हरियाणा का खराब लिंगानुपात क्यों नहीं बना चुनावी मुद्दा?

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प्रियंका सौरभ

‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ योजना के शुरुआती साल 2014 में लिंगानुपात में कुछ सुधार के बाद हरियाणा में यह फिर से बिगड़ने लगा है। एक साल में ही हरियाणा में जन्म के समय लिंगानुपात में बड़ा सुधार हुआ। एक हज़ार लड़कों के मुकाबले 900 लड़कियों के जन्म के साथ ही यह बीते 20 साल के सबसे अच्छे स्तर पर आ गया था। लेकिन उसके बाद फिर स्थिति बिगड़ गई। क्या हरियाणा में लिंगानुपात का चुनावी मुद्दा नहीं बनने में नेताओं की कम, लोगों की गलती ज़्यादा है क्योंकि पुरुष वर्चस्व वाले लोग ऐसा नहीं चाहते हैं। पुरुष नहीं चाहते कि यह तस्वीर बदले और इसका दोषी मैं भी हूँ। जब हम बिजली, पानी और सड़क की मांग करते हैं तो यह राजनीतिक मुद्दा भी बनता है। अगर हम मांग करेंगे तो लिंगानुपात की समस्या को भी गंभीरता से लिया जाएगा। राज्य के सभी दल चुनाव के दौरान अवश्य ही इस मुद्दे को गंभीरता से आम जनता के समक्ष उठाएं। यह मुद्दा काफी गंभीर है और सीधे रूप से सामाजिक ताने-बाने पर असर डालने वाला है। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों को इस विषय पर एकमत होते हुए जनता के बीच पहुंचना चाहिए। साथ ही इस विषय को मेनिफेस्टो में डाले जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हमारी सभी की अपनी सोच इसके प्रति गंभीर बने।

सालों पहले एक बार चुनाव के दौरान हरियाणा के एक नेता ने एक सभा में युवाओं से कहा था कि ‘वोट दे दो, शादी करा दूंगा’। हालांकि यह काफी हल्के अंदाज़ में कहा गया था लेकिन दुर्भाग्य से यह मुद्दा आज भी काफी गंभीर है। राजनीति भी एक अजीब चीज है। मुद्दे आते हैं और चर्चा का विषय बन जाते हैं। चुनाव के समय पर अलग समीकरण और अलग मुद्दे प्रचार के दौरान हावी होते हैं। मुद्दे के नाम पर जमकर वोट मांगी जाती है। हरियाणा के इस विधानसभा चुनाव में अग्निवीर योजना, किसान आंदोलन और महिला खिलाड़ियों का मुद्दा राजनीतिक दलों के बीच काफी अहम नजर आ रहा है और चुनाव प्रचार में इन पर बहुत कुछ सुनने को मिल रहा है। लेकिन हरियाणा का देश में सबसे खराब लिंगानुपात चुनाव में कोई मुद्दा नहीं बन पाया है। भारत में साल 2011 में हुई पिछली जनगणना में 0 से 6 साल के बच्चों में एक हज़ार लड़कों की तुलना में लड़कियों की संख्या हरियाणा में सबसे कम 830 थी। राज्य में लिंगानुपात यानी पुरुषों के मुकाबले महिलाओं की कम तादाद पर अलग-अलग मंचों से अक्सर चर्चा होती है लेकिन यह मुद्दा इस बार भी चुनाव में नजर नहीं आया है। यहां चिंता का विषय यह है कि अभी तक के समय काल में ऐसा देखने को नहीं मिला कि असंतुलित हो रहे लिंगानुपात से जुड़े विषय को चुनावी मुद्दे के रूप में लिया गया हो।

जबकि समय की जरूरत यह दिखती है कि आधी आबादी के जन्म लेने से पूर्व जो पुख्ता इंतजाम होने चाहिए, उसे राजनीतिक दलों के मेनिफेस्टो में एक अहम मुद्दे के रूप में स्थान प्रदान किया जाए। चूंकि संविधान ने महिलाओं को पुरुषों के समान अवसर प्रदान करने का अधिकार दिया है। लिंगानुपात हरियाणा के चुनावों में मुद्दा बनना चाहिए लेकिन यह नहीं बन पाया है। पार्टियां इस मुद्दे को इसलिए नहीं उठाती हैं क्योंकि इससे उनकी पुरानी नाकामी उजागर होगी और अगर किसी पार्टी ने इस मुद्दे पर काम किया है, उसका प्रचार नहीं कर पाना भी उनकी कमी है। हरियाणा में लोग कहते हैं कि लड़कों के लिए दूसरे राज्यों से लड़कियाँ लानी होंगी, लेकिन फिर भी ‘बेटी बचाओ’ मुहिम और भ्रूण हत्या पर सख्ती ने भी हालात नहीं बदले। हरियाणा की महिलाएं घर और खेतों में काम करने के अलावा खेल के क्षेत्र में काफी आगे हैं। किसान आंदोलन में भी हरियाणा की महिलाओं को काफी सक्रिय देखा गया है। भारत को ओलंपिक और अन्य खेलों में पदक दिलाने वाली कई महिला खिलाड़ियों का ताल्लुक हरियाणा से ही है।

