कागज़ात में हेरफेर ? क्या बड़ी कोई ताकत मौजूद है!!
आगरा के पॉश चर्च रोड पर एक ऐसी कहानी सामने आई है, जो हमारे सिस्टम की आँखों पर चढ़ी मोटी पट्टी का हाल सुनाती है। यह कहानी है निष्क्रांत संपत्ति की, जो देश के विभाजन के बाद सरकारी हो गई थी, लेकिन अब उस पर रसूखदारों के आलीशान महल खड़े हैं। यह कैसा चमत्कार है कि सरकारी जमीनें अचानक कुछ खास लोगों की हो जाती हैं और सरकार को कानोंकान खबर तक नहीं होती? या फिर खबर होती है और नज़र पर पैसों की पट्टी चढ़ जाती है?
मामला आगरा के दयालबाग निवासी राजकुमार की शिकायत से शुरू हुआ। उन्होंने मुख्यमंत्री पोर्टल पर एक शिकायत दर्ज कराई, जिसके बाद शासन हरकत में आया और जिला प्रशासन को जांच के आदेश दिए। शिकायत में कहा गया है कि चर्च रोड पर एक बेशकीमती जमीन थी, जो विभाजन के समय अब्दुल मजीद की थी। वह पाकिस्तान चले गए, तो जमीन सरकारी हो गई। लेकिन, कुछ लोगों ने जादुई तरीके से इस जमीन को हथिया लिया। आज उस पर बहुमंजिला इमारतें और व्यावसायिक प्रतिष्ठान खड़े हैं।
यूं तो हमारे देश में ऐसे कई विभाग हैं, जिनका काम इन सरकारी जमीनों की निगरानी करना है। लेकिन, जब तक कोई आम आदमी शिकायत न करे, तब तक उनकी नींद नहीं खुलती। क्या ये विभाग सिर्फ कागज़ों में ही काम करते हैं? या फिर इनके पास कोई खास किस्म का चश्मा है, जो सिर्फ उन्हीं चीजों को देखता है, जिससे इन्हें फायदा हो?
जांच के नाम पर खानापूर्ति?
जब शासन के आदेश पर जिला प्रशासन ने जांच के लिए एक टीम बनाई, तो लोगों को उम्मीद जगी कि शायद अब दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। मई 2025 में नायब तहसीलदार, राजस्व निरीक्षक और लेखपाल की टीम मौके पर पहुंची। लेकिन, जांच के नाम पर क्या हुआ? टीम ने देखा कि वहां पुराने बहुमंजिला आवास बने हुए हैं। जब टीम ने वहां रह रहे लोगों से कागजात दिखाने को कहा, तो किसी ने कुछ नहीं दिखाया। यह कितनी अजीब बात है कि जिस जमीन पर आप रह रहे हैं, उसका कोई दस्तावेज आपके पास नहीं है! और फिर भी आप शान से वहां रह रहे हैं। क्या यह जांच का मजाक नहीं है?
एसडीएम सदर की रिपोर्ट में भी यह साफ कहा गया है कि “अभी जांच की जा रही है।” यह जांच कब पूरी होगी, यह कोई नहीं जानता। शायद तब, जब मामला ठंडा पड़ जाए और लोग इसे भूल जाएं।
शिकायतकर्ता का कहना है कि अगर सही से जांच हुई, तो कई बड़े नाम सामने आएंगे। लेकिन, क्या हमारे सिस्टम में इतनी हिम्मत है कि वो रसूखदारों के गिरेबान तक हाथ डाल सके? या फिर हमेशा की तरह, एक बार फिर इस मामले को कागज़ों के ढेर में दबा दिया जाएगा?
सवाल तो उठेंगे ही
जिस विभाग को निष्क्रांत संपत्तियों की रक्षा का जिम्मा दिया गया है, क्या उसे कभी यह नजर नहीं आया कि सरकारी जमीन पर इमारतें बन रही हैं?
क्या यह विभाग तब तक आंखें बंद करके रखता है, जब तक कोई आम आदमी शिकायत न करे?
क्या यह विभाग सिर्फ इसलिए अनदेखी करता है, क्योंकि इसकी आँखों पर पैसों की पट्टी चढ़ी हुई है?
कागज़ों में हेरफेर करने वालों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती, और क्या फर्जी रजिस्ट्री कराने वालों को कोई सजा कभी मिलेगी?
यह सिर्फ एक जमीन का मामला नहीं है। यह हमारे सिस्टम की उस कमजोरी को दिखाता है, जो रसूखदारों के सामने घुटने टेक देती है। यह बताता है कि हमारे देश में कानून और नियम सबके लिए एक जैसे नहीं हैं। सवाल यह है कि क्या यह जांच सच में पूरी होगी, या फिर इसे भी “सरकारी” फाइलों के बीच दफ़न कर दिया जाएगा, जैसा कि अक्सर होता है।
-मोहम्मद शाहिद की कलम से