देशभर के पुलिसकर्मियों के लिए बोले SP नगेन्द्र सिंह, वायरल हुआ उनका भावुक संदेश

विविध

जून 2025 | बालाघाट / भोपाल
विशेष रिपोर्ट : पुलिस विभाग में संवेदनशीलता और ईमानदारी की मिसाल बन चुके IPS नगेन्द्र सिंह का एक वीडियो हाल ही में सोशल मीडिया पर देशभर में वायरल हो गया।

इस वीडियो में उन्होंने एक अधिकारी की नहीं, बल्कि हर वर्दीधारी इंसान की भावनाएं व्यक्त कीं — बिना किसी आरोप या शिकायत के, पूरी गरिमा के साथ।

उनका संदेश था:

“हम भी इंसान हैं… हमारी भी भावनाएं हैं। जब तक इस वर्दी के पीछे की ज़िंदगी को समझा नहीं जाएगा, व्यवस्था केवल आदेशों से नहीं बदलेगी।”

यह कथन लाखों पुलिसकर्मियों के दिल की आवाज़ बन गया। 20 लाख से अधिक लोगों ने इस संदेश को साझा किया — न केवल क्योंकि वह बोल रहे थे, बल्कि क्योंकि वह हर किसी की चुप्पी को आवाज़ दे रहे थे।

जहाँ शब्द भावुक थे, वहाँ कार्यवाही ऐतिहासिक

  • पिछले 30 वर्षों की सबसे बड़ी नक्सल मुठभेड़ का सफल नेतृत्व।
  • 2024 में महिला नक्सली की जीवित गिरफ्तारी, जो पाँच वर्षों में पहली बार हुआ।
  • मिशन 2026 के रणनीतिक संयोजक, जिसका उद्देश्य नक्सल मुक्त मध्यप्रदेश है।

10+ मुठभेड़ों में खुद शामिल, पर कभी गैलेंट्री मेडल के लिए खुद को नामित नहीं किया।

एक ऐसा अफसर, जो नाम नहीं, निशान छोड़ता है

  • राज्य के सबसे युवा अधिकारी जिन्हें DG’s Disc और Citation Roll से नवाज़ा गया।
  • 64 कर्मियों को विशेष पदोन्नति दिलवाना, राज्य का सबसे बड़ा आउट-ऑफ-टर्न प्रमोशन।
  • हमेशा टीम को आगे रखकर काम करने वाले अधिकारी, जिनके अधीनस्थ उन्हें ” अफसर नहीं, परिवार का हिस्सा” मानते हैं।

जब संवेदनशीलता ताक़त बनती है

SP नगेन्द्र सिंह का वीडियो किसी विरोध का प्रतीक नहीं, बल्कि संवेदनशीलता के साहसिक प्रदर्शन का प्रतीक है।
उन्होंने जिस सरलता से पुलिस बल की पारिवारिक और मानसिक चुनौतियों को उजागर किया, वह किसी रिपोर्ट या चार्ट से कहीं अधिक प्रभावी साबित हुआ।

उनकी बातों में न नारा था, न आलोचना — बल्कि एक आग्रह था कि

“जो व्यवस्था हमें नेतृत्व देती है, वह हमें समझे भी।”

निष्कर्ष: एक अफसर, जो वर्दी से आगे सोचते हैं

IPS नगेन्द्र सिंह हमें यह याद दिलाते हैं कि वर्दीधारी होना सिर्फ ड्यूटी नहीं, बल्कि एक भावनात्मक तपस्या भी है।

यह कहानी केवल एक अधिकारी की नहीं, बल्कि हर उस ईमानदार कर्मवीर की है, जो नायक बनकर भी मंच से दूर रहता है। आज ज़रूरत है कि हम उन्हें सिर्फ सम्मान नहीं, समर्थन भी दें — ताकि ऐसी संवेदनशीलता गुमनाम न रह जाए। परंतु यह भी सोचने योग्य है कि जब एक अधिकारी जनसेवा और साहस के ऐसे मानक स्थापित करता है, तब क्या उसकी अगली भूमिका भी उतनी ही रणनीतिक और दृश्य होनी चाहिए?

“यह लेख कोई आरोप नहीं, एक आत्मनिरीक्षण है — क्या हम अपने सबसे ईमानदार और संवेदनशील नेतृत्व को सही मंच दे पा रहे हैं, ताकि ऐसे अधिकारी सिस्टम की अनदेखी का शिकार न बनें?”