राजनीतिक सक्रियता के मामले में पार्टी कार्यकर्ता बनने और वोटिंग में महिलाएं आगे हैं, लेकिन शीर्ष पदों पर और नीतियां बनाने में अब भी वो काफी पीछे हैं। इसके पीछे हरियाणा के पारंपरिक समाज में पुरुषों के वर्चस्व को बड़ी वजह माना जाता है। भारत के कई इलाकों में गर्भ में बच्चियों की भ्रूण हत्या भी एक बड़ी समस्या रही है। जानकार मानते हैं कि इसके खिलाफ कुछ साल पहले तक टीवी और अख़बारों में चेतावनी के ज़्यादा विज्ञापन भी आते थे। गर्भ में भ्रूण का लिंग परीक्षण क़ानूनन अपराध होने के बाद भी इस पर पूरी तरह रोक लगा पाना संभव नहीं हो पाया है। ऐसे अपराध के मामलों में हरियाणा देश के शीर्ष राज्यों में बना हुआ है। ख़राब लिंगानुपात के कारण हरियाणा में युवाओं की शादी के लिए लड़कियों की कमी की समस्या पुरानी है। यही नहीं राज्य सरकार ने 45 से 60 साल तक के अविवाहित पुरुषों के लिए पेंशन भी शुरू की है। हरियाणा भारत का ऐसा पहला राज्य है, जिसने इस तरह की पेंशन योजना शुरू की है। हरियाणा में लड़के और लड़कियों को अनुपात के हिसाब से देखें तो राज्य में प्रति एक हज़ार युवाओं में 100 से ज़्यादा युवाओं की शादी नहीं हो सकती।

जिसके चलते राज्य में युवाओं की शादी के लिए लड़कियों की कमी भी एक बड़ी समस्या है। यहाँ कई इलाक़ों में शादी के लिए लड़कियों की तलाश झारखंड, बिहार और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में की जाती है। ज़ाहिर है कि लड़कों और लड़कियों की आबादी का संतुलन बिगड़ रहा है। युवाओं के अविवाहित रहने की वजह से आबादी का संतुलन बिगड़ रहा है। बगैर महिलाओं का सशक्तिकरण किए आदर्श समाज की परिकल्पना करना नामुमकिन ही प्रतीत होता है। साल 2019 में हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में कुल 9 महिलाओं ने जीत हासिल की थी। इस लिहाज से राज्य विधानसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 10 फ़ीसदी था। इस बार के चुनावों में भी अब तक हरियाणा में बीजेपी ने कुल 10 और कांग्रेस ने दो लिस्ट में 6 महिलाओं को ही टिकट दिया है। ऐसे में स्पष्ट है कि राजनीतिक दल महिलाओं के प्रति कैसी सोच रखते है? महिलाओं को टिकट तो दूर कि बात राज्य के सभी दलों ने कन्या भ्रूण हत्या जैसे संगीन मुद्दे को छुआ तक नहीं। विधान सभा में महिलाओं की संख्या बढ़ाने से पहले कन्या भ्रूण हत्या जैसे गंभीर विषय को चुनावी मुद्दे के रुप में शामिल किया जाए तो वह सीधे रुप से महिला सशक्तिकरण का काम करेगा। अगर ऐसा होता है तो उसके सकारात्मक परिणाम देखने को मिलेंगे।

राज्य के सभी दल चुनाव के दौरान अवश्य ही इस मुद्दे को गंभीरता से आमजनता के समक्ष उठाएं। यह मुद्दा काफी गंभीर है और सीधे रुप से सामाजिक ताने-बाने पर असर डालने वाला है। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों को इस विषय पर एकमत होते हुए जनता के बीच पहुंचना चाहिए। साथ ही इस विषय को मेनीफेस्टो में डाले जाने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हमारी सभी की अपनी सोच इसके प्रति गंभीर बने।

-प्रियंका सौरभ
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस,
कवयित्री, स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
उब्बा भवन, आर्यनगर, हिसार (हरियाणा)-127045
(मो.) 7015375570 (वार्ता+वाट्स एप)