जब कबाड़ भी ‘धर्मनिरपेक्ष’ होने की बात करने लगा…

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आगरा, : क्या हमारे शहर अब सिर्फ़ ‘धर्म विशेष’ के कबाड़ को ही पहचान पाएंगे? क्या कबाड़ में भी धर्म का रंग होता है? अगर होता है, तो नगर निगम को यह किसने बताया? रविवार को आगरा में कुछ ऐसे ही सवाल उठे। जब अखिल भारतीय हिंदू महासभा ने नगर निगम पर आरोप लगाया कि उसने शहर के चौराहों पर ‘एक धर्म’ का ही प्रचार शुरू कर दिया है, वो भी कबाड़ के नाम पर।

सवाल तो बनता है: क्या देश में ‘धर्मनिरपेक्षता’ की नई परिभाषा गढ़ी जा रही है, जहां कबाड़ से भी सिर्फ़ एक धर्म की कलाकृति ही बनती है?

क्या है पूरा मामला?

मामला ये है कि आगरा नगर निगम ने शहर को सुंदर बनाने के लिए एक नया ‘अभियान’ शुरू किया। इस अभियान के तहत, शहर के कई चौराहों पर कबाड़ से बनी कलाकृतियाँ लगाई गईं। इन कलाकृतियों में मुख्य रूप से राम मंदिर का मॉडल, भगवान शिव और उनके डमरू की प्रतिमाएँ शामिल हैं। इन मूर्तियों को देखकर हिंदू समुदाय के लोग खुश हुए।
लेकिन, अखिल भारतीय हिंदू महासभा के नेताओं ने इस पर कड़ी आपत्ति जताई। उन्होंने नगर आयुक्त को एक ज्ञापन दिया और कहा कि शहर में हर धर्म के लोग रहते हैं। ऐसे में नगर निगम का सिर्फ़ एक धर्म से जुड़ी कलाकृतियाँ लगाना, बाक़ी धर्मों को अनदेखा करने जैसा है। ये बात अन्य धर्मों के लोगों की भावनाओं को ठेस पहुँचा सकती है।

ज्ञापन में उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि शहर में बड़ी संख्या में मुस्लिम और ईसाई लोग भी रहते हैं। उन्हें ऐसा महसूस नहीं होना चाहिए कि उनकी ‘निगम सरकार’ उनके धर्म को भूल गई है।

इसलिए, जिस तरह से हिंदू धर्म के लोगों को खुश किया गया है, उसी तरह से मुस्लिम और ईसाई लोगों को भी खुश होने का मौक़ा मिलना चाहिए।

वो सवाल, जिनके जवाब शायद कहीं नहीं मिलेंगे

इसके बाद हिंदू महासभा ने एक दिलचस्प मांग रखी। उन्होंने कहा कि नगर निगम उन्हीं कलाकारों से शहर में मक्का-मदीना और ईसा मसीह की प्रतिमाएँ भी बनवाए। ताकि मुस्लिम और ईसाई समुदाय भी खुश हो सकें।

लेकिन, यहां एक बड़ी अजीब बात है। ये बात ख़ुद हिंदू महासभा के नेताओं को भी पता थी कि मुस्लिम धर्म में किसी भी तरह की मूर्ति या फ़ोटो बनाना वर्जित है। वहीं, ईसाई धर्म में भी ईसा मसीह की मूर्ति को इस तरह सार्वजनिक रूप से लगाने का विचार शायद ही कोई स्वीकार करे।

तो क्या यह मांग, सिर्फ़ एक दिखावा थी? एक ऐसा तीर, जो चलाया तो गया, लेकिन चलाने वालों को भी पता था कि यह निशाने पर कभी नहीं लगेगा? क्या यह सिर्फ़ इसलिए कहा गया, ताकि नगर निगम की ‘धर्मनिरपेक्षता’ पर सवाल उठाया जा सके? क्या यह एक तरह का ‘सत्याग्रह’ है, जिसमें मांग ही ऐसी रखी जाए, जिसे पूरा करना नामुमकिन हो?

इस पूरे मामले को देखकर लगता है कि हमारे देश में अब ‘कला’ भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की कसौटी पर परखी जा रही है। सवाल सिर्फ़ इतना है, क्या अब से हमारे शहर को सुंदर बनाने से पहले, नगर निगम को सभी धर्मों के धर्मगुरुओं से पूछना पड़ेगा कि क्या उनके धर्म का कबाड़ किस तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है?

क्या आज के बाद कोई आर्टिस्ट गणेश जी की मूर्ति बनाएगा, तो उसे पहले मक्का-मदीना का मॉडल बनाना होगा? या फिर कोई ‘भारत माता’ की मूर्ति बनाए, तो उसे पहले ‘धर्मनिरपेक्षता’ की मूर्ति भी बनानी होगी?

इन सवालों के जवाब तो आने वाले समय में ही मिलेंगे, लेकिन फिलहाल आगरा का यह ‘कबाड़’ हमें कुछ ज़रूरी बातें सोचने पर मजबूर ज़रूर कर गया है।

-मोहम्मद शाहिद की कलम से