज्यादातर धार्मिक आयोजनों और अनुष्ठानों में जाती है। आम जनता चंदों से परेशान है, फिर भी धर्म के नाम पर अपनी जेब ढीली करने में कोताही नहीं बरतती। इसलिए चंदे का धंधा खूब फलफूल रहा है।

मेरे गांव कोथून से उत्तर दिशा मे तालाब किनारे एक तरफ जंगल से घिरा एक धार्मिक स्थल है। यहां शिव का एक प्राचीन मंदिर है। इस के बारे में कहा जाता है कि यहां स्थित शिवलिंग राजा भृतहरि द्वारा स्थापित हैं। बाद में भक्तों ने यहां मंदिर बनवा दिया था।

बहरहाल, जो भी हो, शिव का यह मंदिर काफी पुराना था, यह सच है। लेकिन 10-15 साल से यह नए स्वरूप में खड़ा है। यहां लाल पत्थर की जगह अब भव्य मार्बल और संगमरमर के पत्थर लगे हैं। मंदिर की ऊंचाई भी आकाश को छूती नजर आती है और यह सारा कमाल हुआ है चंदे के धंधे से।

ऐसा एक नहीं, कई मंदिर और हैं जो चंदे और चढ़ावे से आज विशाल रूप लिए हुए हैं। अब तो ट्रस्ट के नाम पर चंदा उगाही होती है जिस में एक नहीं, कई महंतपुजारियों का हिस्सा होता है जो बराबरबराबर बंटता है और बंटवारे में जहां तीनपांच हुआ, तो वहीं आपस में लड़ाईझगड़ा शुरू हो जाता है।

महंतपुजारी आने वाले भक्तों से रसीद काट कर चंदा वसूलते हैं और शहरगांव में घूमघूम कर धनपतियों से भी उन की धार्मिक भावनाओं का दोहन कर के चंदा वसूला जाता है।

कुल मिला कर बात यह है कि चाहे कोथून का शिव मंदिर हो या फिर देश के कोनेकोने में बने मंदिर, इन मंदिरों के नाम पर करोड़ों का चंदा वसूला जाता है। इस चंदे से मंदिरों का भव्य निर्माण तो होता ही है, साथ ही महंतोंपुजारियों की जीवनशैली भी भव्य हो जाती है। अब इन लोगों ने आमदनी के लिए दूसरे मंदिर भी बना लिए हैं। महंतपुजारी अब 4 पहियों की गाडि़यों में सफर करते हैं और भोगवादी जीवन जीते हैं।

हमारे देश और समाज में कई ऐसे आयोजन होते हैं जिन का संचालन चंदे की रकम से ही होता है। कुछ धूर्त लोग एक कमेटी या संस्था बना कर ऐसे कामों का आयोजन करते हैं। सार्वजनिक मेले, मंदिर में मूर्ति स्थापना, भंडारों का आयोजन, होलिका दहन, धार्मिक कथाओं का आयोजन, कवि सम्मेलन, देवी जागरण आदि ऐसे कई काम हैं जो आम आदमी के आर्थिक चंदे से किए जाते है।

भंडारे का भारी खेल

हमारे समाज में एक बड़ा आयोजन होता है भंडारे का। हमारे देश में हर साल कितने भंडारे होते हैं, इस का सहीसही आकलन कठिन है। आमतौर पर नवरात्रों में मां दुर्गा को प्रसन्न करने के लिए सार्वजनिक भोज अर्थात भंडारे का आयोजन होता है। फिर किसी धार्मिक कथा का आयोजन हो या किसी साधुमहात्मा की पुण्यतिथि या पैदलयात्रा वगैरह हो, तो भी भंडारों का आयोजन किया जाता है।
यह एक ऐसा काम है जिस से आवश्यकता से अधिक चंदा इकट्ठा कर लिया जाता है। किसी भंडारे में 500 लोगों ने भी भोजन किया तो प्रचार यही किया जाता है कि ढाईतीन हजार लोगों ने खाना खाया और ऐसे ही झूठे आंकड़ों के आधार पर हर साल चंदा वसूली की जाती है।

