सेशंस कोर्ट से दोषी व्यक्‍ति को इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 40 साल बाद किया बरी

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इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पिछले हफ्ते चार दशक पहले दायर की गई एक अपील पर फैसला देते हुए सजा पाए राज कुमार को सभी आरोपों से बरी कर दिया। अपराध 1981 में हुआ था। सेशंस कोर्ट का फैसला 1982 में आया और अपील का निपटारा 2022 में जाकर हुआ। बरी होने का फैसला आने से पहले राजकुमार ने इतने साल जेल में काट दिए जबकि तीन अन्य अभियुक्तों की मौत हो चुकी है। दुर्भाग्य से, यह इस तरह का पहला मामला नहीं है।

क्रिमिनल अपील में देरी और बैकलॉग का बोझ एक बड़ा मसला है। 1958 में पहले विधि आयोग ने पाया था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के पास 3,727 अपील पेंडिंग थीं। आज आलम यह है कि यह आंकड़ा बढ़कर 1,56,276 अपील का हो चुका है। मध्य प्रदेश में 87,617 अपील पेंडिंग हैं, पंजाब और हरियाणा में 68,956 और राजस्थान में 49 हजार से ज्यादा और पटना में 36818 केस पेंडिंग हैं। इससे साफ हो जाता है कि यह परेशानी कितनी बड़ी है।

इस तरह से देश के सभी हाई कोर्ट में 10 साल से 2.5 लाख केस पेंडिंग चल रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट सालाना औसतन 6,000 मामलों पर फैसला देता है। अगर सुप्रीम कोर्ट इन सभी क्रिमिनल अपील का निपटारा करने की सोचे तो कोई दूसरा काम किए बगैर उसे 40 साल से ज्यादा समय लगेगा।

सुप्रीम कोर्ट ने कई बार स्वीकार किया है कि समय पर न्याय करने की सिस्टम की अक्षमता के चलते अभियुक्त को कैद में रखना अन्याय है। राजकुमार के केस में यह अन्याय तो और भी बढ़ गया। 2020 में सुप्रीम कोर्ट ने खुर्शीद अहमद केस में 10 हाई कोर्टों से यह बताने को कहा था कि कितनी क्रिमिनल अपील पेंडिंग है, अभियुक्त का स्टेटस और मामलों के तेजी से निपटारे के लिए क्या रणनीति अपनाई जा रही है।

ऐसे में यह समझना महत्वपूर्ण है कि आखिर देरी होती क्यों है? दिल्ली हाई कोर्ट के सभी केसेज को लेकर की गई एक स्टडी में पता चला कि 70 प्रतिशत देरी के मामलों में वकीलों ने तीन बार से ज्यादा समय मांगा था। इससे साफ है कि जब तक जज ऐसे वकीलों पर सख्त नहीं होते, अपील की पेडेंसी बनी रहेगी।

हलफनामों में बताया गया है कि पुराने मामले को प्राथमिकता देते हुए कैदियों को कानूनी सहायता प्रदान करने के साथ ही स्पेशल बेंच का गठन किया जा रहा है। हाई कोर्ट ने इस बात पर जोर दिया है कि न्यायिक पदों पर नियुक्ति की भी जरूरत है। हालांकि ज्यादा जजों की नियुक्ति भर से इस समस्या का समाधान नहीं होने वाला। JALDI (Justice, Access and Lowering Delays in India) पहल की प्रमुख दीपिका किन्हल ने अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में अपने एक लेख में लिखा है कि यह हमारे न्यायिक प्रशासन की विफलता को दर्शाता है।

उन्होंने कहा कि हाई कोर्ट में क्रिमिनल अपील में चार प्रमुख कारक होते हैं- जज, वकील, अभियुक्त और रजिस्ट्री स्टाफ। जजों के लिए क्रिमिनल अपीलों को प्रभावी तरीके से देखना महत्वपूर्ण है। उनका क्रिमिनल केस में अनुभव भी काफी मायने रखता है। इस तरह से हाई कोर्ट बेंच में उचित कैंडिडेट को भेजने से पहले कलीजियम को यह भी देखना चाहिए कि उस शख्स के पास पर्याप्त क्रिमिनल लॉ में विशेषज्ञता है या नहीं। ऐसे में उस तरह के डिस्ट्रिक्ट जजों की जरूरत होती है जिन्होंने क्रिमिनल केस देखा है।

दीपिका का कहना है कि फिलहाल वैज्ञानिक रूप से डिजाइन किया गया लिस्टिंग और रोस्टर सिस्टम नहीं है जो जजों की विशेषज्ञता के हिसाब से केस दे। इससे पेंडेंसी घटेगी। इस समय हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति का भी कोई वैज्ञानिक विधि नहीं है।

वकील के हिसाब से देखें तो क्रिमिनल अपील दोनों दोषी और बरी होने वाले शख्स के खिलाफ दायर की जाती है। बरी होने पर, राज्य की ओर से अपील दाखिल की जाती है। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी ऐसा देखा जाता है कि रूटीन मामले के तौर पर अपील फाइल कर दी जाती है। इस चलन को रोकने के लिए सख्त कदम की जरूरत है। वकील पर भारी जुर्माना लगाने से यह प्रथा बंद हो सकती है। ऐसे देखा भी जाता है कि जज वकीलों पर इस तरह की दंडात्मक कार्रवाई से बचते हैं। इसे बदलना होगा।

इसी तरह से वकीलों की ओर से बार-बार सुनवाई टालने की प्रथा को भी रोकना होगा। ‘विधि’ की एक स्टडी में पता चला कि दिल्ली हाई कोर्ट में 70 प्रतिशत देरी के मामलों में वकीलों ने तीन बार से ज्यादा वक्त मांगा था। विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी की दीपिका कहता है कि राजकुमार को संविधान में दिए अधिकार का इस्तेमाल करने में चार दशख लग गए जबकि अन्य को मौका ही नहीं मिला। यह मानवाधिकार उल्लंघन की श्रेणी में आता है।

-एजेंसियां


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