भाषा विवाद: सांझी विरासत को आग मत लगाओ!

अन्तर्द्वन्द
डॉ राकेश कुमार आर्य
( लेखक सुप्रसिद्ध इतिहासकार और भारत को समझो अभियान समिति के राष्ट्रीय प्रणेता हैं )

बहुत ही दु:ख का विषय है कि आज संस्कृत और संस्कृतनिष्ठ हिंदी को लेकर दक्षिण के तमिलनाडु से एक बार फिर विरोधी स्वर उठते हुए दिखाई दे रहे हैं। वहां के मुख्यमंत्री एम०के० स्टालिन इस विवाद के अगवा बने हैं। सृष्टि उत्पत्ति के संदर्भ में सभी विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि सबसे पहले एक ध्वनि बनी थी, जो संपूर्ण ब्रह्मांड में बहुत देर तक सुनाई देती रही ।

वास्तव में यह ओ३म की ध्वनि थी। आज भी हम जब कोई नया कार्य करते हैं तो उसके शुभारंभ पर शंख के माध्यम से ओ३म की ध्वनि गुंजित की जाती है। इस ओ३म को ही प्राणाधार और सर्वाधार कहा जाता है। इसलिए ओ३म से ही संस्कृत भाषा की उत्पत्ति हुई। परमपिता परमेश्वर ने वेद का निर्मल ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा नाम के चार ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट किया। अतः संसार की सबसे पहली भाषा संस्कृत है। उसी से भारतवर्ष की और सारे संसार की भाषाएं उत्पन्न हुईं। ओ३म की ध्वनि के गुंजन के समय जो ईक्षण हुआ, उसी से सृष्टि का निर्माण हुआ। इसी ईक्षण को शिव का तांडव नृत्य कहा जाता है। पुराणों में ऐसा वर्णन कर दिया गया है कि शिव ( अर्थात जगत का कल्याण करने वाला परमपिता परमेश्वर ) के डमरू से ही संस्कृत और तमिल भाषा की उत्पत्ति हुई है।

बिना किसी विवाद के और बिना किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचाए हम इस बात पर सहमति बनाएं कि संस्कृत संसार की सबसे पहली भाषा है। यद्यपि इस विषय पर संसार के सभी भाषाविद सहमत हैं कि संस्कृत ही संसार की सबसे पहली भाषा।है। इसके उपरांत भी भारतवर्ष में भारतीयों को ही लड़ाने के लिए कुछ मिथक गढ़े गए। जिनमें से एक आर्य और द्रविड़ के संघर्ष का मिथक सबसे घातक रहा है। वास्तव में यह बात पूर्णतया प्रमाणिक है कि आर्य और द्रविडों का कभी कोई संघर्ष नहीं हुआ और यह भी सत्य है कि आर्य विदेशी नहीं थे, ना ही उन्होंने उत्तर से किसी कथित द्रविड़ जाति को भगाने का काम किया था।

परंतु विदेशियों ने हमारे भीतर इस मिथक को एक सच्चाई के रूप में स्थापित कर दिया है। इसी मिथक ने भारतवर्ष में संस्कृत बनाम तमिल के विवाद को जन्म दिया है। जिसका विवाद बार-बार उठता है। संस्कृत में भारत के अतीत के अनेक गौरवपूर्ण पृष्ठों को स्वर्णिम अक्षरों में उकेरने का काम किया है। इसने संसार को समृद्धतम साहित्य प्रदान किया है। सांस्कृतिक मूल्य प्रदान किए हैं ।

यहां तक कि संपूर्ण मानव जाति का संविधान अर्थात वेद भी संस्कृत ने ही प्रदान किया है। इसी संस्कृत ने संसार के सभी देशों के लिए मनुस्मृति प्रदान कर भारी पुण्य का कार्य किया है। संस्कृत ही दर्शनों की भाषा है। संस्कृत ही रामायण और महाभारत की भाषा है। संस्कृत ही उपनिषदों की भाषा है। जिससे मानव जाति उन्नति और सद्गति को प्राप्त होती है।

इसने युग युगों में भारत का ही नहीं, मानव जाति का भी बौद्धिक नेतृत्व किया है। उसकी आत्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया है। ऐसे में संस्कृत पर भारत के लोगों को ही नहीं अपितु मानव मात्र को गर्व करने का पूर्ण अधिकार है।