चंदा वसूलते समय यह कह कर दबाव बनाया जाता है कि अरे, इतने हजार लोगों का खाना है, इतने पैसों से क्या होगा, और दो। और इस बात को सत्य ही समझिए कि धार्मिक भंडारों में दिया जाने वाला चंदा एक मोटा धंधा है। जितना बड़ा आयोजन, उतना ही तगड़ा चंदा।

कुछ बड़े भंडारों में तो लाखों का चंदा किया जाता है। आधा खर्च करने के बाद भी आधे की बचत हो जाती है। छोटेमोटे भंडारों में भी 10-20 हजार रुपए की बचत मामूली बात है। जो लोग कमेटी बना कर या किसी मंदिर से जुड़ कर भंडारे करवाते हैं, उन का मकसद यह कतई नहीं होता कि वे भूखों को खाना खिलाएं। यदि ऐसा होता तो ये लोग रोज ही अपने यहां किसी एक वंचित को तो भोजन करा ही सकते हैं। सार्वजनिक भोजन के नाम पर चंदा और चंदे के नाम पर कमाई ही इन का मुख्य मकसद होता है।

किसी मंदिर में किसी देवीदेवता की मूर्ति स्थापना करनी हो तो चंदा। होली जलाने के लिए लकडि़यां लानी हों तो चंदा। दशहरे पर रावण भी चंदे की रकम से पाटा जाता है। देवी जागरण और मेलों के आयोजनों में भी चंदा वसूली की जाती है। समाज के जो धूर्त लोग चंदे का धंधा करते हैं, वे कोई भी मौका हाथ से जाने नहीं देते। दरअसल, इस अवैध वसूली पर ही उन की शराबखोरी और ऐयाशी फलतीफूलती है।

कई मामलों में चंदा वसूली पूरी तरह से आर्थिक शोषण की तरह हो जाती है। कई बार यह देखा गया है कि 10-12 युवाओं का टोला आता है। महंगाई के दौर में चंदे का धंधा करने वालों ने अपनी धनराशि भी बढ़ा दी है। छोटे से छोटे आयोजन में भी वे 101 रुपए से कम लेते ही नहीं। बड़े आयोजनों में यह धनराशि 1000, 5,000 और 10,000 रुपए तक होती है। जो परिवार 15-20 हजार रुपए कमा कर अपनी औसत जिंदगी जीता है, उस के लिए साल में कईकई बार चंदा देना कितना बड़ा दर्द है, यह समझा जा सकता है।

झालावाड़ के गोतमेश्वर मंदिर से हर साल औसतन 50 हजार प्रमाणपत्र पाप मुक्ति के जारी होते हैं। यानी 6 लाख रुपए बैठेबिठाए पंडित को मिल जाते हैं। इस से दोगुनी राशि का अनाज भी दान में आता है।

विज्ञान के इस युग में इस तरह के मंदिर और प्रमाणपत्र सभ्यता व समझदारी पर सवालिया निशान लगाते हैं कि लोगों को क्यों अपने पापी होने का भ्रम है? और क्या मुक्ति इतनी सस्ती है कि महज चंद रुपयों में वे नए पाप करने का लाइसैंस हासिल कर लें?

दरअसल, यह तामझाम बताता है कि हम अभी भी पिछड़े, असभ्य और कायर हैं। इसीलिए मुक्ति के नाम पर धर्मस्थलों और पंडों के मुहताज हैं। दिमागी दिवालिएपन की यह हद है कि ताजी हवा और तर्कों से लोग कोई वास्ता नहीं रखते हुए गंवार ही रहना चाहते हैं।

पंडों को यह हक है कि वे कागज का एक टुकड़ा जारी कर विभिन्न जातियों को मजबूर कर सकते हैं कि दोषी यानी मरजी से जिंदगी जीने वाले को वापस लिया जाए, तो जाहिर है कि यह अदालतों की बेबसी की भी एक बड़ी मिसाल है जिस पर सभी खामोश हैं और यह खामोशी जातिवाद, कट्टरवाद, खाप पंचायतों और पंडावाद को बढ़ावा देने वाली साबित हो रही है। समाज अभी भी धर्म से नियंत्रित और संचालित हो रहा है। अदालतें तो धर्म के सामने बौनी सी लगती हैं जिस का प्रमाण गोतमेश्वर मंदिर का पाप मुक्तिप्रमाण पत्र है।

