अंग्रेजों के खंडित भारत में पहुँच गया 21वीं सदी का इंडिया

अन्तर्द्वन्द

एक बार महात्मा गांधी ने कहा था, “सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, बल्कि यह तो प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है।” इस भावना को समझते हुए देश को कई इकाइयों में बांटा गया। प्रदेश, जिला, ब्लॉक इत्यादि। यह प्रशासनिक व्यवस्था अंतिम व्यक्ति तक विकास पहुंचाने के लिए की गई। लेकिन विकास की तलाश में यह प्रक्रिया इतनी जटिल हो गई कि अंत में सिर्फ एक सियासी खानापूर्ति बन कर रह गई, और एक आम आदमी इस जटिलता से कभी पार नहीं पा सका। लेकिन पूरी प्रक्रिया इतनी जटिल हुई कैसे? इसे समझने के लिए एक शहर का उदाहरण लेते हैं।

एक शहर है, शहर में कई मोहल्ले हैं, मोहल्लों को वार्ड में विभाजित कर दिया गया है। प्रत्येक वार्ड का वहां की जनता द्वारा चुना गया एक प्रतिनिधि होता है जिसे पार्षद कहते हैं। पार्षद का काम वार्ड से सम्बंधित शिक्षा, स्वास्थ्य या इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़े छोटे-छोटे विकासकार्यों को अंजाम देना होता है। इसके लिए उसे शहर की जनसंख्या के हिसाब से नगर पंचायत, नगरपालिका परिषद, नगर निगम या महानगर पालिका के माध्यम से पार्षद निधि उपलब्ध कराई जाती है। यानी कुछ ऐसी निश्चित धनराशि जिसका उपयोग वह वार्ड की समस्याओं के निवारण के लिए कर सकता है। पार्षद से ऊपर शहर का मेयर होता है। यहां तक बात एक सीमित क्षेत्र की है।

अब इस सीमित क्षेत्र के साथ क्षेत्रफल को जनसंख्या के लिहाज से थोड़ा बड़ा करें तो क्षेत्रीय विधायक आते हैं, जो सीधे राज्य सरकार के लिए कार्य करते हैं। इनका भी कार्य पार्षद की तरह अपने कार्यक्षेत्र के अंतर्गत विकासकार्यों को अंजाम देना होता है। इसके लिए राज्य सरकार द्वारा विधायक निधि उपलब्ध कराई जाती है और विभिन्न क्षेत्रों में विकास कार्य कराये जाने के दिशा निर्देश दिए जाते हैं। इनका मुखिया राज्य का मुख्यमंत्री होता है। अब यहाँ ये समझने की जरुरत है कि विधायक के कार्य क्षेत्र या विधायक निधि का उपयोग करने के लिए निर्धारित क्षेत्र में वह मोहल्ला भी आता है जहाँ पार्षद को विकास के लिए पार्षद निधि प्रदान की गई है।

अब इस दायरे को क्षेत्रफल और जनसंख्या के हिसाब से थोड़ा और बड़ा करें तो एक संसदीय क्षेत्र का निर्माण होता है। प्रत्येक संसदीय क्षेत्र का एक सांसद होता है, जिसका कार्य भी पार्षद और विधायक की तरह अपने संसदीय क्षेत्र के विकासकार्यों को फलीभूत कराना होता है। इनका मुखिया प्रधानमंत्री होता है, लिहाजा इसके लिए उसे केंद्र सरकार की ओर से सांसद निधि उपलब्ध कराई जाती है। यानी इस धन राशि का उपयोग वह अपने निर्वाचन क्षेत्र के लिए कर सकता है जिसमें वह मोहल्ला भी शामिल है जिसके लिए पार्षद और विधायक को अलग-अलग निधियां प्राप्त होती हैं। इसे एक पानी के टैंकर के उदाहरण से समझा जा सकता है। आपने भी अपने मोहल्ले में कई बार नोटिस किया होगा कि अक्सर गर्मी के दिनों में पानी के टैंकरों की आवश्यकता पड़ जाती है, जिसकी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए पार्षद, विधायक और सांसद तीनों ही लग जाते हैं, और उनके नामों के टैंकर क्षेत्र में घूमते नजर आते हैं। अब सवाल ये है कि आखिर इस आपूर्ति की असल जिम्मेदारी किसकी थी? क्या एक छोटे से पानी के टैंकर के लिए क्षेत्रीय से लेकर संसदीय स्तर के प्रतिनिधियों की आवश्यकता होती है? आखिर क्यों यह प्रक्रिया एक आम इंसान के लिए इतनी जटिल प्रतीत होती है।

इस पूरे प्रशासनिक ढांचे में आजादी से पूर्व के खंड-खंड में विभाजित भारत की झलक देखी जा सकती है। विकास का एक कार्य, जिसके लिए देश के टैक्सपेयर्स के गाढ़े पैसे को तीन प्रतिनिधियों में अलग-अलग बांट दिया जाता है, बावजूद इसके कई बार काम अधर में ही लटके रहते हैं। इसलिए हमें इस पूरी प्रक्रिया को सरल बनाने की जरुरत है, और इसका एक ही उपाय है कि सभी के कामों का बंटवारा कर दिया जाए। आम आदमी की जानकारी में हो कि एक पार्षद को कितनी धनराशि किस काम के लिए दी जा रही है। इसी प्रकार विधायक और सांसद के कामों और धनराशि को भी विभाजित किया जाए। यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्राप्त धनराशि का सही उपयोग किस क्षेत्र के किस विकासकार्य के लिए किया गया है, डिजिटल माध्यमों का भी उपयोग किया जा सकता है। प्रतिनिधि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स के माध्यम से खर्चों और विकासकार्यों की जानकारी जनता तक पहुंचा सकते हैं। जब जन प्रतिनिधियों की जिम्मेदारियां बंटी होंगी और आम जनता की जानकारी में होंगी, तो इस खंडित हो रखी व्यवस्था को अखंडता के मार्ग पर वापस लाया जा सकता है।

– अतुल मलिकराम (राजनीतिक रणनीतिकार)

ये लेखक के अपने निजी विचार है


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