तमिलनाडु सहित संपूर्ण दक्षिण भारत के लोग भारत की मनीषा के मानस पुत्र हैं। उनके साथ हमारा रक्त का संबंध है। युग युगों से उन्होंने भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने में अपना अप्रतिम योगदान दिया है। भारत को एक राष्ट्र बनाए रखने में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। जो लोग भारत को एक राष्ट्र के रूप में नहीं देखते अर्थात जो भारत की राष्ट्रीयता के शत्रु हैं ,उन्होंने दक्षिण के लोगों के भीतर यह भ्रांति उत्पन्न करने का प्रयास किया है कि वे अलग हैं और उत्तर भारत के लोग अलग हैं। इस कुत्सित प्रयास का परिणाम यह निकला है कि हम कई बार अनावश्यक मुद्दों पर लड़ने लगते हैं। यद्यपि हम यह भली प्रकार जानते हैं कि हमारी लड़ाई का सबसे अधिक कष्ट हमारी भारत माता को होता है।

आज दक्षिण में स्टालिन जिस प्रकार लोगों की भाषाई भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का काम कर रहे हैं, वह किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं कहा जा सकता। भारत के संविधान में तमिल भाषा को सम्मान पूर्ण स्थान दिया गया है। जिसका संपूर्ण उत्तर भारत के लोग भी सम्मान करते हैं। उनके लिए तमिल सम्मान और श्रद्धा के योग्य है तो तमिल लोगों के लिए संस्कृत या हिंदी सम्मान की पात्र क्यों नहीं हो सकती ? स्टालिन को इस समय स्वार्थ प्रेरित राजनीति से ऊपर उठने की आवश्यकता है। हमारे सामने सनातन को बचाए रखने का सामूहिक लक्ष्य है। आज के संदर्भ में सनातन को मजबूत करना और बचाने के प्रति समर्पित रहना हमारा सांझा लक्ष्य हो सकता है। यही हमारा कॉमन मिनिमम प्रोग्राम हो सकता है। हमारे लिए एजेंडा निश्चित है तो झंडा को लेकर तकरार नहीं होनी चाहिए ? हमें ध्यान रखना चाहिए कि सनातन के विरोध में खड़ी शक्तियां हमारे इसी प्रकार के विवादों को हवा देने का प्रयास करती रही हैं और आज भी कर रही हैं । हमारा परस्पर लड़ना उनके लिए लाभ का सौदा होता है। यही कारण है कि वह भाषा , क्षेत्र , प्रांत आदि की हमारी विविधताओं को हवा देने का काम करती रहती हैं।

अपने लक्ष्य तक पहुंचने के लिए ये भारत विरोधी शक्तियां भारत में देव और असुर की मनमानी व्याख्या करती हैं। आर्य और द्रविड़ में हमारा विभाजन करती हैं। तमिल भाषा को उत्तर भारत वालों के लिए अमान्य घोषित करने के प्रयास करती हैं और इसी प्रकार दक्षिण भारत के लोगों को हिंदी और संस्कृत के विरुद्ध उठने का आवाहन करती हैं। आज आवश्यकता है कि हम अपने इतिहास की न्यायपरक व्याख्या करें। बुद्धि संगत, तर्कसंगत और न्याय प्रेरित अपने इतिहास को पढ़ें। हम विचार करें कि रामचंद्र जी ने दक्षिण भारत सहित श्रीलंका के भी लोगों से कोई विरोध व्यक्त नहीं किया था। उनका नरसंहार नहीं किया था। उन पर किसी प्रकार से भी वह कुपित नहीं हुए थे।

उन्होंने अन्याय और अत्याचार के प्रतीक रावण का विरोध किया था। हम न्यायशील रामजी की संतान हैं, हम उत्तर और दक्षिण भारत की संतान नहीं हैं। हमारा इतिहास सांझा है। हमारी परंपराएं सांझी हैं। हमारे ग्रंथ सांझे हैं। हमारी मान्यताएं सांझी हैं । हमारा धर्म, हमारी संस्कृति, हमारा देश, हमारा राष्ट्र सभी कुछ तो सांझा है। इसलिए आवश्यकता है कि इस सांझी विरासत को भाषा के नाम पर आग न लगाई जाए ?

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