ऐसे ही धार्मिक चंदो के प्रमाण पत्र कई लोगों के घर में दीवारों पर लटके हुए मिलते हैं और उस से वे अपनी प्रतिष्ठा की निशानी समझते हैं।

धर्म के दुकानदारों को हमेशा से ही पापियों की सख्त जरूरत रही है। इसलिए पाप की परिभाषा व उदाहरण आए दिन बदलते रहते हैं। छोटी जाति वाले को छू लेना पहले सा बड़ा पाप नहीं रहा। वजह, उस की जेब में आया हुआ पैसा है। लिहाजा, उसे भी धर्म के मकड़जाल में फंसा लिया गया है। नतीजा यह हुआ कि पढ़ालिखा कल का अछूत धर्मग्रंथों में वर्णित पाप से डरने लगा और बचने के लिए पैसा चढ़ाने लगा।

धर्मगुरु और उन के ग्राहक

धर्म एक ऐसा नशा है अगर उस का नशा सर पर चढ़ जाए तो आप ऐसे तथाकथित धर्म (ग़लत फिलॉसफी ) के वशीभूत हो कर अनेक तरीक़े से उन तथाकथित निठल्लों बाबाओं के लिए भरपूर सुखसुविधा का इंतजाम आप खुद ही करने लग जाते है। जैसे दान, पुण्य, डोनेशन, धार्मिक भवन आदि बनाने मेंं आर्थिंक सहयोग देना। यहांं तक कि धर्म कें नाम पर इंसानइंसान की हत्या तक करने कें लिए उग्र हो जाते है। इस कारण देश मेंं कई साम्प्रदायिक झगड़े और दंगे हो चुके है।

क्या कभी आप ने सोचा है कि क्या धार्मिक संगठनों ने समाज का कोई कल्याण किया है आजतक। बात थोड़ी कड़वी है लेकिन सत्य है। आज भी हमारे समाज मे इतनी गरीबी, अनाथ और लाचार लोग क्यो है ? क्या कभी ऐसे धार्मिक संगठन के लोग अपने समाज की दुर्दशा के बारे मे सोचते है ? नही ना।

लेकिन जब आस्था और धर्म की बात आती है तो हम लोग लोक लिहाज के कारण भी आर्थिंक सहायता देने के लिए प्रेरित हो जाते है। जितने भी धार्मिक संस्थान आप देखते है या कोई धार्मिक संगठन आप भारत मे देखते है क्या उन के पास दान के अलावा अन्य कोई आय के स्रोत होते है क्या ? नही ना, फिर भी उन के पास धन की कोई कमी नही होती और जो लोग उन संगठन के कर्ताधर्ता होते है क्या आप उन को फटेहाल मे देखा है कभी ?

धार्मिक प्रवचन देने वालों की जीवनशैली देखे तो कही से भी आप को वे लोग अभावग्रस्त नही दिखेंगे। आखिर सोने औऱ चांदी के सिहांसन मे विराजमान हो कर धर्म उपदेश देने वाले गरीब कैसे हो सकते है ? यह सब विलासिता कहांं से आती है ? यह सब आप के अंधभक्ति द्वारा दिए गए दान के पैसे से आता है ।

इस कारण आजकल कई ऐसे तथाकथित ढोंगी लोग सीधे सरल लोगो को अपने धार्मिक प्रपंच के मायाजाल मे फंसा कर उन से खूब धन इकट्ठा करते है और विलासितापूर्ण जीवन जीते है। कुछ ढोंगी बाबा अपने आप को अवतार पुरुष तक घोषित कर देते है औऱ भोलीभाली धर्मभीरु महिलाओं का शारीरिक शोषण तक कर डालते है।

