भारतीय सेना हर साल 03 नवंबर के दिन स्वर्गीय मेजर सोमनाथ शर्मा को श्रद्धांजलि देती है। 3 नवंबर को हर साल बडगाम की लड़ाई दिवस मनाया जाता है। इसी दिन मेजर सोमनाथ शर्मा पाकिस्तान के कबायली आक्रमणकारियों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। आइए इस मौके पर बडगाम की लड़ाई से जुड़ीं कुछ खास बातें जानते हैं…
परिचय
अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी फौज के समर्थन से कबायलियों ने कश्मीर पर हमला कर दिया था। इसी युद्ध के दौरान 3 नवंबर 1947 को कश्मीर घाटी के बडगाम में एक लड़ाई हुई थी जिसे बडगाम की लड़ाई के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध में भारतीय सैनिकों की संख्या सिर्फ 50 के आसपास थी जबकि हमलावर पाकिस्तानी 500 से ज्यादा संख्या में था। यह लड़ाई भले ही छोटी और रक्षात्मक थी लेकिन यह निर्णायक साबित हुई थी।
मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन ने लश्कर का डटकर सामना किया और उनकी बढ़त को रोक दिया। इससे भारतीय सेना को कश्मीर पहुंचने और उसे बचाने का मौका मिल गया। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरांत परम वीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
लड़ाई की पृष्ठभूमि
कबायली लश्कर तीन टुकड़ियों में बंटकर आगे की ओर बढ़ रहे थे। पहली टुकड़ी वुलर झील की ओर, दूसरी मुख्य मुजफ्फराबाद-बारामूला-पाटन और श्रीनगर जबकि तीसरी टुकरी गुलमार्ग रूट पर थी। पता चला था कि 700 कबायलियों का लश्कर गुलमार्ग रूट पर जा रहा है और वे बडगाम पहुंचने वाले थे। बडगाम पहुंचने के बाद वे इस स्थिति में होते की एयरफील्ड को कब्जे में ले लेते और हवाई मार्ग से भारतीय सैनिकों का कश्मीर में जाने का रास्ता बंद कर देते। इससे और भारतीय सैनिकों का कश्मीर में पहुंचना और कश्मीर को कबायलियों के चंगुल से आजाद कराना मुश्किल हो जाता।
गश्त की योजना
161 इन्फैंट्री ब्रिगेड के कमांडर ब्रिगेडियर एल. पी. सेन नए-नए वहां पहुंचे थे। उन्होंने फैसला किया कि एक गश्ती दल को बडगाम गांव की निगरानी के काम पर भेजा जाए। गश्ती दल का काम बडगाम के आसपास और बडगाम एवं मगाम के बीच के इलाके की तलाशी लेना थाताकि घुसपैठिए पाकिस्तानियों का पता लगाया जा सके। गश्ती दल में दो कंपनी को तैनात करने का फैसला लिया गया। कुमाऊं रेजिमेंट की पहली बटालियन (1 कुमाऊं) को कुमाऊं रेजिमेंट की चौथी बटालियन (4 कुमाऊं) के साथ गश्त ड्यूटी सौंपी गई। 1 कुमाऊं रेजिमेंट को बडगाम के आगे के इलाके की गश्त का काम सौंपा गया था।
बडगाम का युद्ध
3 नवंबर, 1947 को मेजर सोमनाथ शर्मा के नेतृत्व में 4 कुमाऊं कंपनी गश्त के काम को अंजाम दे रही थी। लश्करों ने सोमनाथ शर्मा और उनकी कंपनी को चारों तरफ से घेर लिया। शर्मा और उनकी कंपनी ने इस मौके पर बहादुरी का पूरा परिचय दिया और कबायलियों का डटकर मुकाबला किया। अगर इस मौके पर शर्मा की कंपनी थोड़ा भी चूक जाती तो युद्ध का नतीजा पलट जाता। शर्मा ने फैसला किया कि अपनी कंपनी के आखिरी जवान को खोने तक मुकाबला जारी रखेंगे। उनकी बहादुरी और जांबाजी ब्रिगेड मुख्यालय को भेजे गए उनके आखिरी संदेश से पता चलती है।
उनके पास एक गोला आकर फटा था जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गए थे। अपनी मौत से कुछ पल पहले उन्होंने ब्रिगेड मुख्यालय को एक संदेश भेजा, ‘दुश्मन हमसे सिर्फ 50 गज की दूरी परी हैं। दुश्मन हमसे कई गुना संख्या में हैं लेकिन मैं एक ईंच पीछे नहीं हटूंगा। आखिरी जवान और आखिरी राउंड तक लड़ूंगा।’ युद्ध के बाद उनके इस जज्बे को मरणोपरांत परम वीर चक्र देकर सम्मानित किया गया।
युद्ध का महत्व
शर्मा की कंपनी की ओर से डटकर मुकाबला करने से 200 कबायली हताहत हुए थे। लश्कर का कबालयली लीडर भी उसकी जांघ में गोली लगने से जख्मी हो गया था। लीडर के जख्मी होने के बाद लश्कर आगे बढ़ने का फैसला नहीं ले पाया और इस मुकाबले की वजह से कबायली इधर ही उलझे रहे।
उनलोगों ने श्रीनगर एयरफील्ड की ओर बढ़ने की कोशिश नहीं की जिससे भारतीय सेना को अतिरिक्त सैनिक कश्मीर भेजने का मौका मिला गया। भारतीय सैनिकों ने श्रीनगर पहुंचने के सभी रास्ते बंद कर दिए और पाटन से लेकर श्रीनगर तक को कबायलियों के कब्जे में जाने से पहले अपने नियंत्रण में कर लिया गया।
-एजेंसियां
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