नमस्कार, मैं मोहम्मद शाहिद. आज बात करेंगे आगरा की, जिसे कभी स्मार्ट सिटी बनाने के सपने दिखाए गए थे. लेकिन आज आलम ये है कि शहर की सड़कों पर कूड़े के ढेर, हर तरफ गंदगी का साम्राज्य और जनता की पीड़ा, इन सबकी गूंज सुनाई दे रही है. और इस सबके बीच, हमारे जनप्रतिनिधियों की बेफिक्री और बेतुकी बयानबाजी, क्या ये सब हमें सोचने पर मजबूर नहीं करता कि आखिर इस लोकतंत्र में जनता की हैसियत क्या है? क्या जनता सिर्फ वोट देने की मशीन है, या फिर उसके लिए भी कुछ मायने हैं?
सियासी अखाड़ा बना नगर निगम: ‘मेरी मर्जी’ बनाम ‘जनता की जरूरत’
आज की खबर आगरा से है, जहां मेयर हेमलता दिवाकर कुशवाह और सपा सांसद रामजीलाल सुमन के बीच एक अजीबोगरीब जंग छिड़ गई है. ये जंग है शहर की सफाई और सफाईकर्मियों की भर्ती को लेकर. सपा सांसद रामजीलाल सुमन 17 जुलाई को नगर निगम में धरने पर बैठते हैं और आरोप लगाते हैं कि आगरा नगर निगम में भ्रष्टाचार के चलते सफाई कर्मचारियों की भर्ती नहीं हो पा रही है. उनकी मानें तो आगरा स्मार्ट नहीं, बल्कि ‘नरक सिटी’ बन चुका है. उनके सवाल गंभीर हैं: आगरा में जनसंख्या के हिसाब से 7,500 सफाई कर्मचारी होने चाहिए, लेकिन मौजूदा संख्या सिर्फ 4,000 है. यानी 3,500 कर्मचारियों की कमी है. पिछले साल नगर निगम ने 1,000 सफाई कर्मचारियों की भर्ती का प्रस्ताव पास किया था, लेकिन एक भी भर्ती नहीं हुई. बारिश का मौसम है, जलभराव है, बीमारियां फैलेंगी. कौन जिम्मेदार है?
और फिर आता है वो जवाब, जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था की विडंबना को उजागर करता है.
मेयर हेमलता दिवाकर कुशवाह, सपा सांसद पर पलटवार करते हुए कहती हैं, “विपक्ष के पास जब कोई मुद्दे नहीं हैं… मैं उनको बता देना चाहती हूं, नगर निगम अपना कार्य कर रहा है. जहां तक भर्ती का सवाल है तो वह सरकारी भर्ती नहीं है. हमें जहां लगता है कि भर्ती करनी चाहिए तो हम भर्तियां भी करते हैं. *उनके हिसाब से भर्तियां नहीं होंगी. हमारी सुविधा के अनुसार, नगर निगम में भर्तियां होंगी.”*
क्या आपने इन शब्दों पर गौर किया? “हमारी सुविधा के अनुसार, नगर निगम में भर्तियां होंगी. ” ये कैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था है, जहां जनता की जरूरत नहीं, बल्कि मेयर की ‘सुविधा’ सर्वोपरि है? क्या नगर निगम किसी की निजी जागीर है, जहां नियम और कानून जनता के लिए नहीं, बल्कि सत्ता में बैठे लोगों की मर्जी से चलेंगे?
जब जनता का सवाल बन जाए ‘राजनीतिक दुश्मनी’
सपा सांसद रामजीलाल सुमन ने नगर निगम में आकर अपनी बात रखी, धरना दिया. एक जनप्रतिनिधि होने के नाते, उनका ये अधिकार बनता है कि वो जनता की समस्याओं को उठाएं और उनके लिए आवाज बुलंद करें. लेकिन मेयर साहिबा को ये बात नागवार गुज़री. उन्होंने सांसद के नगर निगम आने को ‘कार्यशैली पर सवाल उठाना’ करार दिया, मानो नगर निगम में प्रवेश केवल उनकी अनुमति से ही संभव हो. क्या ये हमारी राजनीति की नई परिभाषा है, जहां जनता का प्रतिनिधि अगर सवाल पूछे, तो वो फौरन ‘दुश्मन’ बन जाता है? क्या आगरा की जनता को ये समझना चाहिए कि अगर कोई उनके लिए आवाज़ उठाएगा, तो उसे इसी तरह उल्टा जवाब मिलेगा?
यह सिर्फ सफाई कर्मचारियों की भर्ती का मामला नहीं है, यह जनता के प्रति जवाबदेही का मामला है. ये इस बात का मामला है कि क्या हमारे चुने हुए प्रतिनिधि, जो जनता के वोटों से चुनकर आते हैं, वो सचमुच जनता की सेवा के लिए हैं या अपनी ‘सुविधा’ के लिए
स्मार्ट सिटी का ढोंग बनाम नरक का सच
सपा सांसद रामजीलाल सुमन ने सही कहा है कि आगरा ‘स्मार्ट सिटी’ नहीं, बल्कि ‘नरक सिटी’ है. स्मार्ट सिटी के नाम पर करोड़ों का बजट आता है, लेकिन ज़मीन पर हकीकत कुछ और ही बयां करती है. जब शहर में गंदगी के ढेर लगे हों, नालियां जाम हों, लोग बीमारियों से जूझ रहे हों, तो ये ‘स्मार्ट सिटी’ का जुमला सिर्फ एक मज़ाक बनकर रह जाता है. ये किसका बजट है? ये जनता का पैसा है, जो उनके टैक्स से आता है. और उस पैसे का क्या हो रहा है? क्या उसका ‘बंदरबांट’ हो रहा है, जैसा कि सांसद आरोप लगा रहे हैं?
बारिश के मौसम में, जब जलभराव और गंदगी बीमारियों को न्योता देती है, तब सफाई कर्मचारियों की कमी का सवाल और भी गंभीर हो जाता है. लोग बीमार होते हैं, अस्पताल के चक्कर लगाए जाते हैं, उनकी कमाई पर असर पड़ रहा है. क्या इस सब की जिम्मेदारी मेयर साहिबा और नगर निगम की नहीं है? या उनकी ‘सुविधा’ में ये सब बातें शामिल नहीं हैं?
क्या ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’ यही नया मंत्र है?
आज आगरा से जो तस्वीर सामने आ रही है, वो केवल एक शहर की नहीं, बल्कि हमारे देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में बढ़ते अविश्वास की तस्वीर है. जब जनता की समस्याएं सिर्फ ‘राजनीतिक मुद्दे’ बन जाएं, जब जनप्रतिनिधि अपनी ‘सुविधा’ को जनता की ‘जरूरत’ से ऊपर रखने लगें, तो फिर लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है?
क्या आगरा के लोग सिर्फ ये देखने के लिए हैं कि कैसे सत्ता में बैठे लोग अपनी मर्जी चलाते हैं, और जनता की परवाह किए बिना अपनी ‘सुविधा’ का ध्यान रखते हैं? क्या ‘अपना काम बनता, भाड़ में जाए जनता’ ये ही हमारी राजनीति का नया मंत्र बन गया है? ये सवाल हम सबके लिए हैं, और हमें इनके जवाब खोजने होंगे.
-मोहम्मद शाहिद