पिछले कुछ वर्षों में इस तरह के कई बाबाओं पर भारतीय दंड संहिता के तहत बलात्कार औऱ हत्या के केस दायर किए गए है औऱ वह अपराध प्रमाणित भी हुए। पिछले वर्षो कितने फर्जी बाबा पकड़े गए और वे सब जेल की हवा खा रहे है।

इस मे हम दोष किस को दे ? कारण यह है कि हर व्यक्ति अंदर से ही भक्ति से लबरेज होता है और जब कोई फर्जी बाबा या फर्जी गुरु दोचार प्रवचन दे देते है तो लोग उन की ओर आकर्षित हो जाते है और फिर धीरेधीरे लोग उन के छलप्रपंच मे फंस कर उन के अनुयाई बनने लग जाते है।
लोगो को लगने लगता है कि उन का गुरु उन को ईश्वर तक पहुंचाने मे मदद करेगा या धार्मिक ज्ञान, दिव्य ज्ञान, ईश्वरीय ज्ञान, अलौकिक ज्ञान उन के गुरु के अंदर कूटकूट कर भरा हुआ है। यह बात सत्य भी है कि उन के पास भक्तो को मंत्रमुग्ध कर देने वाले एक से एक प्रवचनों का भंडार होता है। साथ ही साथ भजन मंडली जो पूरे साजोसामान से लैस होते है। संगीत का ऐसा शमा बांंध देते है कि हर कोई भी व्यक्ति पुरुष हो या महिला भक्तिरस मे झूम उठता है।
इसी कारण हमारे देश मे कई फर्जी बाबा उठ खड़े होते है। जैसे कृपा वाले बाबा, इच्छाधारी बाबा, सर्वज्ञानी बाबा वगैरहवगैरह। बाबा के साथसाथ कई महिलाए भी इस तरह के फर्जी काम मे लगी हुई है । इस तरह विवेकशून्य हो कर धर्म और आस्था कें नाम पर किसी के भी पीछे चल देना अंधापन नही तो और क्या है ?

धर्म और आस्था कें नाम पर मंच से दान देने या सहायता राशि देने की अपील कर दी जाए तो हर कोई अपनी जेब से कुछ ना कुछ अवश्य ही दे देता है। जिस से ऐसे संगठनो को आय प्राप्त हो जाती है। फिर ऐसे संगठन घोषणा करते है कि अगला प्रोग्राम फलानेफलाने जगह पर होगा। फिर ऐसे आयोजक़ो द्वारा पूरे प्लान के साथ भक्तो क़ो बेचने कें लिए नईनई चीजो को आयोजन के माध्यम से आयोजन स्थल मे खरीदफरोख्त की चीजे रखी जाती है। इस प्रकार पूरा व्यवसाय ही खड़ा किया जाता है और हम उस आस्था और विश्वास के नाम पर कुछ ना कुछ जरूर खरीदते है।

ऐसे कई बड़ेबड़े धार्मिक कार्यक्रम देखे है। लाखो की भीड़ इक्कठी होती है वहांं। पंडाल कें बाहर पूरा बाजार लगा होता है। धर्म और आस्था कें नाम पर लोग कुछ ना कुछ खरीद कर ले ही जाते है। यह पूरी तरह से सुनियोजित तरीके से चलाया जाता है ताकि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सके।

आज ऐसे कई फर्जी बाबा पैसो कें साथसाथ राजनीतिक शक्तियां भी खूब हासिल कर रहे है। बड़ेबड़े नेता उन फर्जी बाबाओं कें आशीर्वाद भी खूब लेने जाते है ताकि उन से राजनीतिक लाभ लिया जा सके।

आज हमारा देश यदि थोडाबहुत उन्नति की ओर प्रखर हो रहा है तो इस का श्रेय विज्ञान और शिक्षा क़ो दिया जाना चाहिए ना कि अंधभक्ति और तथाकथित बाबाओ क़ो। तथाकथित बाबाओं और उन के तथाकथित धर्म ने सिर्फ लॊगॊ क़ो लूटने का काम किया है। आज कें संदर्भ मे धर्म का समावेश देश की राजनीति कें साथ होना अत्यंत खतरनाक बात है।